ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 66/ मन्त्र 11
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तं वृ॒धन्तं॒ मारु॑तं॒ भ्राज॑दृष्टिं रु॒द्रस्य॑ सू॒नुं ह॒वसा वि॑वासे। दि॒वः शर्धा॑य॒ शुच॑यो मनी॒षा गि॒रयो॒ नाप॑ उ॒ग्रा अ॑स्पृध्रन् ॥११॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वृ॒धन्त॑म् । मारु॑तम् । भ्राज॑त्ऽऋष्टिम् । रु॒द्रस्य॑ । सू॒नुम् । ह॒वसा॑ । आ । वि॒वा॒से॒ । दि॒वः । शर्धा॑य । शुच॑यः । म॒नी॒षा । गि॒रयः॑ । न । आपः॑ । उ॒ग्राः । अ॒स्पृ॒ध्र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वृधन्तं मारुतं भ्राजदृष्टिं रुद्रस्य सूनुं हवसा विवासे। दिवः शर्धाय शुचयो मनीषा गिरयो नाप उग्रा अस्पृध्रन् ॥११॥
स्वर रहित पद पाठतम्। वृधन्तम्। मारुतम्। भ्राजत्ऽऋष्टिम्। रुद्रस्य। सूनुम्। हवसा। आ। विवासे। दिवः। शर्धाय। शुचयः। मनीषा। गिरयः। न। आपः। उग्राः। अस्पृध्रन् ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 66; मन्त्र » 11
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कैः सह कीदृशो जनो राज्याऽधिकारी कर्त्तव्य इत्याह ॥
अन्वयः
ये शुचयो मनीषा उग्रा गिरय आपो न दिवः शर्धायास्पृध्रंस्तैस्सह वृधन्तं मारुतं भ्राजदृष्टिं रुद्रस्य तं सूनुं हवसाऽहमा विवासे ॥११॥
पदार्थः
(तम्) (वृधन्तम्) वर्धमानं वर्धयन्तं वा (मारुतम्) मरुतामिमम् (भ्राजदृष्टिम्) भ्राजद् ऋष्टिः सम्प्रेक्षणं यस्य तम् (रुद्रस्य) कृतचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्य्यस्य (सूनुम्) पुत्रम् (हवसा) आदानेन (आ) (विवासे) सेवे (दिवः) कमनीयस्य (शर्धाय) बलाय (शुचयः) पवित्राः (मनीषाः) मनस्विनः (गिरयः) मेघाः (न) इव (आपः) जलानि (उग्राः) तेजस्विनः (अस्पृध्रन्) स्पर्द्धन्ताम् ॥११॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या मेघवदुन्नताः प्रजापालका जलवत्पोषकाः पवित्राशयास्तेजस्विनः कमनीयस्य बलस्य वर्धकाः स्युस्तैस्सह यदि राजा राज्यशासनं कुर्यात्तर्हि कुत्रापि पराजयोऽपकीर्त्तिश्च न जायेतेति ॥११॥ अत्र मरुद्गुणवद्विद्वद्वीरपुरुषगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षट्षष्टितमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किनके साथ कैसा जन राज्य का अधिकारी करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (शुचयः) पवित्र (मनीषाः) मनस्वी अर्थात् उत्साही मनवाले (उग्राः) तेजस्वी (गिरयः) मेघ और (आपः) जलों के (न) समान (दिवः) मनोहर पदार्थ के (शर्धाय) बल के लिये (अस्पृध्रन्) स्पर्द्धा करें उनके साथ (वृधन्तम्) आप बढ़ते वा दूसरों को बढ़ाते हुए (मारुतम्) पवनों की विद्या जाननेवाले (भ्राजदृष्टिम्) प्रकाशमान दृष्टियुक्त (रुद्रस्य) किया है चवालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य जिसने उसके (तम्) उस (सुनूम्) पुत्र को (हवसा) लेने के व्यवहार से मैं (आ, विवासे) सेवता हूँ ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य मेघ के समान उन्नति करने, प्रजा के पालने, जल के समान पुष्टि करनेवाले, पवित्र आशययुक्त, तेजस्वी और मनोहर बल के बढ़ानेवाले हों, उनके साथ यदि राजा राज्यशिक्षा करे तो कहीं पराजय और अपकीर्ति न हो ॥११॥ इस सूक्त में पवनों के गुणों के समान विद्वानों और वीरों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छियासठवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
सेनानायक का आदर सत्कार ।
भावार्थ
मैं प्रजाजन ( वृधन्तं ) राष्ट्र को बढ़ाने वाले, ( रुद्रस्य सूनुम् ) दुष्टों को रुलाने वाले, सेनापति और उपदेष्टा आचार्य के पुत्रवत् प्रिय तथा उसके अभिषेक्ता, (तं ) उस ( मारुतं ) बलवान् मनुष्य गण को मैं ( हवसा ) अन्नादि से (आविवासे ) सत्कार करूं । वे ( दिवः ) तेजस्वी ( शुचयः ) शुद्ध, पवित्र, ईमानदार, ( मनीषाः ) मनस्वी, ( गिरयः न ) मेघों के समान और ( आपः न ) जल धाराओं के समान ( शर्धाय ) जल वर्षण और बल के लिये ( अस्पृधन् ) एक दूसरे से बढ़ने के लिये उद्योग करें । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
११ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। मरुतो देवताः ।। छन्दः – १,९ ,११ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत् पंक्तिः ।। ६, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
दिवः शुचय: मनीषा:
पदार्थ
[१] (तम्) = उस (वृधन्तम्) = वृद्धि को प्राप्त होते हुए, (भ्राजत् ऋष्टिम्) = देदीप्यमान आयुधोंवाले, (रुद्रस्य सूनुम्) = दुःखों का द्रावण करनेवाले के पुत्र, अर्थात् खूब प्रजा कष्टों का निवारण करनेवाले (मारुतम्) = सैनिक समूह को (हवसा विवासे) = स्तोत्रों के द्वारा परिचरित करता हूँ। अर्थात् इन सैनिकों का मैं स्तवन करता हूँ। [२] (दिवः) = प्रकाशमय जीवनवाले (शुचयः) = अधिकाधिक पवित्र, (मनीषा:) = [मनस: ईष्टे] मन के शासक ये सैनिक (शर्धाय) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाले होते हैं। ये सैनिक (गिरयः न) = पर्वतों के समान होते हैं, पर्वत जैसे शत्रु को आने से रोकनेवाले होते हैं, इसी प्रकार ये सैनिक राष्ट्र में शत्रुओं को प्रविष्ट नहीं होने देते। ये सैनिक (उग्राः आपः) [न] = बड़े उग्र जलों के समान हैं। तेज जलधाराएँ भी शत्रु को रोकती हैं। इसी प्रकार ये सैनिक शत्रु को रोकनेवाले होते हैं। ये सैनिक (अस्पृध्रन्) = परस्पर स्पर्धावाले होते हैं। देश रक्षा में एक दूसरे से बढ़कर भाग लेनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम सैनिक देश रक्षा के लिये परस्पर स्पर्धावाले होते हैं। ये पर्वतों व तीव्र जलधाराओं के समान शत्रु को रोकनेवाले होते हैं। ये सैनिक ज्ञानी, पवित्र व नियन्त्रित मनवाले होते हैं । अगले सूक्त का विषय 'मित्रावरुण' हैं। 'मित्र' स्नेह की देवता है, 'वरुण' निर्दोषता की । भरद्वाज बार्हस्पत्य कहता है -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे मेघाची वृद्धी करणारी, प्रजापालन करणारी, जलाप्रमाणे पुष्ट करणारी, पवित्र आशययुक्त, तेजस्वी, सुंदर, बल वाढविणारी असतात त्यांच्याबरोबर जर राजाने राज्य शिक्षण घेतले तर कुठेही पराजय, अपकीर्ती होणार नाही. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With homage and reverence I adore and serve that rising and exalting hero of the winds and the blazing lance of action who is a very child of Rudra awful divine power of force and justice, whom, for the sake of celestial power, the pure, immaculate heroes of fire and conscientious intelligence envy and emulate.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What kind of man should be appointed an officer and with whom is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I serve with acceptance that son of a man, who has observed Brahmacharya (abstinence ) up to the age of forty four years, who has splendor in his eyes, who is advanced in knowledge and power and who increases the strength of others, who are pure, wise, controllers of mind, fierce for the wicked, benevolent and exalted like the clouds and nourisher like the waters, who combat with the wicked foes for the strength of a desirable good person.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used in the mantra. If a king governs with the help of those persons, who are exalted and like the cloud and cherishers of the people, who are nourishers and pure hearted like the water, splendid and increasers af the desirable strength, then there may not be defeat or ignominy (ill-reputation) for him anywhere.
Foot Notes
(भ्राजदृष्टिम् ) भ्राजद् ऋष्टिः सम्प्रोक्षणं यस्य तम् । भ्राजु-दीप्तौ। (भ्वा.) । = whose sight is full of splendor (विवासे) सेवे । विवासति परिचरणाकर्मा (NG 3, 5 )। = Serve. (स्वस्य) कृतचतुश्चत्वारिशद्वषु ब्रह्मचर्य्यस्य। चतुश्चत्वारिशद्रुद्रा देवाः (J. U. B. 1, 35)। = of a man who has observed abstinence (Brahmacharya) up to 44 years.
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