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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 66/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - मरुतः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒क्षू न येषु॑ दो॒हसे॑ चिद॒या आ नाम॑ धृ॒ष्णु मारु॑तं॒ दधा॑नाः। न ये स्तौ॒ना अ॒यासो॑ म॒ह्ना नू चि॑त्सु॒दानु॒रव॑ यासदु॒ग्रान् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒क्षु । न । येषु॑ । दो॒हसे॑ । चि॒त् । अ॒याः । आ । नाम॑ । घृ॒ष्णु । मारु॑तम् । दधा॑नाः । न । ये । स्तौ॒नाः । अ॒यासः॑ । म॒ह्ना । नु । चि॒त् । सु॒ऽदानुः॑ । अव॑ । या॒स॒त् । उ॒ग्रान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मक्षू न येषु दोहसे चिदया आ नाम धृष्णु मारुतं दधानाः। न ये स्तौना अयासो मह्ना नू चित्सुदानुरव यासदुग्रान् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मक्षु। न। येषु। दोहसे। चित्। अयाः। आ। नाम। घृष्णु। मारुतम्। दधानाः। न। ये। स्तौनाः। अयासः। मह्ना। नु। चित्। सुऽदानुः। अव। यासत्। उग्रान् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 66; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    इह कतिविधाः पुरुषा भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    येषु चिद्दोहसे शक्तिर्नास्ति येऽया धृष्णु मारुतं नामाऽऽदधानाः सन्ति येऽयासः स्तौना न सन्ति यस्सुदानुस्तानुग्रान् मक्षू नाऽवयासत्तांश्चिन्मह्ना नू सत्कुर्यात् तान् यथावत्सर्वे विजानन्तु ॥५॥

    पदार्थः

    (मक्षू) क्षिप्रम्। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (न) निषेधे (येषु) मनुष्येषु (दोहसे) कामान् दोग्धुं प्रपूरयितुम् (चित्) अपि (अयाः) प्राप्नुवतः (आ) (नाम) (धृष्णु) दृढं प्रगल्भम् (मारुतम्) मनुष्याणामिदम् (दधानाः) (न) (ये) (स्तौनाः) चौराः। अत्र वर्णव्यत्ययेनैकारस्थान औकारः। (अयासः) गच्छन्तः (मह्ना) महत्त्वेन (नू) सद्यः। अत्रापि ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) (सुदानुः) उत्तमदानः (अव) (यासत्) प्रापयेत् (उग्रान्) कठिनस्वभावान् ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! अत्र द्विविधा मनुष्या एके शक्तिविद्याहीना दुष्टकर्मकारिणोऽपरे शक्तिमन्तः श्रेष्ठकर्मधारिणः सन्ति तत्र ये दुष्कृतान् न सत्कुर्वन्ति श्रेष्ठाँश्चार्चन्ति ते सद्यो महदिष्टं सुखं लभन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    यहाँ कितने प्रकार के पुरुष होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (येषु) जिन मनुष्यों में (चित्) निश्चय से (दोहसे) कामों के पूरे करने की शक्ति नहीं है वा जो (अयाः) प्राप्त होते हुए (धृष्णु) दृढ़ प्रगल्भ (मारुतम्) मनुष्यों के इस (नाम) प्रसिद्ध व्यवहार को (आ, दधानाः) धारण करते हुए हैं वा (ये) जो (अयासः) चलते हुए (स्तौनाः) चोर (न) नहीं और जो (सुदानुः) उत्तम दान देनेवाला (उग्रान्) कठिन स्वभाववालों को (मक्षू) शीघ्र (न)(अव, यासत्) प्राप्त करे उनका (चित्) शीघ्र (मह्ना) महत्त्व से (नू) शीघ्र सत्कार करे, उनको यथावत् सब जानें ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! इस जगत् में दो प्रकार के मनुष्य हैं-एक शक्ति और विद्या से हीन, दुष्ट कर्म करनेवाले हैं, दूसरे शक्तिमान्, श्रेष्ठ कर्म धारण करनेवाले हैं, उनमें जो दुष्कर्म करनेवालों का सत्कार नहीं करते और श्रेष्ठों का सत्कार करते हैं, वे शीघ्र महान् चाहे हुए सुख को पाते हैं ॥५॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( येषु ) जिन मनुष्यों में राजा ( मक्षु ) शीघ्र ही ( दोहसे न ) ऐश्वर्य प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता और जो ( अयाः ) मनुष्य ( धृष्णु ) शत्रु को पराजित करने वाले ( मारुतं ) वायुवत् अनन्त बल वा मनुष्यों का सामूहिक बल को (दधानाः) धारण करते हैं । और (ये) जो ( अयासः ) प्रजाजन (स्तौनाः न ) चोर भी नहीं हैं उन ( उग्रान् ) बलवान् पुरुषों को ( चित् ) भी ( सुदानुः ) उत्तम दानशील पुरुष ( मह्ना ) अपने महान् सामर्थ्य से ( नु ) शीघ्र ही ( अव यासत् ) अपने अधीन रखकर एकत्र, संहत करे । इति सप्तमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। मरुतो देवताः ।। छन्दः – १,९ ,११ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत् पंक्तिः ।। ६, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    मारुतं धृष्णु नाम

    पदार्थ

    [१] (न) = [संप्रत्यर्थे] अब (येषु) = जिन मरुतों के होने पर, जिन मरुतों की साधना के प्रवृत्त होने पर, (अया) = इन प्राणों की गति के द्वारा (चित्) =निश्चय से (मक्षु) = शीघ्र ही ये साधक (दोहसे) = अच्छाइयों के पूरण के लिये होते हैं। और (आ) - सब प्रकार से (नाम) = शत्रुओं को झुका देनेवाले (धृष्णु) = सब मलिनताओं के धर्षक इस (मारुतम्) = प्राणसम्बन्धी बल को (दधानाः) = धारण करते हैं। [२] ये प्राण वे हैं (ये) = जो (न स्तौनाः) = शक्तियों को चुरानेवाले नहीं, अपितु शक्तियों के बढ़ानेवाले ही हैं। (अयासः) = निरन्तर गतिशील हैं। (नू चित्) = निश्चय से इन प्राणों की (महा) = महिमा से (सुदानुः) = अच्छी प्रकार बुराइयों को काटनेवाला व्यक्ति (उग्रान्) = इन उग्र [=प्रबल] काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं को (अवयासत्) = अपने से पृथक् करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से शत्रुधर्षक बल प्राप्त होता है। इनकी महिमा से हम क्राम-क्रोध लोभ रूप प्रबल शत्रुओं को अपने से दूर कर पाते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! या जगात दोन प्रकारची माणसे आहेत. एक शक्ती व विद्येने हीन, दुष्ट कर्म करणारे, दुसरे शक्तिमान, श्रेष्ठ कर्म करणारे असतात. त्यात जी दुष्ट कर्म करणाऱ्यांचा सत्कार करीत नाहीत, तर श्रेष्ठांचा सत्कार करतात. ती ताबडतोब इच्छित सुख प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    There is none among them but instantly moves forward with showers of generosity. Bold and vibrant, they bear the name of children of the winds. They move not like thieves and sluggards by virtue of their might and grandeur, and only the generous man of holiness can approach and pacify these blazing heroes.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Of how many kinds are men -is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    There are some persons who have no power to fulfil their desires, there are others who getting some power uphold the firm name of man. They go from place to place and are active, but are not thieves or dishonest. If a man who is a good donor cannot get those men of fierce nature, he should honor good and honest men. You should know these different kinds of men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! there are principally two kinds of persons. There are some who are devoid of power and knowledge but engaged in doing wicked deeds, but there are others who are powerful and doers of good deeds. Those who do not honor the evil doers and respect the best men, enjoy very desirable happiness soon.

    Foot Notes

    (स्तौना:) चौराः । अत्र वर्णव्यत्ययेनंकारस्थान औकारः । = Thieves or dishonest. (मक्षू) क्षिप्रम् । अत्र ऋचिनुघेति दीर्घः । मक्षु इति क्षिप्रम्। (NG 2, 15) = Quickly, soon.

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