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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 66/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र चि॒त्रम॒र्कं गृ॑ण॒ते तु॒राय॒ मारु॑ताय॒ स्वत॑वसे भरध्वम्। ये सहां॑सि॒ सह॑सा॒ सह॑न्ते॒ रेज॑ते अग्ने पृथि॒वी म॒खेभ्यः॑ ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । चि॒त्रम् । अ॒र्कम् । गृ॒ण॒ते । तु॒राय॑ । मारु॑ताय । स्वऽत॑वसे । भ॒र॒ध्व॒म् । ये । सहां॑सि । सह॑सा । सह॑न्ते । रेज॑ते । अ॒ग्ने॒ । पृ॒थि॒वी । म॒खेभ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र चित्रमर्कं गृणते तुराय मारुताय स्वतवसे भरध्वम्। ये सहांसि सहसा सहन्ते रेजते अग्ने पृथिवी मखेभ्यः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। चित्रम्। अर्कम्। गृणते। तुराय। मारुताय। स्वऽतवसे। भरध्वम्। ये। सहांसि। सहसा। सहन्ते। रेजते। अग्ने। पृथिवी। मखेभ्यः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 66; मन्त्र » 9
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कस्मै किं धृत्वा किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! ये सहसा सहांसि सहन्ते तेभ्यो यूयं चित्रमर्कं प्र भरध्वम्। हे अग्ने विद्वन् ! यथा मखेभ्यः पृथिवी रेजते तथा स्वतवसे तुराय मारुताय गृणते विदुषे चित्रमर्कं भर ॥९॥

    पदार्थः

    (प्र) (चित्रम्) अद्भुतम् (अर्कम्) अन्नं वज्रं वा। अर्क इत्यन्ननाम। (निघं०२.७) वज्र नाम च। (निघं०२.२०) (गृणते) स्तुवते (तुराय) क्षिप्रकारिणे (मारुताय) मनुष्याणामस्मै (स्वतवसे) स्वं स्वकीयं तवो बलं यस्य तस्मै (भरध्वम्) (ये) (सहांसि) बलानि (सहसा) बलेनोत्साहेन वा (सहन्ते) (रेजते) कम्पते (अग्ने) विद्वन् (पृथिवी) भूमिः (मखेभ्यः) सङ्ग्रामादिभ्यः सङ्गन्तव्येभ्यः। मख इति यज्ञनाम। (निघं०३.१७) ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा चलन्ती भूमिर्यज्ञसामग्रीं जनयति तथैव महद्भ्यः शूरवीरेभ्यो विद्वद्भ्योऽन्नादिकं शस्त्रास्त्रसमूहं च तद्विद्यां च सततमुन्नयतैवं सत्यसह्यानपि शत्रून् सोढुं पराजेतुं वा सामर्थ्यं जायत इति वित्त ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किसके लिये क्या धारण करके क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! (ये) जो (सहसा) बल वा उत्साह से (सहांसि) बलों को (सहन्ते) सहते हैं उनके लिये तुम (चित्रम्) अद्भुत (अर्कम्) अन्न वा वज्र को (प्र, भरध्वम्) अच्छे प्रकार धारण करो, हे (अग्ने) विद्वन् ! जैसे (मखेभ्यः) सङ्ग्राम आदि जो सङ्ग करने करने योग्य हैं उनके लिये (पृथिवी) भूमि (रेजते) कम्पित होती है तथा (स्वतवसे) अपने बल से युक्त (तुराय) शीघ्रता करने और (मारुताय) मनुष्यों के सहयोगी (गृणते) स्तुति करनेवाले विद्वान् के लिये अद्भुत अन्न वा वज्र को धारण करो ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे चलती हुई भूमि यज्ञसामग्री को उत्पन्न करती है, वैसे ही बड़े-बड़े शूरवीर विद्वानों के लिये अन्नादि पदार्थ और अस्त्र-शस्त्र समूह तथा उनकी विद्या की निरन्तर उन्नति करो, ऐसा होने से योग्य शत्रुओं को सहने और पराजय करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है, यह जानो ॥९॥

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    विषय

    वीरों विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग ( गृणते ) उपदेश देने वाले और ( तुराय) शत्रु का नाश करने और (स्वतवसे) अपने धन को बल के तुल्य धारण करने वाले विद्वान्, क्षत्रिय और वैश्य तीनों प्रकार के ( मारुताय ) मनुष्य वर्ग के लिये ( चित्रम् अर्कम् ) उचित, अद्भुत, नाना प्रकार का, सञ्चययोग्य ज्ञान, अर्चना करने योग्य आदर सत्कार, शस्त्रादि बल, तथा नाना अन्न ( प्र भरध्वम्) अच्छी प्रकार धारण करो। हे (अग्ने ) अग्रणी नायक ! हे विद्वन् ! जिन के ( मखेभ्यः ) संग्रामों और यज्ञों के भयसे ( पृथिवी ) समस्त संसार (रेजते ) कांपता है और ( ये ) जो ( सहसा ) बल और उत्साह से ( सहांसि ) नाना शत्रु सैन्यों को भी ( सहन्ते ) पराजित करते हैं। उनके लिये भी (चित्रम् अर्कं प्र भरध्वम् ) नाना संचय योग्य अन्न प्रदान करो । अर्थात् शत्रु विजय करने में सहायक सेनाओं का भोजन भी राज्य दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। मरुतो देवताः ।। छन्दः – १,९ ,११ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत् पंक्तिः ।। ६, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    यज्ञशीलता

    पदार्थ

    [१] हे मनुष्यो! आप (गृणते) = ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाले ब्राह्मण के लिये, (तुराय) = शत्रु-संहार करनेवाले क्षत्रिय के लिये तथा (स्व-तवसे) = आत्म पुरुषार्थ से उपार्जित धन [स्व] के बल बली वैश्य के लिये, अर्थात् इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बन सकने के लिये (मारुताय) = प्राणों के समूह के लिये (चित्रं अर्कम्) = अद्भुत स्तुति को (प्रभरध्वम्) = प्रकर्षेण धारण करो। प्रभु स्तवन पूर्वक प्राणसाधना से ही हम उत्तम ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बन पाते हैं । [२] उन प्राणों का स्तवन करो (ये) = जो (सहसा) = बल से (सहांसि सहन्ते) = शत्रु बलों का पराभव करते हैं । हे (अग्ने) = प्रगतिशील पुरुष ! यह ध्यान रखना कि (पृथिवी) = यह पृथिवी, इस प्राणसाधना के होने पर (मखेभ्यः) = यज्ञों से (रेजते) = चमक उठती है। वासनाओं के विनाश से जीवन यज्ञमय बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना हमें ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य बनाती है। यह साधना हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हमें यज्ञशील बनाती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी गतिमान भूमी यज्ञ सामग्री उत्पन्न करते तसे शूरवीरांसाठी अन्न इत्यादी पदार्थ व अस्त्र-शस्त्र समूह व त्यांची विद्या सतत वाढवा. त्यामुळे शत्रूंना सहन करण्याचे व पराजित करण्याचे सामर्थ्य उत्पन्न होते हे जाणा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O men of learning, bear and offer unique and wonderful songs and presentations of reverence for the adorable, vibrant, prompt and forceful band of heroes of their own essential power and excellence, those who meet the challenges of life and confrontations by their own strength and courage. O brilliant sage, Agni, the earth itself vibrates and shines by the holy and mighty exploits of the Maruts, heroes of the winds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do, upholding for whom-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons ! to those who forbear or overcome strength with their greater force and zeal, give wonderful food or thunderbolt like powerful weapons. O leading scholar! as the earth trembles by the battles, so give good food or strong weapons to a mighty man who is prompt in doing action and who is admirer of good virtues or a devotee of God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! as this moving earth produces material for the Yajna (that are put in the fire as oblation) in the same manner, for great heroes give nourishing food, the band of powerful arms and missiles and thus cause their knowledge of the science of warfare to grow more and more. In this way, a power is born to defeat even the most unbearable or irresistible enemies.

    Foot Notes

    (स्वतवसे) स्वं स्वकीयं तवो बलं यस्य तस्मै । तव इति बलनाम (NG 2,9)। = Form a mighty self-reliant man. (अर्कम् ) अन्नं वज्र वा । अर्क इत्यन्ननाम (NG 2,7) वज्रनाम च (NG 2,20)। = good food or strong weapons. (मखेभ्य:) सङ्ग्रामादिभ्यः सङ्गन्तव्येभ्यः । मखः इति यज्ञनाम (NG 3, 17 ) । = Battles.

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