ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 66/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ये अ॒ग्नयो॒ न शोशु॑चन्निधा॒ना द्विर्यत्त्रिर्म॒रुतो॑ वावृ॒धन्त॑। अ॒रे॒णवो॑ हिर॒ण्यया॑स एषां सा॒कं नृ॒म्णैः पौंस्ये॑भिश्च भूवन् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒ग्नयः॑ । न । शोशु॑चन् । इ॒धा॒नाः । द्विः । यत् । त्रिः । म॒रुतः॑ । व॒वृ॒धन्त॑ । अ॒रे॒णवः॑ । हि॒र॒ण्यया॑सः । ए॒षा॒म् । सा॒कम् । नृ॒म्णैः । पौंस्ये॑भिः । च॒ । भू॒व॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अग्नयो न शोशुचन्निधाना द्विर्यत्त्रिर्मरुतो वावृधन्त। अरेणवो हिरण्ययास एषां साकं नृम्णैः पौंस्येभिश्च भूवन् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठये। अग्नयः। न। शोशुचन्। इधानाः। द्विः। यत्। त्रिः। मरुतः। ववृधन्त। अरेणवः। हिरण्ययासः। एषाम्। साकम्। नृम्णैः। पौंस्येभिः। च। भूवन् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 66; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये यतमाना हिरण्ययासोऽरेणवो मरुत इव नृम्णैः पौंस्येभिः साकं भूवन्नेषां सम्बन्धे यद्ये द्विस्त्रिर्वा वावृधन्त चेधाना अग्नयो न शोशुचंस्ते भाग्यशालिनो भूवन् ॥२॥
पदार्थः
(ये) (अग्नयः) पावकाः (न) इव (शोशुचन्) शोधयन्ति (इधानाः) प्रकाशमानाः (द्विः) द्विवारम् (यत्) (त्रिः) त्रिवारम् (मरुतः) वायव इव (वावृधन्त) वर्धन्ते। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम्। (अरेणवः) रेणुरहिताः (हिरण्ययासः) हिरण्येन विद्युत्तेजसा प्रचुराः (एषाम्) (साकम्) सह (नृम्णैः) धनैः (पौंस्येभिः) बलैः (च) (भूवन्) भवेयुः ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये पावकवत्पवित्राः पवित्रकरा वर्धमाना वर्धयितारो वायुवद्बलिष्ठाश्चक्रवर्त्तिनृपवच्छ्रिया सह वर्त्तमाना विद्वांसस्स्युस्तानेव यूयं भजत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (ये) जो यत्न करते हुए (हिरण्ययासः) बिजुली के तेज से बढ़े हुए (अरेणवः) धूलि जिनमें नहीं वे (मरुतः) पवनों के समान (नृम्णैः) धनों और (पौंस्येभिः) पुरुषार्थ बलों के (साकम्) साथ (भूवन्) हों (एषाम्) इनके सम्बन्ध में (यत्) जो (द्विः) दोवार वा (त्रिः) तीनवार (वावृधन्त) निरन्तर बढ़ते हैं (च) और (इधानाः) प्रकाशमान (अग्नयः) अग्नियों के (न) समान (शोशुचन्) निरन्तर शुद्ध करते, वे भाग्यशाली होते हैं ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अग्नि के समान पवित्र हुए पवित्र करनेवाले, वृद्धि को प्राप्त हुए, बढ़ानेवाले, पवन के समान बलिष्ठ और चक्रवर्त्ती राजा के समान लक्ष्मी के साथ वर्त्तमान विद्वान् हों, उन्हीं को तुम सेवो ॥२॥
विषय
विद्वानों मरुतों के कर्त्तव्य
भावार्थ
( मरुतः ) वायु के समान बलवान् पुरुष ( इधानाः अग्नयः न ) प्रदीप्त होते हुए अग्नियों को समान ( शोशुचन् ) अपने को प्रज्ज्वलित, तथा शुद्ध आचारवान् बनावें । वे ( द्विः त्रिः ववृधन्त ) दुगना तिगुना वृद्धि को प्राप्त हों। (एषां ) इन लोगों के सम्बन्धी जन भी ( अरेणवः ) अहिंसक, निर्दोष और ( हिरण्ययासः ) स्वर्ण आदि से ऐश्वर्यवान् और (नृम्णैः) धनों और (पौंस्यैः च साकं ) बलों से सम्पन्न ( भूवन् ) हो जांय ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
११ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। मरुतो देवताः ।। छन्दः – १,९ ,११ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत् पंक्तिः ।। ६, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
नृम्ण-पौंस्य
पदार्थ
(ये) = जो भी साधक (यत्) = जब (द्विः) = दो बार (प्रातः सायं), अथवा (त्रिः) = तीन बार (न्यूनातिन्यून तीन वार) (मरुतः) = प्राणों का (वावृधन्त) = वर्धन करते हैं, अर्थात् प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं तो (इधाना:) = दीप्त की जाती हुई (अग्नयः न) = अग्नियों के समान (शोशुचन्) = दीप्त हो उठते हैं, चमक उठते हैं। [२] (एषाम्) = इन साधकों के ये शरीर-रथ (अरेणव:) = रेणु व धूलि से रहित होते हैं, अर्थात् इनमें रोगों व वासनाओं की मलिनता नहीं होती। (हिरण्ययासः) = ये रथ ज्ञान-ज्योति से स्वर्ण के समान चमकते हैं [हिरण्यं वै ज्योतिः]। ये साधक सदा (नृम्णैः) = धनों (च) = और (पौंस्येभिः) = बलों के (साकम्) = साथ (भूवन्) = होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना करनेवाला अग्नि के समान तेजस्वी प्रतीत होता है। इनकी मलिनताएँ दूर होती हैं और ये ज्ञान ज्योति से चमक उठते हैं। ये धन व बल से सम्पन्न होते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे अग्नीप्रमाणे पवित्र व पवित्र करणारे, वृद्धी पावलेले व वृद्धी करविणारे, वायूप्रमाणे बलवान व चक्रवर्ती राजाप्रमाणे धनवान, विद्वान असतील तर त्यांची तुम्ही सेवा करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
They, the Maruts, vital pranic energies, pure and shining like fires, grow double and triple. Non-particle and golden are their forms and conductors carrying simultaneously both bio-energy and intelligence for life on earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the scholars be-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! fortunate are those men, who being industrious; are endowed with wealth, and strength and are mighty like the winds shining with the splendor of lightning. Those I who grow twice or thrice in their contact, shine like the kindled fires.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the mantra. You should serve those enlightened men only, who are pure and purifiers like the fire, growing and making others grow, mighty like the winds and endowed with grace and wealth like the savings.
Foot Notes
(नुम्णौः) धनैः । नृम्णम् इति धननाम (NG 2, 10) With wealth of all kinds. (पोस्येभिः) बलैः । पौंस्यानि इति बलनाम । (NG 2. 9) With strength of various kinds. (हिरण्मयासः) हिरण्येन विद्युतेजसा प्रचुराः । तेजो वै हिरण्यम् (T. U. 1, 8, 9, 1) = Endowed with the splendor of lightning, (शोशुचन्) शोधयन्ति । (ई) शुचिर् - पूतीभावे (दिवा.)= Purify.
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