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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 66/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न य ईष॑न्ते ज॒नुषोऽया॒ न्व१॒॑न्तः सन्तो॑ऽव॒द्यानि॑ पुना॒नाः। निर्यद्दु॒ह्रे शुच॒योऽनु॒ जोष॒मनु॑ श्रि॒या तन्व॑मु॒क्षमा॑णाः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ये । ईष॑न्ते । ज॒नुषः॑ । अया॑ । नु । अ॒न्तरिति॑ । सन्तः॑ । अ॒व॒द्यानि॑ । पु॒ना॒नाः । निः । यत् । दु॒ह्रे । शुच॑यः । अनु॑ । जोष॑म् । अनु॑ । शृइ॒या । त॒न्व॑म् । उ॒क्षमा॑णाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न य ईषन्ते जनुषोऽया न्व१न्तः सन्तोऽवद्यानि पुनानाः। निर्यद्दुह्रे शुचयोऽनु जोषमनु श्रिया तन्वमुक्षमाणाः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। ये। ईषन्ते। जनुषः। अया। नु। अन्तरिति। सन्तः। अवद्यानि। पुनानाः। निः। यत्। दुह्रे। शुचयः। अनु। जोषम्। अनु। श्रिया। तन्वम्। उक्षमाणाः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 66; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    के श्रेष्ठा जायन्त इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! ये जनुषो नेषन्तेऽया नीत्याऽन्तः सन्तोऽवद्यानि नु विहाय पुनाना भवन्ति यद्ये शुचयोऽनु जोषं श्रिया तन्वमुक्षमाणा अनु निर्दुह्रे ते धन्या भवन्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (ये) (ईषन्ते) हिंसन्ति (जनुषः) जन्मानि (अया) अनया (नु) (अन्तः) मध्ये (सन्तः) सत्पुरुषाः (अवद्यानि) निन्द्यानि कर्माणि (पुनानाः) पवित्रयन्तः (निः) निरन्तरम् (यत्) ये (दुह्रे) दुहन्ति (शुचयः) पवित्राः (अनु) (जोषम्) सेवनम् (अनु) (श्रिया) लक्ष्म्या (तन्वम्) शरीरम् (उक्षमाणाः) सेवमानाः ॥४॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या ब्रह्मचर्यादीनि व्रतानि विहाय मूढा भूत्वा सद्यो विवाहं कृत्वा नपुंसकवद्भूत्वा निर्बला रोगिणो लम्पटा नृशंसा दुर्व्यसनिनो भवन्ति ते शततमाद्वर्षात् पूर्वमेव शरीरं विनाश्य मनुष्यशरीरफलमप्राप्य दुर्भाग्यवशान्निष्फला जायन्ते ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कौन श्रेष्ठ होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ये) जो (जनुषः) जन्मों को (न) नहीं (ईषन्ते) नष्ट करते किन्तु (अया) इस नीति से (अन्तः) बीच में (सन्तः) सत्पुरुष हुए (अवद्यानि) निन्द्यकर्मों को (नु) शीघ्र छोड़ के (पुनानाः) शरीर को पवित्र करते हुए होते हैं और (यत्) जो (शुचयः) पवित्र जन (अनु, जोषम्) सेवा के अनुकूल (श्रिया) लक्ष्मी से (तन्वम्) शरीर को (उक्षमाणाः) सेवन करते हुए (अनु, निर्, दुह्रे) अनुक्रम से जन्म पूरा करते हैं, वे धन्य होते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ब्रह्मचर्यादि व्रतों को छोड़ मूढ़ होकर, शीघ्र विवाह कर, नपुंसक के अर्थात् हीजड़ा के समान होकर, निर्बल, रोगी, और लम्पट, मनुष्यों के बीच जिसकी कहावत हो रही हो तथा दुष्टव्यसन जिसको होता है, ऐसे पुरुष सौ वर्ष से पहिले ही शरीर को नष्ट-भ्रष्ट कर मनुष्य शरीर के फल को न पाकर दुर्भाग्यवश से निष्फल होते हैं ॥४॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( ये ) जो विद्वान् सज्जन ( जनुषः ) जन्म लेने वाले, जन्तुओं की ( न ईषन्ते ) हिंसा नहीं करते, ऐसे ( सन्तः ) सत् जन (अन्तः) अपने अन्तःकरण के भीतर बैठे (अवद्यानि) निन्द्य विचारों को (पुनाना:) दूर करके पवित्र होते हुए, और अन्यों को भी पवित्र करते हुए (शुचयः) शुद्ध पवित्र होकर (जोषम् ) प्रेम-रस का ( अनु निर्दुह्रे ) सबके अनुकूल रूप से भरपूर प्रदान करते हैं जिस प्रकार ( श्रिया ) विद्युत्-कान्ति से युक्त होकर वायु गण ( तन्वं ) विस्तृत भूमि सेचन करते हैं उसी प्रकार वे ( अनु ) बाद में ( श्रिया ) शोभा से अपने (तन्वम् ) शरीर, यशः- शरीर को ( उक्षमाणाः ) सेचन करते, बढ़ाते हैं । ( तन्वम् उक्षमाणाः ) देह कान्ति के लिये देह को जैसे सेचते, स्नान करते हैं, ऐसे ही वे ( श्रिया ) शोभा, सौभाग्य वा ऐश्वर्यों से (तन्वम् ) अपने सन्तति का भी सेचन, उत्पादन और वृद्धि करते हैं ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। मरुतो देवताः ।। छन्दः – १,९ ,११ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत् पंक्तिः ।। ६, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    शोधन व श्री सम्पन्नता

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो मरुत् [=प्राण] (अया) = अपने गमन के द्वारा (जनुषः) = प्राणसाधक लोगों को (न ईषन्ते) = [ईष् to kill] हिंसित नहीं होने देते। (नु) = निश्चय से (अन्तः सन्तः) = अन्दर होते हुए (अवद्यानि पुनाना:) = पापों को, अशुभों को दूर करते हैं, पापवृत्तियों को दूर करके इनके जीवनों को पवित्र करते हैं। [२] (शुचयः) = ये पवित्र प्राण (यत्) = जब (जोषं) = अनुप्रीतिपूर्वक सेवन के अनुपात में, अर्थात् जितनी-जितनी इनकी साधना करते हैं, उतना उतना (निर्दुहे) = बुराइयों का निर्दोहन करते हैं और (तन्वम्) = इस शरीर को (श्रिया) = श्री से, शोभा से (अनु उक्षमाणाः) = अनुकूलता से सिक्त करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ—प्राणसाधना शरीर को पवित्र कर डालती है। सब बुराइयों का निर्दोहन करते हुए ये प्राण शरीर को श्री सम्पन्न बनाते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे ब्रह्मचर्य व्रताचा त्याग करून मूढ बनतात व लवकर विवाह करतात ती नपुंसकाप्रमाणे निर्बल, रोगी, लंपट, नृशंस, दुर्व्यसनी होतात. त्यांचे शरीर शंभर वर्षांपूर्वीच नष्ट भ्रष्ट होते व मनुष्य शरीराचे फळ प्राप्त न होता दुर्भाग्याने निष्फळ ठरतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Maruts neither hurt nor forsake their nativity, nor do they neglect any creature by their ethics and policy, but being noble, pure and shining in the midst of life, purging away weaknesses and perfecting virtues, vitalising and refining their body and personality with beauty, virility and splendour according to their love and ambition, they absorb the essences of nature, distil the soma and give showers of joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who become the best - is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! blessed are those persons who do not destroy or waste their lives, who being good men following a good policy giving up all reprehensible acts, purify all, who being perfectly pure righteously earning wealth and strengthening their bodies accomplish the goal of their lives in proper order.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men, who transgressing the vows of Brahmacharya (abstinence) etc. like foolish fellows marry at an early age, become weak like impotent persons, diseased, lascivious (lustful) cruel and engrossed in vices, destroy their body before the hundredth year and without gaining the fruit of human life, unfortunately became fruitless.

    Foot Notes

    (ईषन्ते) हिन्सन्ति । ईष-गतिहिन्सा दर्शनेषु (भ्वा०) अत्र हिंसार्थ: == Destroy, waste. (अवद्यानि) निन्द्यानि कर्माणि । अवद्यावमाधमावरेफाः कुत्सिते । ( U. K. 5, 54 ) = Reprehensible or evil acts. (उक्षमाणाः) सेवमानाः । उक्ष- सेचने (भ्वा०) । अत्र सेवनार्थे । जल सेचनमिव कर्मणां सेवनं सेवनमेव = Serving.

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