ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इ॒यं मद्वां॒ प्र स्तृ॑णीते मनी॒षोप॑ प्रि॒या नम॑सा ब॒र्हिरच्छ॑। य॒न्तं नो॑ मित्रावरुणा॒वधृ॑ष्टं छ॒र्दिर्यद्वां॑ वरू॒थ्यं॑ सुदानू ॥२॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । मत् । वा॒म् । प्र । स्तृ॒णी॒ते॒ । म॒नी॒षा । उप॑ । प्रि॒या । नम॑सा । ब॒र्हिः । अच्छ॑ । य॒न्तम् । नः॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । अधृ॑ष्टम् । छ॒र्दिः । यत् । वा॒म् । व॒रू॒थ्य॑म् । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं मद्वां प्र स्तृणीते मनीषोप प्रिया नमसा बर्हिरच्छ। यन्तं नो मित्रावरुणावधृष्टं छर्दिर्यद्वां वरूथ्यं सुदानू ॥२॥
स्वर रहित पद पाठइयम्। मत्। वाम्। प्र। स्तृणीते। मनीषा। उप। प्रिया। नमसा। बर्हिः। अच्छ। यन्तम्। नः। मित्रावरुणौ। अधृष्टम्। छर्दिः। यत्। वाम्। वरूथ्यम्। सुदानू इति सुऽदानू ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सुदानू प्रिया मित्रावरुणौ ! वां नमसेयं मनीषा मत्प्र स्तृणीते यद्वां वरूथ्यं बर्हिरच्छ यन्तं नोऽधृष्टं छर्दिरुप स्तृणीते सा सर्वैः सङ्ग्राह्या ॥२॥
पदार्थः
(इयम्) (मत्) मम सकाशात् (वाम्) युवयोः (प्र) (स्तृणीते) आच्छादयति प्राप्नोति वा (मनीषा) विद्यासुशिक्षायुक्ता प्रज्ञा (उप) (प्रिया) प्रियौ कमनीयौ (नमसा) सत्कारेणान्नाद्येन सह वा (बर्हिः) अतीव विशालम् (अच्छ) सम्यक् (यन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (नः) अस्माकम् (मित्रावरुणौ) अध्यापकोपदेशकौ (अधृष्टम्) शत्रुभिरधर्षितम् (छर्दिः) गृहम् (यत्) (वाम्) युवयोः (वरूथ्यम्) वरूथे गृहे भवम् (सुदानू) शोभनानि दानानि ययोस्तौ ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ययोः सङ्गेनास्मानुत्तमे प्रज्ञागृहे प्राप्नुतस्तौ सदैव यूयं मन्यध्वम् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुदानू) सुन्दर दान देनेवालो ! (प्रिया) मनोहर (मित्रावरुणौ) अध्यापक और उपदेशको ! (वाम्) तुम दोनों की (नमसा) सत्कार वा अन्नादिकों के साथ (इयम्) यह (मनीषा) विद्या और उत्तम शिक्षा युक्त बुद्धि (मत्) मुझ से (प्र, स्तृणीते) अच्छे प्रकार सर्व विषयों को आच्छादित करती है तथा (यत्) जो (वाम्) तुम दोनों के (वरूथ्यम्) घर के बीच उत्पन्न हुए (बर्हिः) अतीव विशाल तथा (अच्छ) अच्छे प्रकार (यन्तम्) प्राप्त होते हुए और (नः) हमारे (अधृष्टम्) शत्रुओं की न धृष्टता को प्राप्त हुए (छर्दिः) घर को (उप) समीप से ढाँपती है, वह सब को अच्छे प्रकार ग्रहण करने योग्य है ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिनके सङ्ग से हमको उत्तम बुद्धि और घर प्राप्त होते हैं, उनको सदैव तुम मानो ॥२॥
विषय
मित्र वरुण वरवधू के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मित्रावरुणौ ) मित्र और वरुण, हे परस्पर स्नेह करने वाले और एक दूसरे का वरण करने वाले वर वधू ! ( इयं मनीषा ) यह मेरे मन की उत्तम कामना (प्रिया वां) आप दोनों प्रिय जनों को (यत्) मेरी ओर से ( नमसा ) विनयपूर्वक अन्नादि सत्कार के साथ ( प्र स्तृणीते ) प्राप्त होती है । इसी प्रकार ( अच्छ बर्हि: प्रस्तृणीते ) उत्तम आसन भी आप लोगों के लिये बिछाया जाता है। आप दोनों ( सु-दानू ) उत्तम दानशील होकर ( नः ) हमें ( वरूथ्यं ) शीत, आतप, वर्षा आदि को वारण करने वाला ( छर्दिः अधृष्टं ) दृढ़ गृह ( यन्तं ) दो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अधृष्ट छादः
पदार्थ
[१] हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्दोषता के भावो! (इयम्) = यह (मत्) = मेरी, मेरे से की जानेवाली (मनीषा) = स्तुति (वाम्) = आप दोनों को (प्रस्तृणीते) = आच्छादित करती है । हे (प्रिया) = प्रीति के जनक मित्र और वरुण यह स्तुति (नमसा) = नमन के साथ आपको (बर्हिः अच्छ) = हृदय के अभिमुख (उप) = समीपता से प्राप्त कराती है। अर्थात् मैं प्रभु के प्रति नमनवाला होता हुआ हृदय में मित्र व वरुण का प्रतिष्ठापन करने का प्रयत्न करता हूँ। [२] हे मित्रावरुणौ ! आप (नः) = हमारे लिये (अधृष्टम्) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं से धर्षित न किये जानेवाले (छर्दिः) = शरीरगृह को (यन्तम्) = प्राप्त कराइये । हे (सुदानू) = शोभन दानोंवाले व बुराइयों को काटनेवाले प्राणापानो ! (यद्वाम्) = जो आपका (वरुथ्यम्) = वासनाओं का निवारक धन है उसे हमारे लिये प्राप्त कराइये ।
भावार्थ
भावार्थ- हम मित्रावरुण का स्तवन करें। प्रभु स्मरण करते हुए स्नेह व निर्देषता के भावों को अपने अन्दर धारण करें। हमारा शरीरगृह नीरोग व उत्तम बने तथा हमें वासना विनाशक धन प्राप्त हो ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्यांच्या संगतीने आपल्याला उत्तम बुद्धी व घरे प्राप्त होतात त्यांचा तुम्ही सदैव सन्मान करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, dear, loving and just teachers and preachers, the holy grass is well spread for you on the vedi, and this sincere address and invitation from the core of my heart reaches out to you with homage and humility. O generous masters of holiness and knowledge, come and bless us with your gifts of the peace and happiness of a comfortable home free from fear.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Teachers and Preachers should be respected—is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O good donors ! dear and desirable teachers and preachers! my intellect which is endowed with knowledge and good education goes towards you and covers you with reverence and good food. This intellect covers our home which can never be attacked by the enemies and which is very vast, containing all requisite articles and safe. This intellect should be attained by all along with spacious and safe home.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, you should always revere those good teachers and preachers by whose association we get good intellect and dwelling place.
Foot Notes
(बर्हिः) अतीवविशालम् । बृह-वृद्धौ (भ्वा.) । = Very vast or spacious (छर्दि:) गृहम् । छर्दिरिति गृहनाम (NG 3, 4 )। = Home.
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