ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 9
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्र यद्वां॑ मित्रावरुणा स्पू॒र्धन्प्रि॒या धाम॑ यु॒वधि॑ता मि॒नन्ति॑। न ये दे॒वास॒ ओह॑सा॒ न मर्ता॒ अय॑ज्ञसाचो॒ अप्यो॒ न पु॒त्राः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । स्पू॒र्धन् । प्रि॒या । धाम॑ । यु॒वऽधि॑ता । मि॒नन्ति॑ । न । ये । दे॒वासः॑ । ओह॑सा । न । मर्ताः॑ । अय॑ज्ञऽसाचः । अप्यः॑ । न । पु॒त्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्वां मित्रावरुणा स्पूर्धन्प्रिया धाम युवधिता मिनन्ति। न ये देवास ओहसा न मर्ता अयज्ञसाचो अप्यो न पुत्राः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठप्र। यत्। वाम्। मित्रावरुणा। स्पूर्धन्। प्रिया। धाम। युवऽधिता। मिनन्ति। न। ये। देवासः। ओहसा। न। मर्ताः। अयज्ञऽसाचः। अप्यः। न। पुत्राः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
के विदुषां प्रिया अप्रिया वा भवन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे मित्रावरुणा ! यद्ये स्पूर्द्धन् वां प्रिया धाम युवधिता न प्रमिणन्ति ये देवास ओहसाऽयज्ञसाचो मर्त्ताश्च न मिनन्ति तेऽप्यो न पुत्रा इव जायन्ते ॥९॥
पदार्थः
(प्र) (यत्) ये (वाम्) युवयोः (मित्रावरुणा) प्राणोदानवद्वर्त्तमानौ (स्पूर्धन्) स्पर्द्धमानाः (प्रिया) प्रियाणि (धाम) दधति येषु तानि (युवधिता) युवयोर्हितानि (मिनन्ति) हिंसन्ति (न) निषेधे (ये) (देवासः) विद्वांसः (ओहसा) प्राप्तेन बलेन वेगन वा (न) निषेधे (मर्त्ताः) मनुष्याः (अयज्ञसाचः) ये यज्ञेन न सचन्ति सम्बध्नन्ति ते (अप्यः) अप्सु सत्कर्मसु भवः (न) इव (पुत्राः) ॥९॥
भावार्थः
ये मनुष्या अध्यापकोपदेशकानामप्रियं नाचरन्ति ते सत्पुत्रवद्भवन्ति ये चाऽप्रियमाचरन्ति ते शत्रुवज्जायन्ते ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन विद्वानों के प्रिय वा अप्रिय होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान अध्यापक और उपदेशको ! (यत्) जो (स्पूर्द्धन्) स्पर्द्धा करते हुए जन (वाम्) तुम दोनों के (प्रिया) प्रिय (धाम) धाम जिनमें स्थापन करते हैं उन (युवधिता) तुम दोनों का हित करनेवालों को (न) न (प्र, मिनन्ति) नष्ट करते हैं वा (ये) जो (देवासः) विद्वान् जन (ओहसा) प्राप्तबल वा वेग से (अयज्ञसाचः) जो यज्ञ से सम्बन्ध नहीं करते वे (मर्त्ताः) मनुष्य (न) नहीं नष्ट करते हैं, वे (अप्यः) कर्मों में प्रसिद्ध के (न) समान और (पुत्राः) पुत्रों के समान होते हैं ॥९॥
भावार्थ
जो मनुष्य अध्यापक और उपदेशकों का अप्रिय आचरण नहीं करते हैं, वे सत्पुत्रों के समान होते हैं और जो अप्रिय का आचरण करते हैं, वे शत्रुओं के तुल्य होते हैं ॥९॥
विषय
उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।
भावार्थ
हे ( मित्रा-वरुणा ) स्नेहवान् एवं वरण करने योग्य माता पिता के समान पूज्य पुरुषो ! ( यत् ) जो लोग ( प्रिया ) प्रिय (धामा) आप दोनों के धारण करने योग्य कर्मों और पदों को प्राप्त करने के लिये ( स्पूर्धन्) स्पर्धा करते हैं और ( युव-धिता ) आप लोगों के किये कर्मों का ( न प्र मिनन्ति ) विनाश नहीं करते । और ( ये देवासः ) जो विद्वान् ( मर्ताः ) मरणधर्मा, मनुष्य ( ओहसा ) अपने कर्म सामर्थ्य से (अयज्ञ-साचः) यज्ञ, परस्पर सत्संग को प्राप्त न होकर भी ( नः स्पूर्धन् ) आप दोनों के कर्मों में विघ्न नहीं करते वे भी (अप्यः न पुत्राः) आप दोनों के कर्म निष्ठ एवं प्राप्त दाराओं में उत्पन्न पुत्रों के समान ही प्रिय होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
स्नेह व निर्देषता का महत्व
पदार्थ
[१] हे (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण ! (यद्) = जब (वाम्) = आपके (प्रिया धाम) = प्रिय तेजों को व (युवधिता) = आप से किये जानेवाले कर्मों को (स्पूर्धन्) = [defy] निरादृत करते हैं व (प्रमिनन्ति) = हिंसित करते हैं। अर्थात् जब स्नेह व निर्देषता से उत्पन्न होनेवाले तेज को ये महत्त्व नहीं देते और जब स्नेह व निर्देषता से युक्त होकर कर्म नहीं करते तो इनका जीवन ऐसा हो जाता है कि (ये) = जो (न देवासः) = देववृत्ति के नहीं बन पाते। और ये वे (मर्ताः) = मनुष्य होते हैं जो (अयज्ञसाचः) = यज्ञों का सेवन न करते हुए ओहसा न [वहनसाधनेन स्तोत्रेण] लक्ष्य स्थान पर ले जानेवाले स्तोत्र से युक्त नहीं होते। (अप्यः) = कर्मशील होते हुए भी ये (पुत्राः न) = [पुनाति त्रायते] अपने को पवित्र नहीं कर पाते और अपने को रोगों व वासनाओं के आक्रमण से नहीं बचा पाते। [२] स्नेह व निर्दोषता के अभाव में हमें वास्तविक तेज की प्राप्ति नहीं होती। हम स्नेह व निर्दोषता से दूर होकर देवत्व से ही दूर हो जाते हैं। हमारा जीवन यज्ञमय व स्तुतिमय नहीं रहता। पवित्रता का विनाश होकर रोगों व वासनाओं की प्रबलता हो जाती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्नेह व निर्देषता के महत्त्व को समझें। इन्हीं से हमें 'तेजस्विता, दिव्यता, स्तुति की वृत्ति, यज्ञशीलता व पवित्रता' प्राप्त होगी ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे अध्यापक व उपदेशक यांच्याबरोबर प्रिय आचरण करतात ती सत्पुत्राप्रमाणे असतात व जी अप्रिय आचरण करतात ती शत्रूप्रमाणे असतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Mitra and Varuna, divinities of love and justice, those holy persons, who emulate and follow the rules and injunctions loved and ordained by you, and never violate them by their power and potential, are like your children by their karmas. On the other hand, those, who envy and are jealous, who violate the principles and institutions dear to you, who are not good and generous people, and in spite of their power and potential are mortals of inferior calibre without the love and performance of noble acts, deserve to be neither you, friends nor your children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who becomes dear to the enlightened persons and who not—is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preclears! who are like Prana and Udâna, those highly learned persons who while competing with one another, do not transgress the rules made by you or do not violate the injunctions which are good to you and which uphold you, become like your sons born of good actions done with strength and promptness. On the other hand, those mortals, who do not preform the Yajna or noble philanthropic acts are like your enemies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men, who act according to the wishes of the teachers and preachers as liked by them are like their good sons and those who go against their wishes and do acts which are not pleasing to them are regarded as their adversaries.
Foot Notes
(मित्रावरुणा) प्राणोदानवद् वर्तमानौ । आ + वह: प्रापणो (भ्वा.) सुखादि प्रापकं बलम् प्राणीदानो वै मित्रा वरुणो (S. Br. 1, 8, 3, 12; 3, 6, 1, 16, 5, 3, 5, 34- 9, 5, 1, 56 )। = like Prana and Udana. (ओहसा) प्राप्तेन बलेन वेगेन वा । = with acquired Strength or impetus.. (अप्य:) अप्सु सत्कर्मसु भवः । = Born in good actions.
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