ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 11
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒वोरि॒त्था वां॑ छ॒र्दिषो॑ अ॒भिष्टौ॑ यु॒वोर्मि॑त्रावरुणा॒वस्कृ॑धोयु। अनु॒ यद्गावः॑ स्फु॒रानृ॑जि॒प्यं धृ॒ष्णुं यद्रणे॒ वृष॑णं यु॒नज॑न् ॥११॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वोः । इ॒त्था । वा॒म् । छ॒र्दिषः॑ । अ॒भिष्टौ॑ । यु॒वोः । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ । अस्कृ॑धोयु । अनु॑ । यत् । गावः॑ । स्फु॒रान् । ऋ॒जि॒प्यम् । धृ॒ष्णुम् । यत् । रणे॑ । वृष॑णम् । यु॒नज॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवोरित्था वां छर्दिषो अभिष्टौ युवोर्मित्रावरुणावस्कृधोयु। अनु यद्गावः स्फुरानृजिप्यं धृष्णुं यद्रणे वृषणं युनजन् ॥११॥
स्वर रहित पद पाठअवोः। इत्था। वाम्। छर्दिषः। अभिष्टौ। युवोः। मित्रावरुणौ। अस्कृधोयु। अनु। यत्। गावः। स्फुरान्। ऋजिप्यम्। धृष्णुम्। यत्। रणे। वृषणम्। युनजन् ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 11
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के विद्वांसो भवन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! यद्ये गावस्तान् स्फुरानृजिप्यं धृष्णुं वृषणं रणे कश्चिद्युनजन् सन् विजयते। हे मित्रावरुणाववोर्वां छर्दिषोऽभिष्टौ यद्यः प्रयतते युवोरस्कृधोय्वित्थाऽनुयतते तं सदा सत्कुर्यातम् ॥११॥
पदार्थः
(अवोः) रक्षकयोः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः। (इत्था) अस्माद्धेतोः (वाम्) युवयो (छर्दिषः) गृहस्य (अभिष्टौ) आभिमुख्येन यजनक्रियायाम् (युवोः) युवयोः (मित्रावरुणौ) वायुसूर्यवद्वर्त्तमानौ (अस्कृधोयु) य आत्मनः कृधु ह्रस्वत्वं नेच्छति। अत्र सुपां सुलुगिति सुलोपः। (अनु) (यत्) ये (गावः) किरणा धेनवो वा (स्फुरान्) स्फूर्त्तिमतः (ऋजिप्यम्) ऋजूनां पालके भवम् (धृष्णुम्) दृढं प्रगल्भं वा (यत्) यः (रणे) सङ्ग्रामे (वृषणम्) बलिष्ठम् (युनजत्) युञ्जन् ॥११॥
भावार्थः
हे अध्यापकोपदेशका ये विद्यार्थिनो युष्माकं कार्य्यं स्वकार्य्यवज्जानन्ति त एव दीर्घायुषः प्रशस्तविद्या धार्मिकाः परोपकारिणो जायन्त इति ॥११॥ अत्र प्राणोदानवदध्यापकोपदेशकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तषष्टितमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन विद्वान् होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! (यत्) जो (गावः) किरणें वा धेनु हैं उनको (स्फुरान्) स्फूर्त्तिवाले पदार्थों वा (ऋजिप्यम्) कोमल वा सरल पदार्थों के पालनेवालों में हुए (धृष्णुम्) दृढ़ प्रगल्भ (वृषणम्) बलिष्ठ को (रणे) सङ्ग्राम में कोई (युनजन्) जोड़ता हुआ विजय को प्राप्त होता है, हे (मित्रावरुणौ) वायु और सूर्य्य के समान वर्त्तमान ! (अवोः) रक्षा करनेवाले (वाम्) तुम दोनों के (छर्दिषः) घर के (अभिष्टौ) सन्मुख यज्ञक्रिया में (यत्) जो प्रयत्न करता है तथा (युवोः) तुम दोनों के सम्बन्ध में (अस्कृधोयु) जो अपनी लघुता नहीं चाहता (इत्था) इस हेतु से (अनु) अनुकूलता से यत्न करता है, उसका सदैव सत्कार करो ॥११॥
भावार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! जो विद्यार्थी जन तुम्हारे काम को अपने काम के समान जानते हैं, वे ही दीर्घ आयुवाले, प्रशंसित विद्यायुक्त, धार्मिक परोपकारी होते हैं ॥११॥ इस सूक्त में प्राण और उदान के समान अध्यापक और उपदेशकों के गुणों का वर्णन होने से सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सड़सठवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।
भावार्थ
हे ( मित्रा-वरुणौ ) स्नेह युक्त और श्रेष्ठ विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( यत् अनु ) जिन आप दोनों के पीछे २ ( गावः ) वाणियें और उत्तम पशुजन किरणोंवत् (अनु स्फुरान्) चलते हैं और ( यत् ) जो आप दोनों (ऋजिप्यं ) सत्य धर्म के पालक, (धृष्णु ) शत्रु को पराजय करने में समर्थ ( वृषणं ) बलवान्, पुरुष को (रणे ) संग्राम में ( युनजन् ) नियुक्त करते हैं । उन ( अवोः वां ) रक्षा करने वाले आप दोनों के ( इत्था ) इस प्रकार ( छर्दिष: अभिष्टौ ) गृह को प्राप्त करने में ( अस्कृधोयुः ) महत्वाकांक्षी पुरुष ( युवोः ) आप दोनों के अधीन रहे और विद्या का अभ्यास किया करे । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अस्कृधोयु छर्दिः [महान् गृह]
पदार्थ
[१] हे (मित्रावरुणौ) = मित्र और वरुण ! (अवोः) = [अवतोः] रक्षण करते हुए (वाम्) = आपके (अभिष्टौ) = अभिगमन के होने पर (इत्था) = सचमुच (युवोः) = आपके (छर्दिष:) = इस शरीररूप गृह की (अस्कृधोयु) = [कृधु-ह्रस्व अल्प] अनल्पता होती है। स्नेह व निर्देषता के भाव इस शरीरगृह को बड़ा सुन्दर व महान् बनाते हैं। इनके होने पर इस गृह का असमय में ही विच्छेद नहीं हो जाता। [२] (यत्) = क्योंकि मित्र और वरुण के होने पर उस गृह में (गाव:) = ज्ञानपूर्वक की स्तुति वाणियाँ (अनु स्फुरान्) = स्फुरित होती हैं, निरन्तर उच्चरित होती हैं और (यत्) = क्योंकि ये मित्र और वरुण के उपासक (ऋजिप्यम्) = ऋजुगामी, सरल मार्ग से गति की प्रेरणा देनेवाले (धृष्णुम्) = रोगरूप शत्रुओं के वर्षक (वृषणम्) = शक्ति का सेचन करनेवाले सोम को, वीर्यशक्ति को (रणे) = जीवन संग्राम में (युनजन्) = युक्त करते हैं । अर्थात् स्नेह व निर्देषता के कारण हम ज्ञानपूर्वक स्तुति करनेवाले बनते हैं और सोम का रक्षण करते हुए जीवन संग्राम में विजयी बनते हैं। बस, ये दो बातें हमारे इस शरीर गृह को असमय में विच्छिन्न नहीं होने देती। जिस भी घर में स्नेह व निर्देषता का वास होता है, वह घर अवश्य महान् बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्दोषता हमें ज्ञान व सोमरक्षण की ओर ले जाकर दीर्घजीवी व उत्तम महान् गृहवाला बनाते हैं । अगले सूक्त में 'भारद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र और वरुण का स्तवन करते हैं 'इन्द्र' जितेन्द्रियता व बल का प्रतीक है और 'वरुण' निर्देषता का -
मराठी (1)
भावार्थ
हे अध्यापक, उपदेशकांनो ! जे विद्यार्थी तुमच्या कार्याला आपले कार्य मानतात तेच दीर्घायु प्रशंसित, विद्यायुक्त, धार्मिक व परोपकारी असतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, thus under your care and protection and in matters of family peace and prosperity of the home gifted by you, the beneficiary feels great and grateful. And in the battle business of life which is exciting and delightful, you engage the brave, generous, simple and straight man of truth and honesty celebrated in words of praise and adoration all round.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who are the enlightened persons is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! a man, utilizing the rays that are there or serving the cows, being straight forward, firm and mighty, achieves victory. O teachers and preachers! you who are like the sun and air and protector, whenever trying to be great, or cultivate great virtues in the Yajna that is being done in your house and in your presence, always honor him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! those students who regard their own the work given by you, it is only they that become long-lived, endowed with good knowledge righteousness and benevolent.
Foot Notes
(मित्रावरुणौ)वायुसूर्यवद्वर्त्तमानौ। (मित्रावरुणौ यः प्राणः सवरूप: (गोपथ ब्राह्मणे 3, 4, 11 ) मित्र: सूर्य:। = Those who and like the sun and the air. (छदिषः) गृहस्थ । छदिरिति गृहनाम (NG 3, 4, )। = Of the home, (अभिष्टो ) अभिमुख्येन यजनक्रियायाम् । अभि + यज- देवपूजा सङ्गतिकरण दानेषु (भ्वा.)। = Teachers and preachers who perform · the Yajna in front of their house.
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