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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ता जि॒ह्वया॒ सद॒मेदं सु॑मे॒धा आ यद्वां॑ स॒त्यो अ॑र॒तिर्ऋ॒ते भूत्। तद्वां॑ महि॒त्वं घृ॑तान्नावस्तु यु॒वं दा॒शुषे॒ वि च॑यिष्ट॒मंहः॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । जि॒ह्वया॑ । सद॑म् । आ । इ॒दम् । सु॒ऽमे॒धाः । आ । यत् । वा॒म् । स॒त्यः । अ॒र॒तिः । ऋ॒ते । भू॒त् । तत् । वा॒म् । म॒हि॒ऽत्वम् । घृ॒त॒ऽअ॒न्नौ॒ । अ॒स्तु॒ । यु॒वम् । दा॒शुषे॑ । वि । च॒यि॒ष्ट॒म् । अंहः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता जिह्वया सदमेदं सुमेधा आ यद्वां सत्यो अरतिर्ऋते भूत्। तद्वां महित्वं घृतान्नावस्तु युवं दाशुषे वि चयिष्टमंहः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। जिह्वया। सदम्। आ। इदम्। सुऽमेधाः। आ। यत्। वाम्। सत्यः। अरतिः। ऋते। भूत्। तत्। वाम्। महिऽत्वम्। घृतऽअन्नौ। अस्तु। युवम्। दाशुषे। वि। चयिष्टम्। अंहः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः केषां सङ्गेन जना विद्वांसो भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे घृतान्नावध्यापकोपदेशकौ ! वामुपदेशेन सुमेधा अरतिः सत्यो जिह्वयेदं सदं प्राप्य ऋत आ भूद्यद्यौ युवं दाशुषेंऽहो वि चयिष्टं तद्वां महित्वमस्तु ता वयं सततं सत्कुर्याम ॥८॥

    पदार्थः

    (ता) तौ (जिह्वया) वाचा (सदम्) सीदन्ति विद्वांसो यस्मिंस्तत्सत्यं वचः (आ) (इदम्) (सुमेधाः) उत्तमप्रज्ञः (आ) (यत्) यौ (वाम्) युवयोरुपदेशेन (सत्यः) सत्सु साधुः (अरतिः) सत्यमुपदेशं प्राप्तः सन् (ऋते) सत्ये धर्मे (भूत्) भवेत् (तत्) (वाम्) युवयोः (महित्वम्) महिमानम् (घृतान्नौ) बहुघृतान्नौ (अस्तु) (युवम्) (दाशुषे) दात्रे (वि) विगतार्थे (चयिष्टम्) चिनुतः (अंहः) पापम् ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येषां सकाशाद्यूयं विद्या प्राप्नुतोपदेशं वा गृह्णीत तान् धन्यवादादिना सततं सत्कुरुत येषां सङ्गेन मनुष्याः सत्याचाराः सुज्ञा जायन्ते त एव महाशयाः सन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किनके सङ्ग से जन विद्वान् हों, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (घृतान्नौ) बहुत घृत और अन्नवाले अध्यापक और उपदेशक जनो ! (वाम्) तुम दोनों के उपदेश से (सुमेधाः) उत्तम जिसकी बुद्धि वह (अरतिः) सत्य उपदेश को प्राप्त होता हुआ (सत्यः) सज्जनों में उत्तम जन (जिह्वया) वाणी से (आ, इदम्, सदम्) सब ओर से जिसमें विद्वान् जन स्थिर होते हैं, उस सत्य वचन को पाकर (ऋते) सत्य धर्म में (आ, भूत्) प्रसिद्ध होवे (यत्) जो (युवम्) आप दोनों (दाशुषे) दानशील पुरुष के लिये (अंहः) पाप को (वि, चयिष्टम्) विगत चयन करते हैं (तत्) वह (वाम्) तुम दोनों की (महित्वम्) महिमा (अस्तु) हो (ता) उन तुम दोनों का हम लोग निरन्तर सत्कार करें ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिनकी उत्तेजना से तुम लोग विद्या को प्राप्त होओ वा उपदेश ग्रहण करो, उनका धन्यवाद आदि से निरन्तर सत्कार करो, जिनके सङ्ग से मनुष्य सत्य आचरणवाले उत्तम ज्ञाता होते हैं, वे ही महाशय हैं ॥८॥

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    विषय

    उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! ( यत् ) जो पुरुष ( इदं सदम् ) आप दोनों के इस विद्वानों के बैठने योग्य गृह को प्राप्त होकर ( जिह्वया ) वाणी से तुम्हें प्राप्त हो, वह ( सुमेधाः ) उत्तम बुद्धिमान् हो । वह आप दोनों को ( आ ) प्राप्त हो, वह ( ऋते ) सत्य ज्ञान और धर्मानुकूल व्यवहार वा धन के सम्बन्ध में ( सत्यः ) सच्चा (वाम् अरतिः ) आप दोनों का स्वामी ( भूत् ) हो, ( वां तत् महित्वम् ) आप लोगों का यह बड़ा भारी गुण हो । हे (घृतान्नौ ) घृत युक्त अन्न का भोजन करने वाले सत्पुरुषो ! ( ता युवं ) वे आप दोनों ( दाशुषे अंहः ) दान देने वाले के पाप को ( वि चयिष्टम् ) दूर करो । विद्वान् स्त्री पुरुष अपने को शिष्य रूप से अर्पण करने वाले के दोषों को चुन २ कर दूर करें । अथवा शिष्यादि जन (दाशुषे) ज्ञान दाता के पाप को (वि चयिष्टं) स्वयं संग्रह न करें । वे घृतयुक्त अन्न का भोजन करें, रूखा न खाया करें ।

    टिप्पणी

    अस्माकं यानन्यवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि ।। तै० उप० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञान यज्ञ व सत्य

    पदार्थ

    [१] (सुमेधाः) = उत्तम बुद्धिवाला पुरुष (सदम्) = सदा (जिह्वया) = अपनी जिह्वा से (ता) = उन मित्र और वरुण से (इदम्) = इस गत मन्त्र में वर्णित 'पयः' आप्यायित करनेवाले ज्ञानदुग्ध को आ [आयाचते] माँगता है। स्नेह व निर्देषता के भाव हमारे ज्ञान का वर्धन करते ही हैं । (यत्) = क्योंकि (वां अरतिः) = आपका अभिगन्ता, आपको प्राप्त होनेवाला यह उपासक (सत्यः) = सत्य व्यवहारवाला तथा (ॠते) = सदा यज्ञों में चलनेवाला (भूत्) = होता है। [२] हे (घृतान्नौ) = शरीर से मलों का क्षरण करनेवाले तथा ज्ञानदीप्ति को बढ़ानेवाले अन्न का सेवन करनेवाले प्राणापानो ! (वाम्) = आपकी (तत्) = वह (महित्वम्) = महिमा (अस्तु) = सदा हो, सदा आपकी यह महिमा बनी रहे कि (युवम्) = आप (दाशुषे) = इस दाश्वान् पुरुष के लिये (अंहः) = पाप को (विचयिष्टम्) = नष्ट करते हो। जो भी व्यक्ति मित्र और वरुण के लिये अपने को दे डालता है, मित्र और वरुण उसके पाप को विनष्ट करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता से ज्ञानवृद्धि होती है, सत्य व यज्ञों की रुचि बढ़ती है, पाप विनष्ट होते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्यांच्यापासून तुम्ही विद्या प्राप्त करता किंवा उपदेश ग्रहण करता त्यांना धन्यवाद देऊन सदैव सत्कार करा. ज्यांच्या संगतीने माणसे सत्याचरणी बनून उत्तम ज्ञाते होतात तेच थोर पुरुष असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, givers of ghrta and food for the fire, whoever the disciple, intelligent, faithful and true, established in truth and the law of truth by virtue of your voice of truth in this house of yajna, let that be your gracious gift of achievement. And we pray throw out all sin and crime for the sake of the giver in this holy programme of moral culture.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    By whose association do men get enlightened--is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! whose food consists of sufficient quantity of butter and its nourishing preparations, a man of good intellect, who has received teachings from you becomes very good and having heard true words from your lips becomes established in true Dharma-righteousness. You separate a liberal donor from sins. That is your greatness. Therefore, let us constantly honor you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you must always honor those persons with thanks-giving etc., from whom you receive knowledge or sermons. Those are truly great souled men by whose association, men become endowed with good knowledge and truthful conduct.

    Foot Notes

    (सदम्) सीदन्ति विद्वांसो यस्मिस्तत्सत्यं वचः । = Truthful words in which the enlightened men are established.(अरतिः) सत्यमुपदेशं प्राप्तः सन् । (अरति) ऋ-गतिप्रापणायोः (भ्वा) । गते त्रिष्वर्थेषु अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम् । = One who has received true sermon. (ऋते) सत्ये धर्मे । ऋतमिति सत्यनाम (NG 3,10) । = In true Dharma - righteousness.

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