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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वे॒ यद्वां॑ मं॒हना॒ मन्द॑मानाः क्ष॒त्रं दे॒वासो॒ अद॑धुः स॒जोषाः॑। परि॒ यद्भू॒थो रोद॑सी चिदु॒र्वी सन्ति॒ स्पशो॒ अद॑ब्धासो॒ अमू॑राः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । यत् । वा॒म् । मं॒हना॑ । मन्द॑मानाः । क्ष॒त्रम् । दे॒वासः॑ । अद॑धुः । स॒ऽजोषाः॑ । परि॑ । यत् । भू॒थः । रोद॑सी॒ इति॑ । चि॒त् । उ॒र्वी इति॑ । सन्ति॑ । स्पशः॑ । अद॑ब्धासः । अमू॑राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे यद्वां मंहना मन्दमानाः क्षत्रं देवासो अदधुः सजोषाः। परि यद्भूथो रोदसी चिदुर्वी सन्ति स्पशो अदब्धासो अमूराः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे। यत्। वाम्। मंहना। मन्दमानाः। क्षत्रम्। देवासः। अदधुः। सऽजोषाः। परि। यत्। भूथः। रोदसी इति। चित्। उर्वी इति। सन्ति। स्पशः। अदब्धासः। अमूराः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः के सत्कर्त्तव्या इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ ! यद्यौ युवामुर्वी रोदसी इव भूथस्तयोर्वा सङ्गेन यद्ये मंहना मन्दमानाः सजोषाः स्पशोऽदब्धासोऽमूरा विश्वे देवासः सन्ति त एव चित् क्षत्रं पर्यदधुस्तौ तान् युष्मान् सर्वे वयं सततं सत्कुर्याम ॥५॥

    पदार्थः

    (विश्वे) सर्वे (यत्) ये (वाम्) युवयोः (मंहना) सत्कर्त्तारः (मन्दमानाः) आनन्दन्तः प्राप्तसत्काराः स्तुवन्तो वा (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (देवासः) कामयमाना विद्वांसः (अदधुः) दधति (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः (परि) सर्वतः अपि [(यत्) (भूथः) (रोदसी) (चित्) ] (उर्वीः) बहुपदार्थयुक्ते (सन्ति) (स्पशः) अविद्यान्धकारं बाधमाना विद्याप्रकाशं स्पर्शन्तः (अदब्धासः) अहिंसिता अहिंसका वा (अमूराः) मूढतादिदोषरहिताः ॥५॥

    भावार्थः

    त एवाप्ता विद्वांसः सन्ति येषामध्यापनोपदेशसङ्गाः सद्यः सफला जायन्ते तेषां सङ्गेन हिंसादिदोषरहिता विद्वांसो भूत्वा पक्षपातं विहाय सर्वान् प्राणिनः स्वात्मवत्सुखयन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशको ! (यत्) जो तुम दोनों (उर्वी) बहुत पदार्थों से युक्त (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी के समान विद्या और क्षमा से युक्त (भूथः) होते हो उन (वाम्) तुम्हारे सङ्ग से (यत्) जो (मंहना) सत्कार करनेवाले (मन्दमानाः) आनन्द वा सत्कार को प्राप्त वा स्तुति करते (सजोषाः) एकसी प्रीति को सेवनेवाले (स्पशः) अविद्यान्धकार का विनाश करने और विद्याप्रकाश का स्पर्श करनेवाले (अदब्धासः) हिंसा को न प्राप्त और हिंसा न करनेवाले (अमूराः) मूढ़तादि दोषरहित (विश्वे, देवासः) समस्त कामना करते हुए विद्वान् जन (सन्ति) हैं, वे ही (चित्) निश्चित (क्षत्रम्) धन वा राज्य को (परि, अदधुः) सब ओर से धारण करते हैं, उनका वा उन तुम लोगों का सब हम लोग निरन्तर सत्कार करें ॥५॥

    भावार्थ

    वे ही आप्त विद्वान् जन हैं, जिनका पढ़ाना, उपदेश और सङ्ग शीघ्र सफल होता है, जिनके सङ्ग से हिंसा आदि दोषरहित विद्वान् होकर पक्षपात को छोड़ सब प्राणियों को अपने आत्मा के तुल्य सुख देते हैं ॥५॥

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    विषय

    उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो आप दोनों ( रोदसी चित्) भूमि आकाश, वा सूर्य और पृथिवी के समान प्रकाश, जल, अन्न, आश्रय आदि देने वाले माता पिता के समान ( ऊर्वी ) विशाल (परि भूथः ) शक्तिमान् होकर रहते हो, उन (वाम् ) आप दोनों के ( मंहना ) बड़े भारी सामर्थ्य से ( मन्दमानाः ) अति प्रसन्न होकर ( विश्वे देवासः ) सब मनुष्य, ( सजोषाः ) समान रूप से प्रीति से युक्त होकर ( वां क्षत्रं अदधुः ) प्राण अपान के बल को इन्द्रिय गण के तुल्य, आप दोनों के बल को धारण करते हैं और आपके (स्पशः ) यथार्थ बात को देखने वाले, दूत, विद्वान् आदि जन भी ( अदब्धासः ) कभी नाश या पीड़ित न होने वाले ( अमूराः ) प्रलोभनादि से मोह में न पड़ने वाले (सन्ति ) हों । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    क्षत्रं-स्पशः

    पदार्थ

    [१] हे मित्र और वरुण ! (विश्वे देवास:) = सब देव (वां मंहना) = आपकी महिमा से (मन्दमाना:) = प्रभु का स्तवन करते हुए, (सजोषाः) = परस्पर प्रीतिवाले होते हुए (यत्) = जब (क्षत्रम्) = बल को (अदधुः) = धारण करते हैं और (यद्) = जब इस प्रकार आप (उर्वी चित् रोदसी) = इन विशाल भी द्यावापृथिवी को (परिभूथ:) = परिभूत करते हो तो उस समय आपकी स्पशः = ये प्रकाश की किरणें [स्पश् see clearly] (अदब्धास:) = अहिंसित व (अमूरा:) = मूढता को दूर करनेवाली होती हैं। स्नेह व निर्देषता का अभाव ही मनुष्य को नाना रोगों से हिंसित व मूढ़ मनवाला बनाता है। [२] देववृत्ति के व्यक्ति अपने में स्नेह व निर्देषता के भावों का धारण करते हुए शक्ति को धारित करते हैं। विजयी बनते हैं और प्रकाश की किरणों को धारण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम देव बनें, सब के प्रति स्नेह व निर्देषतावाले हों। यही बल व ज्ञान की वृद्धि का मार्ग है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्यांचे अध्यापन, उपदेश व संगती शीघ्र सफल होते, ज्यांच्या संगतीने हिंसक न बनता विद्वान बनता येते, भेदभाव न करता सर्व प्राण्यांना जे आपल्या आत्म्याप्रमाणे सुख देतात तेच आप्त विद्वान असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Since you pervade over and across the wide earth and heaven by your presence, the brilliant and generous great powers of the world, rejoicing by virtue of your grandeur and majesty, loving and cooperative together, hold sway over the social order of the earth and rule, intelligent and enlightened, undaunted and perceptive all over like watchful eyes and ears of the nation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should be respected by men -is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! as you are like heaven and earth containing many articles and are endowed with knowledge and forgiveness. it is by your association that all enlightened persons who are respecters of the wise,' enjoying bliss or honored, of equal love and service, dispelling the darkness of ignorance and touching the light of knowledge, non-violent and inviolable, free from the evil of foolishness and other demerits, uphold wealth or kingdom. Let all of us honor you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    They alone are absolutely truthful and reliable intelligent persons, whose teaching, preaching and association bear fruit quickly and by whose association, men becoming free from violence and other evils giving up all prejudice. gladden all beings like their own selves.

    Foot Notes

    (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव विद्याक्षमावन्तौ । रोदसी इति द्यावापृथिविनाम (NG, 3, 30 ) रोदसि इति पदनाम (NG 5, 5) पद-गतौ (दिवा.) । = Endowed with knowledge and forgiveness like the heaven and the earth. (स्पश:) अविद्यान्धकारं बाधमाना विद्याप्रकाशं स्पर्शन्तः । स्पर्श - बाधनस्पर्शन्यो: (भ्वा.) | अत्रोभयार्थ 'ग्रहणम् = Dispelling the darkness of ignorance and touching the light of knowledge. (अदब्धासः) अहिंसिता अहिंसा वा। = Inviolable or non-violent.

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