ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अश्वा॒ न या वा॒जिना॑ पू॒तब॑न्धू ऋ॒ता यद्गर्भ॒मदि॑ति॒र्भर॑ध्यै। प्र या महि॑ म॒हान्ता॒ जाय॑माना घो॒रा मर्ता॑य रि॒पवे॒ नि दी॑धः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअश्वा॑ । न । या । वा॒जिना॑ । पू॒तब॑न्धू॒ इति॑ पू॒तऽब॑न्धू । ऋ॒ता । यत् । गर्भ॑म् । अदि॑तिः । भर॑ध्यै । प्र । या । महि॑ । म॒हान्ता॑ । जाय॑माना । घो॒रा । मर्ता॑य । रि॒पवे॑ । नि । दी॒ध॒रिति॑ दीधः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वा न या वाजिना पूतबन्धू ऋता यद्गर्भमदितिर्भरध्यै। प्र या महि महान्ता जायमाना घोरा मर्ताय रिपवे नि दीधः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठअश्वा। न। या। वाजिना। पूतबन्धू इति पूतऽबन्धू। ऋता। यत्। गर्भम्। अदितिः। भरध्यै। प्र। या। महि। महान्ता। जायमाना। घोरा। मर्ताय। रिपवे। नि। दीधरिति दीधः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सर्वैर्मनुष्यैः कौ पूजनीयावित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! या अश्वा न वाजिना पूतबन्धू ऋतादितिरिव महि यद्गर्भं भरध्यै प्रवर्त्तमानौ या महान्ता जायमाना रिपवे मर्त्ताय घोरा प्र णि दीधस्तौ स्वात्मवत् सत्कुरुत ॥४॥
पदार्थः
(अश्वा) तुरङ्गौ महान्तौ जनौ वा (न) इव (या) यौ (वाजिना) बहुवेगविज्ञानयुक्तौ (पूतबन्धू) पूताः पवित्रा बन्धवो ययोस्तौ (ऋता) सत्याचारौ (यत्) यम् (गर्भम्) (अदितिः) माता (भरध्यै) भर्तुम् (प्र) (या) यौ (महि) (महान्ता) महान्तौ पूजनीयौ (जायमाना) उत्पद्यमानौ (घोरा) भयङ्करौ (मर्त्ताय) मनुष्याय (रिपवे) शत्रवे (नि) (दीधः) नितरां कारागारे निदधाते ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये कुलीना महापक्षा विद्वद्भ्यां मातापितृभ्यामुत्पन्नाः सुशिक्षिता महाशया मातृवज्जनाननुकम्पमाना अध्यापनोपदेशाभ्यां सर्वानुपकुर्वाणा दुष्टानां निरुन्धाना विद्वांसः स्युस्तेषामेव सेवा सङ्गस्तेभ्य एवोपदेशाऽध्ययनौ च सततं कुरुत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर सब मनुष्यों को कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (या) जो (अश्वा) घोड़े वा महाशय जनों के (न) समान (वाजिना) बहुत वेग वा विज्ञानयुक्त (पूतबन्धू) पवित्र बन्धुवाले (ऋता) सत्य आचार के रखनेवाले (अदितिः) माता के तुल्य (महि) महान् जन (यत्) जिस (गर्भम्) गर्भ को (भरध्यै) धारण करने को प्रवर्त्तमान वा (या) जो (महान्ता) महात्मा (जायमाना) उत्पन्न हुए (रिपवे, मर्त्ताय) शत्रुजन के लिये (घोरा) भयङ्कर (प्र, णि, दीधः) और कारागार में निरन्तर शत्रु जनों को डाल देते हैं, उनको अपने आत्मा के तुल्य सत्कार करो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो कुलीन, जिनका महान् पक्ष, विद्वान् माता पिता से उत्पन्न हुए, उत्तम शिक्षायुक्त, महाशय, माता के तुल्य मनुष्यों पर कृपा करते, वा पढ़ाने और उपदेश करने से सब पर उपकार करते, तथा दुष्टों को रोकते हुए विद्वान् होते हैं, उन्हीं की सेवा, सङ्ग, उन्हीं से उपदेश और विद्या पढ़ना निरन्तर करो ॥४॥
विषय
उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।
भावार्थ
( या ) जो आप दोनों ( अश्वान् ) रथ में लगे दो अश्वों के समान, ( वाजिना) बल, ज्ञान, ऐश्वर्य में समान हैं जो आप दोनों (पूत-बन्धू ) पवित्र सम्बन्धों से बंधे और शुद्ध चित्त युक्त, सम्बन्धियों वाले, (ऋता ) सत्य, ज्ञान आचरण करने वाले हो ( यत्) जिन आप दोनों को (अदितिः ) माता के समान भूमि, वा भूमि के समान माता ( भरध्यै ) पालन पोषणार्थ ( गर्भ ) गर्भ रूप में धारण करती है । और ( या ) जो आप दोनों (मर्त्ताय, रिपवे ) सामान्य मनुष्य तथा रिपु, अर्थात् पापयुक्त शत्रु के दमन के लिये (घोरा ) भयंकर हो, वे आप दोनों ( महान्ता ) गुणों में महान् (जायमाना ) उत्पन्न, एवं प्रसिद्ध होकर ( महि प्र नि दीधः ) बहुत बल और ज्ञान एवं बड़े उपास्य ब्रह्म का प्रणिधान, पुनः २ अभ्यास, मनन और प्राप्ति करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'शक्ति पवित्रता ऋत'
पदार्थ
[१] (या) = जो मित्र और वरुण (अश्वा न) = अश्वों के समान (वाजिना) = शक्तिशाली हैं। स्नेह व निर्देषता के भाव ही हमारे जीवनों में शक्ति का वर्धन करते हैं। (पूतबन्धू) = ये मित्र और वरुण पवित्रता को हमारे साथ बाँधनेवाले हैं। (ऋता) = ये ऋत हैं, जो ठीक है, उसे प्राप्त करानेवाले हैं । (यत्) = जिनको (अदितिः) = स्वास्थ्य की देवता (गर्भं भरध्यै) = गर्भरूप से धारण करती है। अर्थात् जितना-जितना पुरुष स्वस्थ होता है, उतना उतना स्नेह व निर्देषता के भावों को धारण कर पाता है। [२] (या) = जो (प्रजामाना) = प्रादुर्भूत होते हुए (महि महान्ता) = महान् से भी महान् होते हैं, उत्तरोत्तर जीवन की महत्ता को बढ़ानेवाले होते हें। (रिपवे मर्ताय) = शत्रुभूत मनुष्य के लिये (घोरा) = जो भयङ्कर होते हैं। स्नेह व निर्देषता शत्रु की शत्रुता को समाप्त करके वस्तुतः शत्रु को नष्ट कर देते हैं। इन मित्र और वरुण को अदिति गर्भरूप से (निदीध:) = धारण करती है, स्वस्थ पुरुष अपने हृदय में धारण करता है।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के भाव हमें 'शक्ति, पवित्रता व ऋत' को प्राप्त कराते हैं। ये हमें महान् बनाते हैं। शत्रु को विनष्ट करते है। स्वस्थ पुरुष ही इन्हें धारण करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे कुलीन, महान पक्षाचे, विद्वान माता-पिता यांच्याकडून उत्पन्न झालेले, उत्तम शिक्षण घेतलेले महाशय मातेप्रमाणे माणसांवर कृपा करतात किंवा अध्यापन व उपदेश करण्याने सर्वांवर उपकार करतात व दुष्टांना रोखत विद्वान होतात त्यांचीच सेवा, संग व निरंतर उपदेश व विद्याग्रहण चालू ठेवा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Fast, strong and bright as heat and light all pervasive, akin to the purity of brotherly relationship, embodiments of truth and law of the universe, mother nature bears you for eternity, O Mitra and Varuna, who ever move forward as greater than the great ones, emerging, rising and blazing as terrible to the enemies of mankind from birth itself.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who should be revered by all men-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men you should honor those teachers and preachers as your own selves, who are mighty like two horses or great men endowed with rapidity and knowledge, whose kith and kin are pure, who are of truthful conduct, who were particularly conceived by an extraordinary mother, who are really very great when manifested, who are fierce for the wicked enemy and who keep the wicked in prison for a long time (till there is repentance or reform)
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! serve and have association with those great men, who are born in noble families, are large-hearted, born of the union of really very great mother and father, well-trained and highly educated, showing kindness to men like their own father and mother, doing good to all by teaching and preaching, restraining the wicked and are enlightened.
Foot Notes
(अश्वा) तुरङ्गौ महान्तौ जनौ वा । = Horses or great men. (अदितिः) माता अदितिरदीना देव माता (N K T 4, 4, 22)। = Mother. (दीध:) नितरां कारागारे विदधाते । = Put in the prison constantly.
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