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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 59/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो नो॑ मरुतो अ॒भि दु॑र्हृणा॒युस्ति॒रश्चि॒त्तानि॑ वसवो॒ जिघां॑सति। द्रु॒हः पाशा॒न्प्रति॒ स मु॑चीष्ट॒ तपि॑ष्ठेन॒ हन्म॑ना हन्तना॒ तम् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । म॒रु॒तः॒ । अ॒भि । दुः॒ऽहृ॒णा॒युः । ति॒रः । चि॒त्तानि॑ । व॒स॒वः॒ । जिघां॑सति । द्रु॒हः । पाशा॑न् । प्रति॑ । सः । मु॒ची॒ष्ट॒ । तपि॑ष्टेन । हन्म॑ना । ह॒न्त॒न॒ । तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो मरुतो अभि दुर्हृणायुस्तिरश्चित्तानि वसवो जिघांसति। द्रुहः पाशान्प्रति स मुचीष्ट तपिष्ठेन हन्मना हन्तना तम् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। नः। मरुतः। अभि। दुःऽहृणायुः। तिरः। चित्तानि। वसवः। जिघांसति। द्रुहः। पाशान्। प्रति। सः। मुचीष्ट। तपिष्ठेन। हन्मना। हन्तन। तम् ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 59; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्धार्मिका विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वसवो मरुतो ! यो दुर्हृणायुर्नश्चित्तान्यभि जिघांसति स द्रुहः पाशान् प्रापयति तमस्मान् प्रति मुचीष्ट तपिष्ठेन हन्मना तं तिरो हन्तन ॥८॥

    पदार्थः

    (यः) (नः) अस्मान् (मरुतः) मनुष्याः (अभि) आभिमुख्ये (दुर्हृणायुः) दुष्टहृदयः (तिरः) तिरस्करणे (चित्तानि) अन्तःकरणानि (वसवः) वासयितारः (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (द्रुहः) द्रोग्धीन् (पाशान्) बन्धकान् (प्रति) (सः) (मुचीष्ट) मुञ्चत (तपिष्ठेन) अतिशयेन तप्तेन (हन्मना) हननेन (हन्तना) अत्र संहितायामिति दीर्घः (तम्) ॥८॥

    भावार्थः

    हे धार्मिका विद्वांसो ! यूयं दुष्टान् मनुष्यान् श्रेष्ठेभ्यो दूरीकृत्य मोहादि बन्धनानि निवार्य तेषां दोषान् हत्वैतान् शुद्धान् सम्पादयत ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर धार्मिक विद्वान् क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वसवः) वास करानेवाले (मरुतः) मनुष्यो ! (यः) जो (दुर्हृणायुः) दुष्ट विचारवाला (नः) हम लोगों के (चित्तानि) अन्तःकरणों को (अभि) सम्मुख (जिघांसति) मारने की इच्छा करता है (सः) वह (द्रुहः) द्रोह करनेवाले (पाशान्) बन्धनों को प्राप्त कराता है (तम्) उसको हम लोगों के (प्रति) प्रति (मुचीष्ट) छोड़िये (तपिष्ठेन) और अत्यन्त तप्त (हन्मना) हनन से उसको (तिरः, हन्तन) तिरछा मारिये ॥८॥

    भावार्थ

    हे धार्मिक विद्वानो ! आप लोग दुष्ट मनुष्यों को श्रेष्ठों से दूर करके मोह आदि बन्धनों को निवृत्त कर के उनके दोषों का नाश करके उन को शुद्ध करिये ॥८॥

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    विषय

    दुष्टों का दमन ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) विद्वानों और वीर जनो ! ( यः ) जो ( नः ) हमारे बीच में ( दुर्हृणायुः ) दुःखदायी, क्रोध करने वाला, दुष्ट हृदय का पुरुष, हमारे ( चित्तानि ) अन्तःकरणों को ( तिरः ) तिरस्कारपूर्वक ( अभि जिघांसति ) आघात करता या हृदयों को चोट पहुंचाना चाहता है ( सः ) वह ( द्रुहः पाशान् ) द्रोही के योग्य फांसों या बन्धनों को ( प्रति मुचीष्ट ) धारण करे । और (तम् ) उसको ( तपिष्ठेन हन्मना ) अति तापदायक हथियार से ( हन्तन ) दण्डित करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १-११ मरुतः। १२ रुद्रो देवता, मृत्युविमोचनी॥ छन्दः १ निचृद् बृहती। ३ बृहती। ६ स्वराड् बृहती। २ पंक्ति:। ४ निचृत्पंक्तिः। ५, १२ अनुष्टुप्। ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ९,१० गायत्री। ११ निचृद्गायत्री॥

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    विषय

    दुष्टों को कठोर दण्ड दो

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (मरुतः) = विद्वानों और वीर जनो! (यः) = जो (नः) = हमारे बीच (दुर्हणायुः) = दुःखदायी, दुष्ट-हृदय का पुरुष, हमारे (चित्तानि) = अन्तःकरणों को (तिरः) = तिरस्कारपूर्वक (अभि जिघांसति) = चोट पहुँचाना चाहता है (स:) = वह (द्रुहः पाशान्) = द्रोही के योग्य फाँसों या बन्धनों को (प्रति मुचीष्ट) = त्याग दे और (तम्) = उसको (तपिष्ठेन हन्मना) = अति तापदायक हथियार से (हन्तन) = दण्डित करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- जो दुष्ट लोग प्रजाजनों को कष्ट पहुँचाकर उनके हृदय को अशान्त करते हैं। राजनियमों का तिरस्कार करके राष्ट्र में अशान्ति तथा अव्यवस्था फैलाते हैं राजा ऐसे दुष्टों को कठोर दण्ड देवे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे धार्मिक विद्वानांनो ! तुम्ही दुष्टांना श्रेष्ठांपासून दूर करा. मोह इत्यादी बंधने दूर करून त्यांचे दोष नष्ट करून त्यांना शुद्ध करा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, leading lights and givers of wealth, honour and peaceful settlement, whoever is evil at heart toward us and seeks to damage our dignity and identity, let him be forced to withdraw his snares of hate and enmity back to himself and strike him with an unfailing weapon of punishment which scorches his enmity to smoke and naught.

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