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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    स॒स्वश्चि॒द्धि समृ॑तिस्त्वे॒ष्ये॑षामपी॒च्ये॑न॒ सह॑सा॒ सह॑न्ते। यु॒ष्मद्भि॒या वृ॑षणो॒ रेज॑माना॒ दक्ष॑स्य चिन्महि॒ना मृ॒ळता॑ नः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒स्वरिति॑ । चि॒त् । हि । सम्ऽऋ॑तिः । त्वे॒षी । ए॒षा॒म् । अ॒पी॒च्ये॑न । सह॑सा । सह॑न्ते । यु॒ष्मत् । भि॒या । वृ॒ष॒णः॒ । रेज॑मानाः । दक्ष॑स्य । चि॒त् । म॒हि॒ना । मृ॒ळत॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सस्वश्चिद्धि समृतिस्त्वेष्येषामपीच्येन सहसा सहन्ते। युष्मद्भिया वृषणो रेजमाना दक्षस्य चिन्महिना मृळता नः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सस्वरिति। चित्। हि। सम्ऽऋतिः। त्वेषी। एषाम्। अपीच्येन। सहसा। सहन्ते। युष्मत्। भिया। वृषणः। रेजमानाः। दक्षस्य। चित्। महिना। मृळत। नः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    ये हि सस्वश्चिदेषां त्वेषी समृतिरस्त्यपीच्येन सहसा सहन्ते तेभ्यो युष्मद्भिया रेजमाना वृषणो रेजमाना भवन्ति ते यूयं दक्षस्य महिना चिन्नो मृळत ॥१०॥

    पदार्थः

    (सस्वः) अन्तश्चरन्तः (चित्) अपि (हि) (समृतिः) सम्यक् सत्यक्रियावान् (त्वेषी) प्रकाशमाना (एषाम्) (अपीच्येन) येनायमञ्चति तत्र भवेन (सहसा) बलेन (सहन्ते) (युष्मत्) युष्माकं सकाशात् (भिया) भयेन (वृषणः) बलिष्ठाः (रेजमानाः) कम्पमाना गच्छन्तः (दक्षस्य) बलस्य (चित्) अपि (महिना) महत्त्वेन (मृळत) सुखयत। अत्र संहितायामिति दीर्घः (नः) अस्मान् ॥१०॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यस्य सत्या प्रज्ञा विद्या नीतिः सेना प्रजाश्च वर्तते स एव शत्रून् सहमानः सर्वान् सुखयति स महिम्नानन्दितो भवति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (हि) निश्चित (सस्वः) मध्य में चलते हुए हैं (चित्) और (एषाम्) इनकी (त्वेषी) प्रकाशमान (समृतिः) उत्तम प्रकार सत्यक्रिया है (अपीच्येन) जिससे चलता है उस में हुए (सहसा) बल से (सहन्ते) सहते हैं उनके लिये और (युष्मत्) आप लोगों के समीप से (भिया) भय से (रेजमानाः) काँपते और चलते हुए (वृषणः) बलिष्ठ काँपते हुए जानेवाले होते हैं, वे आप लोग (दक्षस्य) बल के (महिना) महत्व से (चित्) भी (नः) हम लोगों को (मृळत) सुखयुक्त करें ॥१०॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसकी सत्य बुद्धि, विद्या, नीति, सेना और प्रजा वर्त्तमान है, वही शत्रुओं को सहता हुआ सब को सुखयुक्त करता है, वह महिमा से आनन्दित होता है ॥१०॥

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    विषय

    शासकों की समिति और सत्संग का वर्णन।

    भावार्थ

    ( एषां ) इन उक्त बलवान् राष्ट्रसञ्चालक प्रधान पुरुषों की (सम्-ऋतिः) एक साथ मिलकर हुई संगति, सम्मति आदि सदा ( सस्वः चित् ) गुप्त और ( त्वेषी ) अति तीक्ष्ण, तेजस्विनी हो । वे लोग ( अपीच्येन ) अति सुन्दर, सुगुप्त, सुदृढ़ ( सहसा ) बल से (सहन्ते ) शत्रुओं का पराजय करने में समर्थ होते हैं । हे ( वृषणः) बलवान् पुरुषो ! (युष्मदुभिया) आप लोगों से भयपूर्वक (रेजमानाः) कांपते हुए शत्रुजन हों । और आप लोगों के ( दक्षस्य महिना चित्) बल के महान् सामर्थ्य से ही आप लोग ( नः मृडत ) हमें सुखी करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १ सूर्यः। २ – १२ मित्रावरुणौ देवते। छन्दः – १ पंक्तिः। ९ विराट् पंक्ति:। १० स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ४, ६, ७, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ८, ११ त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    शत्रुओं को पराजित करो

    पदार्थ

    पदार्थ - (एषां) = इन उक्त बलवान् प्रधान पुरुषों की (सम् ऋतिः) = एक साथ संगति (सस्वः चित्) = गुप्त और (त्वेषी) = तेजस्विनी हो । वे लोग (अपीच्येन) = सुगुप्त, दृढ़ (सहसा) = बल से (सहन्ते) = शत्रु पराजय में समर्थ होते हैं। हे (वृषण:) = बलवान् पुरुषो! (युष्मद्भिया) = आप के भय से (रेजमाना:) = शत्रु काँपते हों और (दक्षस्य महिना चित्) = बल के सामर्थ्य से आप लोग (नः मृडत) = हमें सुखी करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा अपने मन्त्रिमण्डल व सेनापति के साथ अत्यन्त गोपनीयता से गुप्त बैठक में विचार-विमर्श करके शत्रु को पराजित करने की सुदृढ़ योजना तैयार करे जिससे शत्रु कम्पित व भयभीत होकर राष्ट्र पर आक्रमण करने की सोच भी न सके।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्याच्याजवळ सत्य बुद्धी, विद्या, नीती सेना व प्रजा विद्यमान असते तोच शत्रूंना सहन करून सर्वांना सुखी करतो त्याच्या महानतेमुळेच तो आनंदित होतो. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The nature, character and policy of these divine powers of love and friendship, justice and discrimination, and thought and action in rectitude is mysteriously integrated, brilliant and blazing. They move and act with patience, fortitude and irresistible force. O generous powers, shakers of the jealous and the enemies with fear, save us and let us prosper in peace and joy with the grandeur of your power and force.

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