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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मे मि॒त्रो वरु॑णो दू॒ळभा॑सोऽचे॒तसं॑ चिच्चितयन्ति॒ दक्षैः॑। अपि॒ क्रतुं॑ सु॒चेत॑सं॒ वत॑न्तस्ति॒रश्चि॒दंहः॑ सु॒पथा॑ नयन्ति ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । मि॒त्रः । वरु॑णः । दुः॒ऽदभा॑सः । अ॒चे॒तस॑म् । चि॒त् । चि॒त॒य॒न्ति॒ । दक्षैः॑ । अपि॑ । क्रतु॑म् । सु॒चेत॑सम् । वत॑न्तः । ति॒रः । चि॒त् । अंहः॑ । सु॒ऽपथा॑ । न॒य॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे मित्रो वरुणो दूळभासोऽचेतसं चिच्चितयन्ति दक्षैः। अपि क्रतुं सुचेतसं वतन्तस्तिरश्चिदंहः सुपथा नयन्ति ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे। मित्रः। वरुणः। दुःऽदभासः। अचेतसम्। चित्। चितयन्ति। दक्षैः। अपि। क्रतुम्। सुचेतसम्। वतन्तः। तिरः। चित्। अंहः। सुऽपथा। नयन्ति ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः कीदृशा वरा भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    य इमे दूळभासो मित्रो वरुणश्च दक्षैरप्यचेतसं चिच्चितयन्ति सुचेतसं क्रतुं वतन्तस्सुपथांऽहश्चित् तिरो नयन्ति त एव जगत्कल्याणकारका भवन्ति ॥६॥

    पदार्थः

    (इमे) (मित्रः) सखा (वरुणः) श्रेष्ठः (दूळभासः) दुःखेन लब्धुं योग्या विद्वांसः (अचेतसम्) अज्ञानिनम् (चित्) अपि (चितयन्ति) ज्ञापयन्ति (दक्षैः) बलैश्चतुरैर्जनैर्वा (अपि) (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (सुचेतसम्) शुद्धान्तःकरणम् (वतन्तः) वनन्तः संभजन्तः। अत्र वर्णव्यत्ययेन नस्यः तः। (तिरः) तिरस्करणे निवारणे (चित्) अपि (अंहः) अपराधं पापम् (सुपथा) शोभनेन धर्मेण मार्गेण (नयन्ति) प्रापयन्ति ॥६॥

    भावार्थः

    ये अज्ञान् ज्ञानिनस्सज्ञानान् सद्यो विदुषः कृत्वा सत्यधर्ममार्गेण गमयित्वा पापाद्वियोजयन्ति त एवात्र संसारे दुर्लभास्सन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् कैसे श्रेष्ठ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (इमे) ये (दूळभासः) दुःख से प्राप्त होने योग्य विद्वान् (मित्रः) मित्र और (वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (दक्षैः) सेनाओं वा चतुर जनों से (अपि) भी (अचेतसम्) अज्ञानी को (चित्) भी (चितयन्ति) जनाते हैं और (सुचेतसम्) शुद्ध अन्तःकरण और (क्रतुम्) बुद्धि का (वतन्तः) सेवन करते हुए जन (सुपथा) सुन्दर धर्म्मयुक्त मार्ग से (अंहः) अपराध को (चित्) भी (तिरः) निवारण में (नयन्ति) पहुँचाते हैं, वे ही संसार में कल्याणकारक होते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जो अज्ञानियों को ज्ञानी और ज्ञानियों को शीघ्र विद्वान् करके सत्य धर्म्म के मार्ग से चलाकर पाप से पृथक् करते हैं, वे ही इस संसार में दुर्लभ हैं ॥६॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( इमे ) ये ( मित्रः ) सर्वस्नेह, ( वरुणः ) राजा और ( दूड-भासः ) दूर २ तक चमकने वाले प्रसिद्ध, कीर्त्तिमान् और प्रतापी पुरुष ( दक्षै: ) अपने कर्मों और ज्ञानों से ( अचेतसं चित् ) ज्ञान रहित को भी ( चितयन्ति ) ज्ञानवान् करते हैं । ( अपि ) और (स-चेतसं ) उत्तम चित्त वा ज्ञान वाली ( क्रतुं ) बुद्धि वा कर्म का ( वतन्तः ) सेवन करते हुए (सु-पथा) उत्तम मार्ग से ( अंहः तिरः चित् ) पाप को दूर करते और अन्यों को सन्मार्ग से (नयन्ति ) लेजाते हैं । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १ सूर्यः। २ – १२ मित्रावरुणौ देवते। छन्दः – १ पंक्तिः। ९ विराट् पंक्ति:। १० स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ४, ६, ७, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ८, ११ त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    प्रतापी पुरुष ही राष्ट्र नायक हों

    पदार्थ

    पदार्थ - (इमे) = ये (मित्रः) = सर्वस्नेही, (वरुणः) = राजा और (दूडभास:) = दूर-दूर तक चमकनेवाले पुरुष (दक्षैः) = अपने कर्मों और ज्ञानों से (अचेतसं चित्) = ज्ञान-रहित को भी (चितयन्ति) = ज्ञानवान् करते हैं। (अपि) = और (स-चेतसं) = उत्तम ज्ञानवाली (क्रतुं) = बुद्धि वा कर्म का (वतन्तः) = सेवन करते हुए (सु-पथा) = उत्तम मार्ग से (अंहः तिरः चित्) = पाप को दूर करते और अन्यों को सन्मार्ग से (नयन्ति) = ले जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा सर्वप्रिय तथा तेजस्वी हो जो अपने तेजस्वी कर्मों तथा ज्ञान के द्वारा स्थापित करके राष्ट्र की प्रजा को भी उत्तम मार्ग पर चलाकर ज्ञानी तथा कर्मनिष्ठ बना सके उसकी प्रजा पाप कर्मों से दूर रहकर सन्मार्गगामी बने।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे अज्ञानी लोकांना ज्ञानी व ज्ञानी लोकांना तात्काळ विद्वान करून सत्य धर्माच्या मार्गाने चालवून पापापासून पृथक करतात ते या जगात दुर्लभ असतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These powers of love and friendship, judgement and rectitude and universal truth and law are rare and undaunted, and with their intelligence and expertise of method, they awaken even the stupid and ignorant to sensitivity and wisdom. Further, inspiring the man of noble mind and holy action, they protect him from crookedness and sin and lead him on by the path of truth, goodness and beauty to higher attainment.

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