ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 12
इ॒यं दे॑व पु॒रोहि॑तिर्यु॒वभ्यां॑ य॒ज्ञेषु॑ मित्रावरुणावकारि। विश्वा॑नि दु॒र्गा पि॑पृतं ति॒रो नो॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । दे॒व॒ । पु॒रःऽहि॑तिः । यु॒वऽभ्या॑म् । य॒ज्ञेषु॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । अ॒का॒रि॒ । विश्वा॑नि । दुः॒ऽगा । पि॒पृ॒त॒म् । ति॒रः । नः॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं देव पुरोहितिर्युवभ्यां यज्ञेषु मित्रावरुणावकारि। विश्वानि दुर्गा पिपृतं तिरो नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठइयम्। देव। पुरःऽहितिः। युवऽभ्याम्। यज्ञेषु। मित्रावरुणौ। अकारि। विश्वानि। दुःऽगा। पिपृतम्। तिरः। नः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 12
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः किं क्रियत इत्याह ॥
अन्वयः
हे मित्रावरुणौ देवा ! युवभ्यां यज्ञेष्वियं पुरोहितिरकारि युवां नो विश्वानि तिरस्कृत्य पिपृतम्, हे विद्वांसो ! यूयं स्वस्तिभिर्नस्सर्वान् मनुष्यान् सदा पात ॥१२॥
पदार्थः
(इयम्) (देवा) दातारौ (पुरोहितिः) पुरस्ताद्धिता क्रिया (युवभ्याम्) (यज्ञेषु) विद्वत्सत्कारादिषु (मित्रावरुणौ) प्राणोदानवदध्यापकोपदेशकौ (अकारि) क्रियते (विश्वानि) सर्वाणि (दुर्गा) दुःखेन गन्तुं योग्यानि (पिपृतम्) पूरयतम् (तिरः) तिरस्क्रियायाम् (नः) अस्मान् (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥१२॥
भावार्थः
हे अध्यापकोपदेशकौ यथा भवन्तौ सर्वेषां हितं कुर्यातां तथाऽस्मत् दुर्व्यसनानि दूरीकृत्य सर्वदाऽस्मान् वर्धयतमिति ॥१२॥ अत्र सूर्यादिदृष्टान्तैर्विद्वद्गुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षष्टितमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों से क्या किया जाता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान अध्यापक और उपदेशक जनो (देवा) दाता दोनों ! (युवभ्याम्) आप दोनों से (यज्ञेषु) विद्वानों के सत्काररूपी यज्ञ कर्मों में (इयम्) यह (पुरोहितिः) पहले हित की क्रिया (अकारि) की जाती है, वे दोनों आप (नः) हम लोगों के लिये (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुर्गा) दुःख से जाने योग्य कामों का (तिरः) तिरस्कार कर के आप दोनों (पिपृतम्) पूर्ण करिये और हे विद्वान् जनो ! (यूयम्) आप लोग (स्वस्तिभिः) कल्याणों से (नः) हम सब मनुष्यों की (सदा) सब काल में (पात) रक्षा कीजिये ॥१२॥
भावार्थ
हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जैसे आप दोनों सब के हित को करें, वैसे हम लोगों के दुष्ट व्यसनों को दूर कर के सब काल में हम लोगों की वृद्धि करें ॥१२॥ इस सूक्त में सूर्य्य आदि के दृष्टान्तों से विद्वानों के गुण और कृत्य के वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये ॥ यह साठवाँ सूक्त और द्वितीय वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
मित्र वरुण, माता पितावत् सभा सेनाध्यक्षों से प्रार्थना।
भावार्थ
हे (मित्रा वरुणौ ) स्नेहयुक्त श्रेष्ठ उत्तम स्त्री पुरुषो ! हे माता पिता के तुल्य सभा सेनापति जनो ! हे ( देवा ) विद्वानो ! ( यज्ञेषु) सत्सगों, और यज्ञों में, ( इयं ) यह ( युवभ्यां ) आप दोनों के लिये ( पुरः-हितः अकारि ) आदर पूर्वक उत्तम वस्तुओं की भेंट की जाती है । आप लोग ( विश्वानि ) समस्त ( दुर्गा ) दुर्गम, विषम कष्टों को भी ( तिरः ) दूर करके हमें ( पिपृतं ) पालन करो । और ( यूयं ) आप सब लोग ( नः स्वस्तिभिः सदा पात ) हमारा उत्तम २ साधनों से सदा पालन किया करो । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १ सूर्यः। २ – १२ मित्रावरुणौ देवते। छन्दः – १ पंक्तिः। ९ विराट् पंक्ति:। १० स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ४, ६, ७, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ८, ११ त्रिष्टुप्॥
विषय
कष्टों को दूर करें
पदार्थ
पदार्थ- हे (मित्रा वरुणौ) = स्नेहयुक्त, श्रेष्ठ स्त्री-पुरुषो! हे (देव) = विद्वानो! (यज्ञेषु) = सत्संगों, यज्ञों में, (इयं) = यह (युवभ्यां) = आप दोनों के लिये (पुरः- हितः अकारि) = आदर पूर्वक उत्तम भेंट की जाती है। आप (विश्वानि) = समस्त दुर्गा कष्टों को (तिरः) = दूर करके हमें (पिपृतं) = पालन करो और (यूयं) = आप लोग (नः स्वस्तिभिः सदा पात) = हमारी उत्तम साधनों से सदा रक्षा करो।
भावार्थ
भावार्थ-मनुष्य लोग यज्ञों एवं सत्संगों में सदाचारी विद्वान् स्त्री-पुरुषों का संग करके सन्मार्गदर्शन द्वारा अपने समस्त कष्टों को दूर करें। उन विद्वानों को आदरपूर्वक भेंट देकर तृप्त करें। इससे लोग अपने उत्तम साधनों का सदुपयोग करके परम्पराओं की रक्षा किया करें। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और देवता मित्रावरुण है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे अध्यापक व उपदेशकांनो ! जसे तुम्ही दोघे सर्वांचे हित करता तसे आमच्या वाईट व्यसनांना दूर करून सर्वकाळी आमची वृद्धी करा. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine Mitra and Varuna, powers of love and judgement of nature and humanity, this homage of reverence is created and offered in your honour in the congregations of academic and socio-economic yajna. Pray protect us, promote us, help us cross the hurdles of life with action and bless us with complete fulfilment. O generous powers, save us, defend us and let us advance with all round peace and security for all time.
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