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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यद्गो॒पाव॒ददि॑तिः॒ शर्म॑ भ॒द्रं मि॒त्रो यच्छ॑न्ति॒ वरु॑णः सु॒दासे॑। तस्मि॒न्ना तो॒कं तन॑यं॒ दधा॑ना॒ मा क॑र्म देव॒हेळ॑नं तुरासः ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । गो॒पाव॑त् । अदि॑तिः । शर्म॑ । भ॒द्रम् । मि॒त्रः । यच्छ॑न्ति । वरु॑णः । सु॒ऽदासे॑ । तस्मि॑न् । आ । तो॒कम् । तन॑यम् । दधा॑नाः । मा । क॒र्म॒ । दे॒व॒ऽहेळ॑नम् । तु॒रा॒सः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्गोपावददितिः शर्म भद्रं मित्रो यच्छन्ति वरुणः सुदासे। तस्मिन्ना तोकं तनयं दधाना मा कर्म देवहेळनं तुरासः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। गोपावत्। अदितिः। शर्म। भद्रम्। मित्रः। यच्छन्ति। वरुणः। सुऽदासे। तस्मिन्। आ। तोकम्। तनयम्। दधानाः। मा। कर्म। देवऽहेळनम्। तुरासः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के विद्वांस उत्तमा भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    यथादितिर्मित्रो वरुणश्च गोपावद्भद्रं शर्म ददाति तथा सुदासे तस्मिन् तनयं तोकं च दधाना यद्ये सर्वेभ्यः सुखं यच्छन्ति ते भवन्तः तुरासस्सन्तो देवहेळनं कर्म मा कुर्वन् ॥८॥

    पदार्थः

    (यत्) ये (गोपावत्) पृथिवीपालवत् (अदितिः) विदुषी माता (शर्म) गृहम् (भद्रम्) भजनीयं कल्याणकरम् (मित्रः) सखा (यच्छन्ति) प्रददति (वरुणः) श्रेष्ठः (सुदासे) शोभना दासा दातारो यस्मिन् व्यवहारे (तस्मिन्) (आ) समन्तात् (तोकम्) अपत्यम् (तनयम्) विशालम् (दधानाः) धरन्तः (मा) निषेधे (कर्म) (देवहेळनम्) देवानां विदुषामनादराख्यम् (तुरासः) त्वरिता आशुकारिणः ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मातृवन्मित्रवन्न्यायाधीशराजवत्सर्वान् सत्या विद्याः प्रदाय सुखं प्रयच्छन्ति धार्मिकाणां विदुषामनादरं कदाचिन्न कुर्वन्ति सर्वान् सन्तानान् ब्रह्मचर्ये विद्यायां च रक्षन्ति त एव सर्वजगद्धितैषिणो भवन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन विद्वान् उत्तम होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जैसे (अदितिः) विद्यायुक्त माता (मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ (गोपावत्) पृथिवी के पालन करनेवाले राजा के सदृश (भद्रम्) सेवन करने योग्य सुखकारक (शर्म) गृह को देते हैं, वैसे (सुदासे) सुन्दर दाता जन जिस व्यवहार में (तस्मिन्) उसमें (तनयम्) विशाल उत्तम (तोकम्) सन्तान को (दधानाः) धारण करते हुए (यत्) जो जन सबके लिये सुख (यच्छन्ति) देते हैं वे आप लोग (तुरासः) शीघ्र करनेवाले हुए (देवहेळनम्) विद्वानों का जिसमें अनादर हो ऐसे (कर्म) कर्म्म को (मा) मत करें ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो माता के, मित्र के और न्यायाधीश के सदृश सब को सत्य विद्या देकर सुख देते हैं और धार्मिक विद्वानों के अनादर को कभी भी नहीं करते हैं और सब सन्तानों की ब्रह्मचर्य्य और विद्या में रक्षा करते हैं, वे ही सम्पूर्ण जगत् के हित चाहनेवाले होते हैं ॥८॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( यत् ) जो (अदितिः ) विदुषी माता और विद्वान् पिता के तुल्य अखण्ड शासक राजा, ( मित्रः ) मित्र, स्नेही, ( वरुणः ) सर्वोपरि उत्तम पुरुष ये सब ( सुदासे ) उत्तम करादि के दाता प्रजाजन के हितार्थ वा वृत्ति आदि देने वाले मुख्य राजा के लिये ( भद्रं ) कल्याणकारी सुख ( यच्छन्ति ) प्रदान करते हैं। (तस्मिन् ) उसके अधीन हम अपने (तोकं तनयं आ दधानाः) पुत्र पौत्रादि का पालन पोषण करते हुए ( तुरासः) अति शीघ्रकारी होकर ( देव-हेडनं ) विद्वानों के अनादर और क्रोधजनक कोई काम ( मा कर्म) कभी न करें ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १ सूर्यः। २ – १२ मित्रावरुणौ देवते। छन्दः – १ पंक्तिः। ९ विराट् पंक्ति:। १० स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ४, ६, ७, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ८, ११ त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    विद्वानों का आदर करो

    पदार्थ

    पदार्थ- (यत्) = जो (अदितिः) = विद्वान्, माता-पिता के तुल्य शासक राजा, (मित्रः) = स्नेही, (वरुण:) = सर्वोपरि उत्तम पुरुष ये सब (सुदासे) - उत्तम करादि के दाता के हितार्थ वा वृत्ति आदि देनेवाले राजा के लिये (भद्रं) = सुख (यच्छन्ति) = देते हैं। (तस्मिन्) = उसके अधीन हम अपने (तोकं तनयं आ दधाना:) = पुत्र-पौत्रादि का पालन करते हुए (तुरास:) = शीघ्रकारी होकर (देवहेडनं) = विद्वानों का अनादर (मा कर्म) = न करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्र की प्रजा राजा को राष्ट्र की समृद्धि के लिए अपनी आय का निश्चित अंश कर के रूप में दान करे, जिससे राजा अपने अधिकारियों व कर्मचारियों को वेतन आदि समय पर दे सके। प्रजाहित के लिए कल्याणकारी कार्य कर सके। विद्वानों का उचित सम्मान भी राजा तथा प्रजा दोनों सदैव करते रहें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे मातेप्रमाणे, मित्राप्रमाणे व न्यायाधीशाप्रमाणे सर्वांना सत्य विद्या देऊन सुखी करतात व धार्मिक विद्वानांचा कधी अनादर करीत नाहीत व सर्व संतानांचे ब्रह्मचर्य व विद्येने रक्षण करतात तेच संपूर्ण जगाचे हित इच्छितात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When, like the lord ruler of the earth and protector of her children, Aditi, Mitra and Varuna, mother nature and her law, and divine powers of love, friendship and judgement provide a blessed home of peace, plenty and joy for the generous man of noble action and charity, then in that state of good fortune we, all dynamic and enthusiastic fast achievers, in the joyous company of our children and grand children must not do anything to affront our sages, seniors and scholars or to violate the sanctity of the divinities of nature and suffer their anger.

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