ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 9
अव॒ वेदिं॒ होत्रा॑भिर्यजेत॒ रिपः॒ काश्चि॑द्वरुण॒ध्रुतः॒ सः। परि॒ द्वेषो॑भिरर्य॒मा वृ॑णक्तू॒रुं सु॒दासे॑ वृषणा उ लो॒कम् ॥९॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । वेदि॑म् । होत्रा॑भिः । य॒जे॒त॒ । रिपः॑ । काः । चि॒त् । व॒रु॒ण॒ऽध्रितः॑ । सः । परि॑ । द्वेषः॑ऽभिः । अ॒र्य॒मा । वृ॒ण॒क्तु॒ । उ॒रुम् । सु॒ऽदासे॑ । वृ॒ष॒णौ॒ । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव वेदिं होत्राभिर्यजेत रिपः काश्चिद्वरुणध्रुतः सः। परि द्वेषोभिरर्यमा वृणक्तूरुं सुदासे वृषणा उ लोकम् ॥९॥
स्वर रहित पद पाठअव। वेदिम्। होत्राभिः। यजेत। रिपः। काः। चित्। वरुणऽध्रुतः। सः। परि। द्वेषःऽभिः। अर्यमा। वृणक्तु। उरुम्। सुऽदासे। वृषणौ। ऊँ इति। लोकम् ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युः किं च न कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
यो होत्राभिर्वेदिं यजेत यः कश्चित् काश्चिद्रिपः क्रिया अवयजेत स वरुणध्रुतोऽर्यमा द्वेषोभिः परि वृणक्तूरुं लोकमु वृषणौ च सुदासे प्राप्नोतु ॥९॥
पदार्थः
(अव) विरोधे (वेदिम्) हवनार्थं कुण्डम् (होत्राभिः) हवनक्रियाभिर्वाग्भिर्वा। होत्रेति वाङ्नाम। (निघं०१.११)। (यजेत) सङ्गच्छेत् (रिपः) पापात्मिकाः क्रियाः (काः) (चित्) अपि (वरुणध्रुतः) वरुणेन ध्रुतः स्थिरीकृतः (सः) (परि) सर्वतः (द्वेषोभिः) द्वेषयुक्तैः सह (अर्यमा) न्यायाधीशः (वृणक्तु) पृथग्भवतु (उरुम्) बहुसुखकरं विस्तीर्णम् (सुदासे) सुष्ठु दानाख्ये व्यवहारे (वृषणौ) बलिष्ठौ राजामात्यौ (उ) (लोकम्) ॥९॥
भावार्थः
ये विद्वांसो वेदयुक्ताभिर्वाग्भिस्सर्वान् व्यवहारान् संसाध्य दुष्टक्रिया दुष्टांश्च त्यजन्ति त एवोत्तमं सुखं लभन्ते ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें और क्या न करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (होत्राभिः) हवन की क्रियाओं वा वाणियों से (वेदिम्) हवन के निमित्त कुण्ड का (यजेत) समागम करे और जो कोई (चित्) भी (काः) किन्हीं (रिपः) पापस्वरूप क्रियाओं का (अव) नहीं समागम करे (सः) वह (वरुणध्रुतः) श्रेष्ठ से स्थिर किया गया (अर्यमा) न्यायाधीश (द्वेषोभिः) द्वेष से युक्त जनों के साथ (परि) सब ओर से (वृणक्तु) पृथक् होवे तथा (उरुम्) बहुत सुखकारक और विस्तीर्ण (लोकम्) लोक को (उ) और (वृषणौ) दो बलिष्ठों को (सुदासे) उत्तम प्रकार दान जिसमें दिया जाये, ऐसे कर्म्म में प्राप्त होवे ॥९॥
भावार्थ
जो विद्वान् जन वेद से युक्त वाणियों से सम्पूर्ण व्यवहारों को सिद्ध करके और दुष्ट क्रियाओं और दुष्टों का त्याग करते हैं, वे ही उत्तम सुख को प्राप्त होते हैं ॥९॥
विषय
स्त्रियों का आदर। उनके अनादरकारी को दण्ड।
भावार्थ
जो व्यक्ति (होत्राभिः ) उत्तम वाणियों से ( वेदिम् ) सब सुखों को प्राप्त कराने वाली यज्ञ वेदी, विदुषी स्त्री और भूमि को ( अवयजेत ) प्राप्त नहीं करता, उसका उत्तम रीति से आदर सत्कार नहीं करता (सः) वह (वरुण-श्रुतः) श्रेष्ठ जनों से विनाशित, दण्डित होकर (काः चित् रिपः अव यजेत ) कई प्रकार के कष्ट प्राप्त करता है । अर्थात् जो ( होत्राभिः ) दान आदान क्रिया और सत्कार युक्त वाणियों से ( वेदिं ) सुखप्रद स्त्री, यज्ञ वेदी, भूमि आदि का सत्संग करता है वह ( वरुण-ध्रुतः ) श्रेष्ठ पुरुषों से धारित होकर ( काः चित् रिपः अव ) कई प्रकार के नाना दुःखों और पीड़ाओं से युक्त रहता है। ( अर्यमा ) न्यायकारी दुष्टों का नियन्ता, हे ( वृषणाः ) बलवान् स्त्री पुरुषो ! ( द्वेषोभिः परि वृणक्तु ) द्वेषकारी दुष्ट जनों से हमें दूर रक्खे। और (सु-दासे) सुखप्रद, उत्तम दानशील पुरुष को ( उरुं लोकं ) विशाल स्थान प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १ सूर्यः। २ – १२ मित्रावरुणौ देवते। छन्दः – १ पंक्तिः। ९ विराट् पंक्ति:। १० स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ४, ६, ७, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ८, ११ त्रिष्टुप्॥
विषय
दुष्टों से दूर रहो
पदार्थ
पदार्थ- जो व्यक्ति (होत्राभिः) = उत्तम वाणियों से (वेदिम्) = सब सुखों को प्राप्त करानेवाली यज्ञ वेदी और भूमि को (अवयजेत) = प्राप्त नहीं करता, (सः) = वह वरुण (धुतः) = श्रेष्ठ जनों से दण्डित होकर (कः चित् रिषः अव यजेत) = कई प्रकार के कष्ट प्राप्त करता है। (अर्यमा) = न्यायकारी, हे (वृषणाः) = बलवान् स्त्री-पुरुषो! (द्वेषोभिः परि वृणक्तु) = द्वेषकारी से हमें दूर रक्खे और (सुदासे) = उत्तम दानशील पुरुष को (उरुं लोकं) = विशाल स्थान प्रदान करे।
भावार्थ
भावार्थ- जो व्यक्ति वेदवाणी तथा यज्ञवेदी से दूर रहता है, जो दुष्ट अपने दुष्कर्मों के कारण से दण्डभागी होता है ऐसे लोगों से सभी स्त्री-पुरुष अपनी सन्तानों को दूर रखें जिससे उनमें बुरे संस्कार या दुर्व्यसन न आने पावें। सन्तानों को संस्कारित करने के लिए उत्तम विद्वानों को अपने घरों में बुलाया करें।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान वेदयुक्त वाणीने संपूर्ण व्यवहार सिद्ध करून दुष्ट क्रिया व दुष्टांचा त्याग करतात ते उत्तम सुख प्राप्त करतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
One who dishonours and desecrates the vedi of yajna with unholy chant and stingy insulting libation of holy offerings suffers. What sin and suffering does he not face when he is shaken by Varuna, power of justice and discrimination? May Aryama, divine guide and path maker, keep him away along with the jealous and the hostile, and may Mitra and Varuna, liberal givers, create and award the generous yajaka with a happy home and vast freedom of spirit in an age and environment of bliss.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal