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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उदि॑ता॒ यो निदि॑ता॒ वेदि॑ता॒ वस्वा य॒ज्ञियो॑ व॒वर्त॑ति । दु॒ष्टरा॒ यस्य॑ प्रव॒णे नोर्मयो॑ धि॒या वाज॒ सिषा॑सतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ऽइ॑ता । यः । निऽदि॑ता । वेदि॑ता । वसु॑ । आ । य॒ज्ञियः॑ । व॒वर्त॑ति । दु॒स्तराः॑ । यस्य॑ । प्र॒व॒णे । न । ऊ॒र्मयः॑ । धि॒या । वाज॑म् । सिसा॑सतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदिता यो निदिता वेदिता वस्वा यज्ञियो ववर्तति । दुष्टरा यस्य प्रवणे नोर्मयो धिया वाज सिषासतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽइता । यः । निऽदिता । वेदिता । वसु । आ । यज्ञियः । ववर्तति । दुस्तराः । यस्य । प्रवणे । न । ऊर्मयः । धिया । वाजम् । सिसासतः ॥ ८.१०३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Adore and exalt Agni, worthy of worship, who knows, gives and circulates wealth of the world whether open and developed or hidden and potential. Anxious as he is to give wealth and victory by thought and action, his generosity is difficult to surpass, like waves of the sea in flood.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर वारंवार स्वरचित संपूर्ण ऐश्वर्याला आमच्या समोर आणत असतो व त्यांचे ज्ञान देऊ इच्छितो. भक्ताला तो धारणावती प्रज्ञाही देतो. ज्याच्या साह्याने तो परमेश्वराच्या प्रशस्ततम कृपावृष्टीपासून लाभ घेतो. ॥११॥

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    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    (वेदिता) ज्ञानदाता, (यज्ञियः) पूजनीय प्रभु (निदिता) इस सृष्टि में निहित (वसु) बसाने वाले पदार्थों को (उदिता) हमारे अन्तःकरण में उद्भूत होने पर (आ, व वर्तति) बार-बार लौट बदल कर रखता है। (धिया) धारणावती, शुभगुणों को धारण करने वाली प्रज्ञा के साथ (वाजम्) बोध एवं अन्य विविध ऐश्वर्यों को (सिषासतः) देना चाहते हुए (यस्य) जिस ज्ञानस्वरूप प्रभु की (ऊर्मयः) आच्छादक कृपा (प्रवणे) भक्त पर (दुष्टराः) प्रशस्यतम रूप में बरसती हैं (इव) जैसे कि (प्रवणे) ढालू तल पर पड़ने वाली (ऊर्मयः) जल धारायें (दुष्टराः) अजेय होती हैं॥११॥

    भावार्थ

    प्रभु तो स्वरचित समग्र ऐश्वर्य को बार-बार हमारे समक्ष फिराता रहता है और उनका ज्ञान देता है। भक्त को वह धारणावती प्रज्ञा देता है जिसके साहाय्य से वह प्रभु की इस प्रशस्ततम कृपावृष्टि को सह कर लाभ उठाता है॥११॥

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    विषय

    सर्वशासक प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( यज्ञियः ) पूजने योग्य स्वामी, ( उदिता ) उन्नत और ( निदिता ) निन्दित अच्छे और बुरे सब का ( वेदिता ) ज्ञान कराने वाला होकर, ( वसु आववर्तति ) नाना ऐश्वर्य सर्वत्र प्रदान करता है, वा प्राणि जन को चलाता है। ( धिया ) ज्ञानपूर्वक, कर्मानुसार ( वाजं सिषासतः ) ऐश्वर्य, ज्ञान बल वेगादि को सब में विभक्त करने वाले (यस्य) जिस के ( ऊर्मय:) शासन (प्रवणे उर्मयः न ) नीचे की ओर जाते हुए बृहत् जल व रंगों के ( दुस्तराः ) अपार हैं, उसका उल्लेख नहीं किया जा सकता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥

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