ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 5
स दृ॒ळ्हे चि॑द॒भि तृ॑णत्ति॒ वाज॒मर्व॑ता॒ स ध॑त्ते॒ अक्षि॑ति॒ श्रव॑: । त्वे दे॑व॒त्रा सदा॑ पुरूवसो॒ विश्वा॑ वा॒मानि॑ धीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठसः । दृ॒ळ्हे । चि॒त् । अ॒भि । तृ॒ण॒त्ति॒ । वाज॑म् । अर्व॑ता । सः । ध॒त्ते॒ । अक्षि॑ति । श्रवः॑ । त्वे इति॑ । दे॒व॒ऽत्रा । सदा॑ । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । विश्वा॑ । वा॒मानि॑ । धी॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स दृळ्हे चिदभि तृणत्ति वाजमर्वता स धत्ते अक्षिति श्रव: । त्वे देवत्रा सदा पुरूवसो विश्वा वामानि धीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठसः । दृळ्हे । चित् । अभि । तृणत्ति । वाजम् । अर्वता । सः । धत्ते । अक्षिति । श्रवः । त्वे इति । देवऽत्रा । सदा । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । विश्वा । वामानि । धीमहि ॥ ८.१०३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The mortal you guide breaks open the strongest forts of wealth and honour with his power and force and wins immortal fame. O shelter home of the world, under your protection, dedicated to divinity, we pray, let us concentrate on and receive all good things of life.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रातही प्रभूला आत्मसमर्पणाच्या भावनेची प्रशंसा केलेली आहे. अर्थ स्पष्टच आहे. ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (पुरुवसो) बहुतों को वासदाता! प्रभो! जिसने आप को अपना सब कुछ सौंपा है। (सः) वह उपासक (दृळ्हेचित्) सुदृढ़ स्थान या स्थिति से भी, सुरक्षित स्थान में से (वाजम्) ऐश्वर्य को (अभि तृणत्ति) ग्रहण कर पाता है। हम उपासक भी (देवत्रा त्वे) परमदानी आपके आश्रय में (विश्वा वामानि) सर्वोत्तम पदार्थ सदा (धीमहि) सदैव प्राप्त करते रहें॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में भी प्रभु के प्रति समर्पण की भावना की ही प्रशंसा है॥५॥
विषय
भक्तों पर प्रभु की कृपा।
भावार्थ
( सः ) वही पुरुष जो अपने आप को तुझ पर वार देता है, ( दृढ़े चित् ) दृढ़ शत्रु पर भी वाजं (अर्वता) अपने बल से (अभि वाजं) संग्राम में ( तृणत्ति ) शत्रु का नाश करता है, (सः अक्षिति श्रवः धत्ते ) वह अक्षय यश, ऐश्वर्य अन्न, ज्ञान धारण करता है। हे ( पुरु-वसो ) बहुत से धन के स्वामिन् ! ( त्वं देवत्रा ) तुझ परम दानी के आश्रय हम भी ( विश्वा वामानि धीमहि ) समस्त उत्तम २ धन प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
वाजं - अक्षिति श्रवः
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला (सः) = वह उपासक (दृढे चित्) = अतिशयेन प्रबल भी काम-क्रोध रूप शत्रुओं को (अभितृणत्ति) = हिंसित करता है। इनको हिंसित करके (सः) = वह (अर्वता) = इन्द्रियाश्वों के द्वारा (वाजम्) = शक्ति को तथा (अक्षिति श्रवः) = अक्षीण ज्ञान को (धत्ते) = धारण करता है। कर्मेन्द्रियों द्वारा शक्ति को तथा ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ज्ञान को प्राप्त करता है । [२] हे (पुरुवसो) = पालक व पूरक धनोंवाले प्रभो ! (त्वे देवत्रा) = तुझ देव में स्थित हुए हुए हम (विश्वा वामानि) = सब वननीय, सम्भजनीय, सुन्दर वसुओं को (सदा) = सदा (धीमहि) = धारण करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला अति प्रबल काम-क्रोध को नष्ट करता है, शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करता है। प्रभु के आधार में सब सुन्दर वस्तुओं को धारण करें।
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