ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 9
आ वं॑सते म॒घवा॑ वी॒रव॒द्यश॒: समि॑द्धो द्यु॒म्न्याहु॑तः । कु॒विन्नो॑ अस्य सुम॒तिर्नवी॑य॒स्यच्छा॒ वाजे॑भिरा॒गम॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वं॒स॒ते॒ । म॒घऽवा॑ । वी॒रऽव॑त् । यशः॑ । सम्ऽइ॑द्धः । द्यु॒म्नी । आऽहु॑तः । कु॒वित् । नः॒ । अ॒स्य॒ । सु॒ऽम॒तिः । नवी॑यसी । अच्छ॑ । वाजे॑भिः । आ॒ऽगम॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वंसते मघवा वीरवद्यश: समिद्धो द्युम्न्याहुतः । कुविन्नो अस्य सुमतिर्नवीयस्यच्छा वाजेभिरागमत् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वंसते । मघऽवा । वीरऽवत् । यशः । सम्ऽइद्धः । द्युम्नी । आऽहुतः । कुवित् । नः । अस्य । सुऽमतिः । नवीयसी । अच्छ । वाजेभिः । आऽगमत् ॥ ८.१०३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord of universal wealth and power, light of life, invoked and lighted, gives us honour and fame worthy of the brave. May his love and good will come and bless us with the latest honours, power and prosperity with progressive success.
मराठी (1)
भावार्थ
वेदवाणीद्वारे नित्य गुणगान करून प्रभूच्या शक्तीची अनुभूती अंत:करणात उद्बुद्ध केली जाते. अंत:करणात उद्भवित प्रभू उपासकावर नित्य नवनव्या अनुग्रहाचा वर्षाव करतो. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(द्युम्नी) अज्ञान तिमिर की (निवृत्ति) से स्वयं प्रकाशित, (आहुतः) स्तुतिरूप आहुतियाँ जिसे दी गई हैं तथा (समिद्धः) इस भाँति जागृत किया गया (मघवा) उदार ऐश्वर्यशाली प्रभु (वीरवत्) वीरतापूर्ण कीर्ति (आ वंसते) पहुँचाता है। (अस्य) इस, उद्भावित ज्ञानस्वरूप प्रभु की, (नवीयसी) सदैव प्रस्तुत किये जाने से नित नयी (सुमतिः) अनुग्रह बुद्धि (नः) अच्छा-हमारी ओर (वाजेभिः) सभी समृद्धि सहित (आगमत्) प्राप्त हो॥९॥
भावार्थ
वेदवाणी के द्वारा नित्य गुणगान कर प्रभु की शक्ति की अनुभूति अन्तःकरण में उबुद्ध कर दी जाती है। अन्तःकरण में उद्भावित प्रभु उपासक पर नित्य नये-नये अनुग्रहों को बरसाता है॥९॥
विषय
भक्तों पर प्रभु की कृपा।
भावार्थ
( मघवा ) पूजित ऐश्वर्य युक्त, ( द्युम्नी ) तेजस्वी, प्रभु ( आहुतः ) आदरपूर्वक प्रार्थित और ( समिद्धः ) हृदय में सुप्रकाशित होकर ( वीरवत् यशः आ वंसते ) पुत्रोंसे युक्त अन्न, यश आदि सब प्रकार से प्रदान करता है। ( अस्य कुवित् सुमतिः ) इस की बहुत उत्तम मति ( नवीयसी ) उत्तम उपदेशदात्री, ( वाजेभिः ) उत्तम ज्ञानों सहित ( नः अच्छ आगमत् ) हमें भली प्रकार प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
वीरवद् यशः, वाजेभिः सुमतिर्नवीयसी
पदार्थ
[१] (मघवा) = वह ऐश्वर्यशाली प्रभु (वीरवत्) = वीर सन्तानों से युक्त (यशः) = यश को (आवंसते) = देते हैं। (समिद्धः) = हृदय में समिद्ध [ प्रकाशित] हुए हुए ये प्रभु (द्युम्नी) = ज्ञान- ज्योति को प्राप्त करानेवाले होते हैं और (आहुतः) = समन्तात् दानोंवाले होते हैं। [२] (अस्य) = इस प्रभु की (सुमतिः) = कल्याणीमति (नवीयसी) = अतिशयेन स्तुत्य है। यह (नः अच्छा) = हमारे प्रति (वाजेभिः) = शक्तियों के साथ (कुवित् आगमत्) = खूब ही प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे हृदयों में प्रकाशित होते हुए प्रभु हमारे लिये ज्ञान ज्योति को दें। वीर सन्तानों से युक्त यश को प्राप्त करायें। और शक्तियों के साथ स्तुत्य सुमति को दें।
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