ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 12
मा नो॑ हृणीता॒मति॑थि॒र्वसु॑र॒ग्निः पु॑रुप्रश॒स्त ए॒षः । यः सु॒होता॑ स्वध्व॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । ह॒णी॒ता॒म् । अति॑थिः । वसुः॑ । अ॒ग्निः । पु॒रु॒ऽप्र॒श॒स्तः । ए॒षः । यः । सु॒ऽहोता॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो हृणीतामतिथिर्वसुरग्निः पुरुप्रशस्त एषः । यः सुहोता स्वध्वरः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । नः । हणीताम् । अतिथिः । वसुः । अग्निः । पुरुऽप्रशस्तः । एषः । यः । सुऽहोता । सुऽअध्वरः ॥ ८.१०३.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
May this Agni, welcome as a venerable visitor, shelter home of the world, universally adored who is the noble giver and generous high priest of cosmic yajna, never feel displeased with us, may the lord give us fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
बोधदाता परमेश्वर ज्ञानयज्ञाचा श्रेष्ठ ‘होता’ असतो. तो आपल्याला देतच राहतो; परंतु भक्ताच्या श्रवण, मनन, निदिध्यासन करण्याच्या शक्तीवर ते अवलंबून असते. तो केव्हाही त्याच्या अंत:करणात विराजमान होऊ शकतो. तो जेव्हा येईल तेव्हा त्याचे स्वागत करा. त्याला रुष्ट करता कामा नये. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो (एषः) यह (पुरुप्रशस्तः) बहुविध प्रशंसनीय, (सुहोता) सुष्ठु दाता व आदाता, (स्वध्वरः) इसीलिये उत्तम यज्ञकर्ता है; (वसुः) वास देने वाला (अग्निः) ज्ञान तथा ज्योति स्वरूप प्रभु है उस (अतिथिम्) अतिथिवत् अचानक हमारे अन्तःकरण में समुद्भूत होने वाले को (नः) हम में से कोई भी (मा हृणीथाः ताम्) रुष्ट न करे॥१२॥
भावार्थ
बोध देने वाला प्रभु ज्ञानयज्ञ का श्रेष्ठ 'होता' है, वह हमें देता ही रहता है; परन्तु यह तो भक्त की श्रवण, मनन, निदिध्यासन करने की शक्ति पर आधारित है कि वह कब उसके अन्तःकरण में आ विराजे। वह जब भी आए उसका स्वागत करो। १२॥
विषय
वही सर्वोपास्य है।
भावार्थ
( यः ) जो ( सु-होता ) सुख देने वाला, उत्तम दानी, ( सु अध्वरः ) उत्तम मार्गप्रद, हिंसा से रहित दयालु है, वह ( अतिथिः ) सर्वोपरि पूज्य ( वसुः ) सब में बसा, ( अग्निः ) ज्ञानी, सर्वप्रकाशक, सन्मार्ग में प्रवर्तक है ( एषः ) वह ( पुरु-प्रशस्तः ) बहुत ही स्तुति करने योग्य सर्वश्रेष्ठ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
सुहोता- स्वध्वरः
पदार्थ
[१] वे प्रभु (नः) = हमारे लिये (मा हृणीताम्) = क्रोधवाले न हों, हम प्रभु के कोपभाजन न हों। उस प्रभु के जो (अतिथिः) = हमारे हित के लिये निरन्तर गतिशील हैं, (वसुः) = सब को वसानेवाले हैं और (अग्निः) = अग्रेणी हैं। [२] (एषः) = ये प्रभु (पुरुप्रशस्तः) = अत्यन्त प्रशस्त हैं । (यः सुहोता) = जो प्रभु उत्तम दाता हैं और (स्वध्वरः) = उत्तम हिंसारहित कर्मोंवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के कोपभाजन न हों। प्रभु की तरह ही निरन्तर क्रियाशील बनें, सब को बसानेवाले हों, आगे बढ़ें, प्रशस्त कर्मों को करें, दानशील व यज्ञशील हों।
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