ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 6
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराडार्चीबृहती
स्वरः - मध्यमः
यो विश्वा॒ दय॑ते॒ वसु॒ होता॑ म॒न्द्रो जना॑नाम् । मधो॒र्न पात्रा॑ प्रथ॒मान्य॑स्मै॒ प्र स्तोमा॑ यन्त्य॒ग्नये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयः । विश्वा॑ । दय॑ते । वसु॑ । होता॑ । म॒न्द्रः । जना॑नाम् । मधोः॑ । न । पात्रा॑ । प्र॒ऽथ॒मानि॑ । अ॒स्मै॒ । प्र । स्तोमाः॑ । य॒न्ति॒ । अ॒ग्नये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो विश्वा दयते वसु होता मन्द्रो जनानाम् । मधोर्न पात्रा प्रथमान्यस्मै प्र स्तोमा यन्त्यग्नये ॥
स्वर रहित पद पाठयः । विश्वा । दयते । वसु । होता । मन्द्रः । जनानाम् । मधोः । न । पात्रा । प्रऽथमानि । अस्मै । प्र । स्तोमाः । यन्ति । अग्नये ॥ ८.१०३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Like bowls of honey let our prime songs of adoration reach this Agni who, blissful high priest of existence, gives all the wealths and joys of the world to humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरच मूळ ज्ञानी आहे. त्याच्या गुणगाणाने उपासकही दानशील बनतो. ही दानशीलता त्याच्या ऐश्वर्याचे कारण बनते. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो प्रभु (वसु होता) ऐश्वर्यदाता है (विश्वाः दयते) सबका पालक है और इस प्रकार (जनानाम्) मनुष्यों का (मन्द्रः) सुखकारी है (अस्मै) उस (अग्नये) ज्योतिः स्वरूप परमेश्वर को ही (मधोः पात्र न) मधु से मेरे पात्रों की भाँति मधुरतापूर्ण हमारी (प्रथमानि स्तोमा) पहली स्तुतियाँ मिलें॥६॥
भावार्थ
परमेश्वर ही वास्तविक दानी है। उसके गुणगान द्वारा ही उपासक दानशील बनता है-यह दानशीलता उसके ऐवर्य का कारण होती है॥६॥
विषय
भक्तों पर प्रभु की कृपा।
भावार्थ
( यः ) जो ( विश्वा वसु दयते ) समस्त जीव गणों की रक्षा करता है, जो समस्त प्राणिसमूह पर दया कृपा करता, और उन को समस्त ऐश्वर्य प्रदान करता है। वह ( होता ) सब से बड़ा दानी, ( जनानां आनन्दः ) उत्पन्न जनों को आनन्द देने वाला है। ( अस्मै अग्नये ) उस ज्ञानमय, पूज्य के लिये ( मधोः पात्रा न प्रथमानि ) अन्न जल या मधुर पदार्थ से पूर्ण पात्रों के समान सर्वश्रेष्ठ ( स्तोमाः प्रयन्ति ) उत्तम स्तुति, मन्त्र बड़े आदर पूर्वक हृदय से बाहर आते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
स्तोमरूप मधुपर्क द्वारा प्रभु का आतिथ्य
पदार्थ
[१] (यः) = जो (विश्वा वसु) = सब धनों का (दयते) = रक्षण करता है और होता हमारे लिये आवश्यक धनों को देता है। वे प्रभु (जनानां मन्द्रः) = लोगों के आनन्द का कारण हैं, सब उपासकों को आनन्द को प्राप्त करानेवाले हैं। [२] (अस्मै) = इस (अग्नये) = अग्रेणी प्रभु के लिये (मधोः प्रथमा पात्रा न) = मधु के मुख्य पात्रों की तरह जैसे एक अतिथि के लिये सर्वप्रथम मधुपर्क प्राप्त कराया जाता है, (स्तोमा:) = स्तुति समूह (प्रयन्तु) = प्रकर्षेण प्राप्त हों। इन स्तोमों के द्वारा ही हम प्रभु को मधुपर्क प्राप्त कराते हुए अतिथिवत् आदृत करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सम्पूर्ण धनों के स्वामी व दाता हैं, वे ही सब आनन्दों की खान हैं। हम स्तुति समूह रूप मधुपर्क द्वारा प्रभु का आतिथ्य करें।
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