ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 4
प्र यं रा॒ये निनी॑षसि॒ मर्तो॒ यस्ते॑ वसो॒ दाश॑त् । स वी॒रं ध॑त्ते अग्न उक्थशं॒सिनं॒ त्मना॑ सहस्रपो॒षिण॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यम् । रा॒ये । निनी॑षसि । मर्तः॑ । यः । ते॒ । व॒सो॒ इति॑ । दाश॑त् । सः । वी॒रम् । ध॒त्ते॒ । अ॒ग्ने॒ । उ॒क्थ॒ऽशं॒सिन॑म् । त्मना॑ । स॒ह॒स्र॒ऽपो॒षिण॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यं राये निनीषसि मर्तो यस्ते वसो दाशत् । स वीरं धत्ते अग्न उक्थशंसिनं त्मना सहस्रपोषिणम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यम् । राये । निनीषसि । मर्तः । यः । ते । वसो इति । दाशत् । सः । वीरम् । धत्ते । अग्ने । उक्थऽशंसिनम् । त्मना । सहस्रऽपोषिणम् ॥ ८.१०३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Giver of light, wealth and power of life, Agni, the mortal who offers to serve you with self-surrender and gives in charity and whom you lead on the path of prosperity and rectitude is blest with progeny celebrated in song for his thousandfold generosity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्वांना वसवितो - ऐश्वर्यप्राप्तीचा मार्ग तोच दर्शवितो. वीर संतानही त्याच्याच कृपेने प्राप्त होते. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वसो) [अपने द्वारा प्रदत्त वल, विज्ञान, धन आदि से] बसाने वाले प्रभो! (यः मर्तः) जो मरणशील जन (ते) आप को (दाशत्) आत्मसमर्पण करता है तथा आप (राये) ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु (यं निनीषसि) जिसका पथ प्रदर्शित करते हैं; हे (अग्ने-ज्योतिः) स्वरूप! सः वह उपासक (उक्थशंसिनम्) वेदवचनों के वक्ता, (सहस्रपोषिणम्) सहस्रों के पोषक (वीरम्) वीर पुत्र को (धत्ते) पाता है॥४॥
भावार्थ
प्रभु सब को बसाता है--ऐश्वर्य-प्राप्ति का मार्ग भी दर्शाता है--वीर सन्तान भी उसी की कृपा से मिलती है॥४॥
विषय
भक्तों पर प्रभु की कृपा।
भावार्थ
हे ( वसो ) सब जगत् के रक्षक, आच्छादक, सब में बसने वाले सर्वव्यापक ! ( यं ) जिस को तू ( राये निनीषसि ) ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये सन्मार्ग से ले जाता है, और ( यः मर्त्तः ते दाशत् ) जो देहधारी मरणशील जीव अपने को तुझे सौंप देता है, हे (अग्ने ) सर्वज्ञ ! सब के अग्रनायक ! मार्गप्रकाशक ज्योतिर्मय ! ( सः ) वह ( त्मना ) अपने आप, ( उक्थ-शंसिनम् ) उत्तम वेद वचनों के वक्ता (सहस्र-पोषिणं ) सहस्रों के पोषक ( वीरं ) वीर पुत्र, एवं विविध विद्योपदेष्टा, तुम को ( धत्ते ) अपने हृदय से धारण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
'उक्थशंसी-सहस्त्रपोषी ' सन्तान
पदार्थ
[१] हे (वसो) = वसानेवाले, सब वसुओं के स्वामिन् प्रभो ! (यम्) = जिस पुरुष को (राये निनीषसि) = आप ऐश्वर्य के लिये ले चलना चाहते हैं और (यः) = जो (ते) = आपके प्रति (दाशत्) = अपने को दे डालता है, (सः) = वह (वीरं धत्ते) = वीर सन्तानों को प्राप्त करता है। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन्! इस, आप से ऐश्वर्य को प्राप्त करके [ आपके प्रति अपना यज्ञशील] पुरुष को अर्पण करनेवाले वह सन्तान प्राप्त होती है, जो (उक्थशंसिनम्) = प्रभु के स्तोत्रों का शंसन करनेवाली होती है। और (त्मना) = स्वयं (सहस्त्रपोषिणम्) = सहस्रों का पोषण करनेवाली होती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु से ऐश्वर्यों को प्राप्त करके प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले यज्ञशील बनें। प्रभु कृपा से हमें प्रभु-स्तवन करनेवाला सहस्रों का पोषण करनेवाला वीर सन्तान प्राप्त होगी ।
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