ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 15/ मन्त्र 10
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
त्वं वृषा॒ जना॑नां॒ मंहि॑ष्ठ इन्द्र जज्ञिषे । स॒त्रा विश्वा॑ स्वप॒त्यानि॑ दधिषे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । वृषा॑ । जना॑नाम् । मंहि॑ष्ठः । इ॒न्द्र॒ । ज॒ज्ञि॒षे॒ । स॒त्रा । विश्वा॑ । सु॒ऽअ॒प॒त्यानि॑ । द॒धि॒षे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं वृषा जनानां मंहिष्ठ इन्द्र जज्ञिषे । सत्रा विश्वा स्वपत्यानि दधिषे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । वृषा । जनानाम् । मंहिष्ठः । इन्द्र । जज्ञिषे । सत्रा । विश्वा । सुऽअपत्यानि । दधिषे ॥ ८.१५.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 15; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वम्, वृषा) त्वं सर्वकामानां वर्षिता (जनानाम्, मंहिष्ठः) उपासकेभ्यो दातृतमः अतः (जज्ञिषे) प्रादुर्भाव्यसे (विश्वा, स्वपत्यानि) सर्वाण्यपत्यभूतानि भूतानि (सत्रा, दधिषे) सहैव दधासि ॥१०॥
विषयः
इन्द्रस्य स्तुतिं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! जनानाम्=अस्माकं मध्ये । त्वमेव । वृषा=निखिलकामानां वर्षिता । दातेत्यर्थः । पुनः । त्वं मंहिष्ठः=पूज्यतम एव दातृतमो वा । जज्ञिषे=विद्यसे । मनुष्यमध्ये त्वमेक एव पूज्योऽसि । तथा । सत्रा=सह । विश्वा=सर्वाणि । स्वपत्यानि=शोभनानि अपत्यादीन्यैश्वर्याणि । दधिषे=धारयसि ॥१० ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वम्) आप (वृषा) सब कामनाओं की वर्षा करनेवाले हैं (जनानाम्, मंहिष्ठः) उपासकों के लिये अत्यन्त दानी हैं, अतएव (जज्ञिषे) प्रादुर्भूत किये जाते हैं (विश्वा, स्वपत्यानि) सब शोभन अपत्यभूत प्राणियों को (सत्रा, दधिषे) साथ ही धारण करते हैं ॥१०॥
भावार्थ
हे सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले प्रभो ! आप अपने उपासकों को सब प्रकार के पदार्थों का दान देकर उन्हें सन्तुष्ट करते हैं और आप ही सब प्राणियों को धारण कर उनका पालन, पोषण तथा रक्षण करते हैं, जिससे आपकी महिमा सब पर प्रकट हो रही है ॥१०॥
विषय
इन्द्र की स्तुति दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (जनानाम्) हम मनुष्यों के मध्य (त्वम्) तू ही (वृषा) निखिल कामों का दाता है और तू ही (मंहिष्ठः+जज्ञिषे) परमोदार दाता है । तथा (सत्रा) साथ ही (विश्वा) समस्त (स्वपत्यानि) अपत्य धनधान्य ऐश्वर्य को (दधिषे) धारण करनेवाला है ॥१० ॥
भावार्थ
उस इन्द्र को परमोदार समझकर उपासना करे ॥१० ॥
विषय
उत्पादक, पालक प्रभु।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यशालिन् ! सूर्यवत् तेजस्विन् ! ( त्वं ) तू ( जनानां ) मनुष्यों के बीच में ( वृषा ) बलवान् वीर्यसेचक के तुल्य सबका पिता, सुखों का दाता और ( मंहिष्ठः ) सबसे पूज्य, सबसे बड़ा दानी होकर ( जज्ञिषे ) समस्त जगत् को उत्पन्न करता है। ( सत्रा ) साथ ही वा सदा तू ( विश्वा ) समस्त जीवों और लोकों को ( सु-अपव्यानि ) उत्तम सन्तानों के समान ( दधिषे ) उनको धारता, अपनी गोद में शरण में लेता और उनको अन्नादि से पालता है। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ऋषी। इन्द्रो देवता। छन्द्रः—१—३, ५—७, ११, १३ निचृदुष्णिक्। ४ उष्णिक्। ८, १२ विराडुष्णिक्। ९, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वृषा- मंहिष्ठः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (जनानाम्) = इन उपासक लोगों के (वृषा) = सुखों का वर्षण करनेवाले व (मंहिष्ठ:) = दातृतम, सब आवश्यक ऐश्वर्यों के देनेवाले (जज्ञिषे) = होते हैं। (सत्रा) = एकदम इकट्ठे हो, (विश्वा) = सब (स्वपत्यानि) = शोभन अपतन की हेतुभूत चीजों को (दधिषे) = धारण करते हैं। हम प्रभु का उपासन करते हैं, तो प्रभु हमें उन सब पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, जो हमारे अपतन का कारण बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सुखों के वर्षक हैं, दातृतम हैं, सब अपतन साधक वस्तुओं का धारण करानेवाले हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Most generous and omnificent Indra, in the heart of humanity you arise as the greatest and highest paternal power and presence who sustain the worlds of existence as your darling children all together as one family.
मराठी (1)
भावार्थ
त्या इन्द्राला परम उदार समजून उपासना करा. ॥१०॥
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