ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 15/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
तव॒ त्यदि॑न्द्रि॒यं बृ॒हत्तव॒ शुष्म॑मु॒त क्रतु॑म् । वज्रं॑ शिशाति धि॒षणा॒ वरे॑ण्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । त्यत् । इ॒न्द्रि॒यम् । बृ॒हत् । तव॑ । शुष्म॑म् । उ॒त । क्रतु॑म् । वज्र॑म् । शि॒शा॒ति॒ । धि॒षणा॑ । वरे॑ण्यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्यदिन्द्रियं बृहत्तव शुष्ममुत क्रतुम् । वज्रं शिशाति धिषणा वरेण्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठतव । त्यत् । इन्द्रियम् । बृहत् । तव । शुष्मम् । उत । क्रतुम् । वज्रम् । शिशाति । धिषणा । वरेण्यम् ॥ ८.१५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 15; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(त्यत्, तव, इन्द्रियम्, बृहत्) तत्ते महदैश्वर्यम् (तव, शुष्मम्) तव बलं च (उत) अथ (क्रतुम्) कर्म च (वरेण्यम्, वज्रम्) भजनीयं शस्त्रं च (धिषणा) द्यावापृथिवीरूपा प्रकृति (शिशाति) तीक्ष्णीकरोति। शो तनूकरणे ॥७॥
विषयः
इन्द्रगुणाः स्तूयन्ते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! धिषणा=अस्मदीया धीः । तव त्यत्प्रसिद्धम् । इन्द्रियम्=इन्द्रस्य चिह्नभूतम्=बृहत्प्रभूतं वीर्य्यम् । शुष्मम्=बलम् । उत=अपि च । क्रतुम्=कर्मसृष्टिपालनादि । अपि च । वरेण्यम्=वरणीयम्=सर्वैः स्वीकरणीयम् । वज्रम्=शासनदण्डम् । शिशाति=गायति=दर्शयतीत्यर्थः ॥७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(त्यत्, तव, इन्द्रियम्, बृहत्) उस आपके महान् ऐश्वर्य्य को (तव, शुष्मम्) उस आपके शत्रुशोषण बल को (उत) और (क्रतुम्) कर्म को (वरेण्यम्, वज्रम्) भजनीय वज्रशस्त्र को (धिषणा) द्यावापृथिवीरूप प्रकृति (शिशाति) तीक्ष्ण=प्रकाश्य बनाती है ॥७॥
भावार्थ
हे परमात्मन् ! आपके महान् ऐश्वर्य्य, बल, कर्म और आपके वज्ररूप शस्त्र को यह द्युलोक और पृथिवीलोक प्रकाशित कर रहे हैं अर्थात् आपसे रचित इन प्रकृतिस्थ पदार्थों को अवलोकन कर कौन आपकी महत्ता को अनुभव नहीं करता अर्थात् सभी अनुभव कर रहे हैं ॥७॥
विषय
इन्द्र के गुणों की स्तुति करते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! (धिषणा) हम लोगों की विवेकवती बुद्धि (तव) तेरे (त्यत्) उस सुप्रसिद्ध (इन्द्रियम्) वीर्य्य को (तव) तेरे (बृहत्) महान् (शुष्मम्) बल को (उत) और (क्रतुम्) सृष्ट्यादि पालनरूप कर्म को तथा (वरेण्यम्) स्वीकरणीय (वज्रम्) दण्ड को (शिशाति) गाती है ॥७ ॥
भावार्थ
हमारे सब ही कर्म उसी को विभूतियाँ दिखलावें । यह इसका आशय है ॥७ ॥
विषय
बुद्धिमय प्रभु का बल, ऐश्वर्य और ज्ञान।
भावार्थ
हे प्रभो ! राजन् ! ( तव ) तेरे ( त्यत् इन्द्रियम् ) उस इन्द्रिय अर्थात् महान् ऐश्वर्य सामर्थ्य को और ( तब ) तेरे उस ( बृहत् शुष्मम् ) बड़े भारी बल और ( क्रतुम् ) ज्ञान और कर्म को और तेरे ( वरेण्यम् वज्रम् ) सर्वश्रेष्ठ, वरण करने योग्य बल को ( घिषणा ) बुद्धि वा ज्ञान ही ( शिशाति ) अति तीक्ष्ण कर रहा है, प्रबलता से दिखाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ऋषी। इन्द्रो देवता। छन्द्रः—१—३, ५—७, ११, १३ निचृदुष्णिक्। ४ उष्णिक्। ८, १२ विराडुष्णिक्। ९, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
शुष्म-क्रतु-वज्र-इन्द्रिय
पदार्थ
[१] हे उपासक! (धिषणा) = यह स्तुति (तव) = तेरी (त्यत्) = उस (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति को (शिशाति) = तीक्ष्ण करती है । (उत) = और यह स्तुति (तव) = तेरे (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (शुष्मम्) = शत्रु-शोषक बल को और (क्रतुम्) = प्रज्ञान को बढ़ाती है। [२] इन्द्रियशक्ति, शत्रु-शोषक बल व अज्ञान का वर्धन करती हुई यह स्तुति (वरेण्यम्) = वरणीय, चाहने योग्य (वज्रम्) = क्रियाशीलता को बढ़ानेवाली होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन से हमारा जीवन 'शक्ति-प्रज्ञान व क्रियाशीलता' वाला होता है। यह स्तुति हमारी इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन करती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
That grandeur and majesty of yours, that power and potential, that continuous act of divine generosity, that adamantine will and force of natural justice and dispensation of the thunderbolt which overwhelms our will and choice commands our sense of discrimination, and we glorify it, we sharpen it, we accept it with adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
याचा आशय असा आहे की, आमच्या सर्व कर्माद्वारे त्याच्याच विभूतीचे दर्शन घडावे. ॥७॥
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