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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    येन॒ ज्योतीं॑ष्या॒यवे॒ मन॑वे च वि॒वेदि॑थ । म॒न्दा॒नो अ॒स्य ब॒र्हिषो॒ वि रा॑जसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । ज्योतीं॑षि । आ॒यवे॑ । मन॑वे । च॒ । वि॒वेदि॑थ । म॒न्दा॒नः । अ॒स्य । ब॒र्हिषः॑ । वि । रा॒ज॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन ज्योतींष्यायवे मनवे च विवेदिथ । मन्दानो अस्य बर्हिषो वि राजसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । ज्योतींषि । आयवे । मनवे । च । विवेदिथ । मन्दानः । अस्य । बर्हिषः । वि । राजसि ॥ ८.१५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (येन) येन बलेन (आयवे) कर्मप्राप्त्यै (मनवे) ज्ञानलाभाय च (ज्योतींषि) स्वदिव्यशक्तीः (विवेदिथ) लम्भयसि (अस्य, बर्हिषः) अस्योपासकस्य हृदयासने (मन्दानः) आनन्दयन् (विराजसि) शोभसे ॥५॥

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    विषयः

    इन्द्रस्तुतिं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे परमदेव ! येन=आनन्देन सह विद्यमानस्त्वम् । आयवे=आयाति मातृगर्भं प्राप्नोति यः स आयुर्मातृगर्भनिवासी । तस्मै । मनवे=मननकर्त्रे जीवात्मने च । ज्योतींषि=बहुप्रकाशान् विज्ञानलक्षणान् । विवेदिथ=प्रकाशयसि । एवम् मन्दानः= आनन्दमयस्त्वम् । अस्य+बर्हिषः=प्रवृद्धस्य संसारस्य मध्य एव । वि+राजसि=विशेषेण शोभसे । स त्वं न दूरदेशे वर्तसे किन्तु सर्वगोऽसि ॥५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (येन) जिस बल से (आयवे) कर्मप्राप्ति के लिये (मनवे) तथा ज्ञान के लिये (ज्योतींषि) विविध दिव्यशक्तियों को (विवेदिथ) प्राप्त कराते हैं और (अस्य, बर्हिषः) इस उपासक के हृदयासन में (मन्दानः) आह्लाद उत्पन्न करते हुए (विराजसि) शोभित होते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! जिस बल से ज्ञान तथा कर्मों की उन्नति करते हुए अनेक दिव्यशक्तिसम्पन्न होकर ऐश्वर्य्यसम्पन्न होते हैं और जिस बल से उपासक लोग आपको अपने हृदय में धारण कर आह्लादित होते हैं, उसी बल की हम आपसे याचना करते हैं ॥५॥

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    विषय

    परमदेव की स्तुति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे परमदेव ! (येन) जिस आनन्द से युक्त होकर आप (आयवे) मातृगर्भ में वारंवार आनेवाले (मनवे) मननकर्ता जीवात्मा के लिये (ज्योतींषि) बहुत प्रकाश (विवेदिथ) देते हैं । हे भगवन् ! (मन्दानः) वह आनन्दमय आप (अस्य+बर्हिषः) इस प्रवृद्ध संसार के मध्य में (वि+राजसि) विराजमान हैं ॥५ ॥

    भावार्थ

    वह इन्द्र हम जीवों को सूर्य्यादिकों और इन्द्रियों के द्वारा भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार की ज्योति दे रहा है, जिनसे हमको बहुत सुख मिलते हैं । तथापि न तो उसको हम जानते और न उसको पूजते । हे मनुष्यों ! यहाँ ही वह विद्यमान है । उसी को जान पूजो, यह आशय है ॥५ ॥

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    विषय

    प्रकाशों का दाता।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! तू ( येन ) जिस संसार द्वारा ( आयवे ) इस संसार में पुन: २ आने वाले (मनवे) मननशील जीव संसार को (ज्योतींषि) अग्नि आदि और विद्युत्वत् चमकने वाले वेदमय ज्ञान-प्रकाश (विवेदिथ ) प्राप्त कराता है वह तू ( मन्दानः ) स्वयं आनन्दमय होकर (अस्य बर्हिषः) इस महान् संसार के बीच में (वि राजसि) विविध प्रकार से चमकता है। इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ऋषी। इन्द्रो देवता। छन्द्रः—१—३, ५—७, ११, १३ निचृदुष्णिक्। ४ उष्णिक्। ८, १२ विराडुष्णिक्। ९, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    आयवे-मनवे

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! गत मन्त्र में वर्णित (येन) = जिस सोमपान जनित मद से (आयवे) = गतिशील व्यक्ति के लिये (च) = और (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (ज्योतींषि) = ज्योतियों को (विवेदिथ) = प्राप्त कराते हैं। (अस्य) = इस (बर्हिषः) = वृद्धि के कारणभूत सोम का (विराजसि) = विशेषरूप से दीपन करते हैं। इस सोम के दीपन से ही (मन्दानः) = आप इन जीवों को आनन्दित करते हैं। [२] सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि हम 'आयु' बनें, गतिशील बनें। तथा 'मनु' विचारशील हों । उत्तम कर्मों में लगे रहना और स्वाध्यायशील होना ही हमें सोमरक्षण के योग्य बनाता है। रक्षित सोम ही सब वृद्धियों का कारण बनता है। यही जीवन में आनन्द का भी हेतु बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम गतिशील व विचारशील बनकर सोम का रक्षण करें। यह सुरक्षित सोम वृद्धि व आनन्द का कारण बनेगा ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We celebrate and adore that power and divine joy of yours by which you reveal the light of life to the mortals from generation to generation and, exalted by which, you shine and rule over the yajnic dynamics of this universe.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तो इन्द्र आम्हा जीवांना सूर्य इत्यादी व इन्द्रियांद्वारे भौतिक व अभौतिक दोन्ही प्रकारची ज्योती देत आहे. ज्यामुळे आम्हाला खूप सुख मिळते. तरीही त्याला आम्ही जाणत नाही किंवा पूजन करत नाही. हे माणसांनो, येथेही तो विद्यमान आहे. त्यालाच जाणून पूजा करा हाच आशय आहे. ॥५॥

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