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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे । इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रव॒स्या॑ च॒ यन्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । रा॒ज॒सि॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एकः॑ । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ । इन्द्र॑ । जैत्रा॑ । श्र॒व॒स्या॑ । च॒ । यन्त॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स राजसि पुरुष्टुतँ एको वृत्राणि जिघ्नसे । इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । राजसि । पुरुऽस्तुत । एकः । वृत्राणि । जिघ्नसे । इन्द्र । जैत्रा । श्रवस्या । च । यन्तवे ॥ ८.१५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् (पुरुष्टुत) सर्वैर्ज्ञानिभिः स्तुत ! (सः, राजसि) स त्वं दीप्यसे यः (जैत्रा, श्रवस्या, च) जेतव्यधनानि यशोऽर्हपदार्थांश्च (यन्तवे) प्राप्तुं (एकः) केवल एव (वृत्राणि) अज्ञानानि (जिघ्नसे) निहंसि ॥३॥

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    विषयः

    परमात्मनः स्तुतिः दर्श्यते ।

    पदार्थः

    हे पुरुष्टुत=सर्वस्तुत=सर्वपूज्य परमात्मन् ! सः=परमप्रसिद्धस्त्वम् । राजसि=सर्वत्र प्रकृतिमध्ये शोभसे । यद्वा । सर्वान् पदार्थान् शासि । अपि च । इन्द्र त्वम् । एकः=एक एव । असहायः=केवल एक एव । वृत्राणि=संसारोत्थानि सर्वाणि आवरकाणि=विघ्नोत्पादकानि वस्तूनि । जिघ्नसे=हंसि= विनाशयसि । हे इन्द्र ! जैत्रा=जैत्राणि जेतव्यानि । च पुनः । श्रवस्या=श्रवस्यानि=श्रोतव्यानि सर्वाणि वस्तूनि च । यन्तवे=यन्तुं नियन्तुम्=स्ववशे कर्त्तुम् । सर्वान् विघ्नान् हंसीति परामर्शः ॥३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् (पुरुष्टुत) सब ज्ञानियों से स्तुत ! आप (सः, राजसि) वह विराजमान हो रहे हैं, जो (जैत्रा, श्रवस्या, च) जेतव्य और यश योग्य पदार्थों की (यन्तवे) प्राप्ति कराने के लिये (एकः) केवल असहाय ही (वृत्राणि) सब अज्ञानों को (जिघ्नसे) नष्ट कर देते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि अन्योपासना से उस परमात्मा की उपासना में यह विशेषता है कि अन्य साधारण मनुष्य आदि की उपासना किसी एक तुच्छ कार्य्य की सिद्धि करा सकती है और परमात्मोपासना ऐसे दिव्यज्ञान को उत्पन्न करती है, जिससे मनुष्य साधारण अभीष्ट को ही नहीं, किन्तु बड़े-२ लौकिक तथा पारलौकिक अभीष्टों को सिद्ध करने में समर्थ होता है, जो अभीष्ट सन्मार्ग द्वारा सिद्ध होकर उसके पवित्र यश को बढ़ाते हैं, अतएव वही सर्वोपरि उपासनीय है ॥३॥

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    विषय

    परमात्मा की स्तुति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (पुरुष्टुत) हे सर्वस्तुत ! सर्वपूज्य परमदेव ! (सः) परमप्रसिद्ध वह तू (राजसि) प्रकृतिमध्य शोभित हो रहा है और सर्ववस्तु का शासन कर रहा है और (एकः) असहाय केवल एक ही तू (वृत्राणि) संसार के निखिल विघ्नों को विनष्ट करता है । हे (इन्द्र) इन्द्र ! (जैत्रा) जेतव्य (च) और (श्रवस्या) श्रोतव्य सकल पदार्थों के (यन्तवे) अपने वश में रखने के लिये तू सर्वदा निःशेष विघ्नों को विनष्ट किया करता है । हे भगवन् धन्य तू और धन्य तेरी शक्ति ॥३ ॥

    भावार्थ

    इन्द्र ही सर्वविघ्नविनाशक होने से पूज्य है, इसको निश्चय करो ॥३ ॥

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    विषय

    जगत् का एक अद्वितीय शासक।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे सूर्यवत् तेजस्विन् ! ( सः ) वह तू ( पुरु-स्तुतः ) बहुतों से प्रशंसित, बहुतों की स्तुति प्रार्थनादि किये जाने योग्य ( एकः ) अकेला निःसहाय, अद्वितीय रहकर ( राजसि ) राजा के समान है। वह तू ( एकः ) अकेला ही ( जैत्रा ) विजय करने योग्य और ( श्रवस्या ) श्रवण करने योग्य धनों, अन्नों और ज्ञानों को ( यन्तवे ) देने के लिये ( वृत्राणि जिघ्नसे) मेघों को विद्युत्वत्, आवरणकारी अज्ञानों को नाश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ऋषी। इन्द्रो देवता। छन्द्रः—१—३, ५—७, ११, १३ निचृदुष्णिक्। ४ उष्णिक्। ८, १२ विराडुष्णिक्। ९, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विजयी बल, श्रवणीय ज्ञान

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुष्टुत) = बहुतों से स्तुत प्रभो ! (सः) = वे आप (राजसि) = सारे ब्रह्माण्ड के शासक हैं। (एक:) = बिना किसी अन्य की सहायता के अकेले ही (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (जिघ्नसे) = नष्ट करते हैं । [२] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप वासनाओं को विनष्ट करके हमारे लिये (जैत्रा) = विजय के साधनभूत बलों को (च) = तथा (श्रवस्या) = श्रवणीय ज्ञानों को (यन्तवे) = देने के लिये होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हमारे लिये जैत्र बल व श्रवणीय ज्ञान को प्राप्त कराते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, universally praised and celebrated, you rule and shine alone, one, unique, without an equal, to destroy darkness, ignorance and adversities, to control and contain what is won and to manage what is heard and what ought to be heard.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    इन्द्रच सर्व विघ्नविनाशक असल्याने पूज्य आहे हे निश्चयाने जाणा. ॥३॥

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