ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
तं ते॒ मदं॑ गृणीमसि॒ वृष॑णं पृ॒त्सु सा॑स॒हिम् । उ॒ लो॒क॒कृ॒त्नुम॑द्रिवो हरि॒श्रिय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ते॒ । मद॑म् । गृ॒णी॒म॒सि॒ । वृष॑णम् । पृ॒त्ऽसु । स॒स॒हिम् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒क॒ऽकृ॒त्नुम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । ह॒रि॒ऽश्रिय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं ते मदं गृणीमसि वृषणं पृत्सु सासहिम् । उ लोककृत्नुमद्रिवो हरिश्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ते । मदम् । गृणीमसि । वृषणम् । पृत्ऽसु । ससहिम् । ऊँ इति । लोकऽकृत्नुम् । अद्रिऽवः । हरिऽश्रियम् ॥ ८.१५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अद्रिवः) हे वज्रशक्तिक ! (वृषणम्) वर्षुकम् (पृत्सु) पृतनासु (सासहिम्) सोढारम् (उ) अथ (लोककृत्नुम्) लोकनिर्मातारम् (हरिश्रियम्) लोकस्य पापस्य शत्रोर्वा हरणशीलशक्त्या शोभमानम् (तत्) तादृशम् (ते) तव (मदम्) मदकरं बलम् (गृणीमसि) भजामः ॥४॥
विषयः
इन्द्रस्य प्रार्थनां दर्शयति ।
पदार्थः
हे अद्रिवः ! हे जगच्छासनाय दण्डधारिन् महेश ! ते=तव । तम्=सुप्रसिद्धम् । मदम्=संसारव्यापिनमानन्दम् । वयं गृणीमसि=गृणीमः=स्तुमः । गॄ शब्दे प्वादीनां ह्रस्वः । इदन्तो मसीति मस इकारागमः । कीदृशम् । वृषणम्=निखिलकामानां वर्षितारम्=प्रदातारम् । पुनः । पृत्सु=आध्यात्मिकमहासंग्रामेषु । सासहिम्=सहनशीलम् । ईश्वरीयानन्दे निमग्नो जन आपद्यपि न विमुह्यति । पुनः । उ=निश्चयेन । लोककृत्नुम्=सर्वेषां भूमिप्रभृतिलोकानां कर्त्तारम् । आनन्दितः सन्नेवेश्वरः सृष्टिं करोति । लोकेऽपि आनन्दाऽऽप्लावितौ दम्पती अपत्यं सृजतः । पुनः । हरिश्रियम्=हर्य्योः स्थावरजङ्गमयोः संसारयोर्भूषयितारम् । ईदृशमानन्दं वयं स्तुमः ॥४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अद्रिवः) हे वज्रशक्तिवाले ! (वृषणम्) कामनाओं की वर्षा करनेवाले (पृत्सु, सासहिम्) युद्धों में शत्रु का अभिभव करनेवाले (उ) और (लोककृत्नुम्) लोकनिर्माण करनेवाले (हरिश्रियम्) लोक, पाप वा शत्रु की हरणशील शक्ति से शोभित (तत्, ते, मदम्) उस आपके आह्लादक बल का (गृणीमसि) भजन करते हैं ॥४॥
भावार्थ
हे अतुलबल तथा वज्रशक्तिवाले परमेश्वर ! आप ही सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले और आप ही उस आह्लादक बल को देनेवाले हैं, जिसको प्राप्त कर मनुष्य उन्नत होता है। हे प्रभो ! हम उस आह्लादक आत्मिक बल के लिये आपसे प्रार्थना करते हैं कि हमें बलवान् करो, ताकि हम उन्नत होकर मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त हों ॥४॥
विषय
इन्द्र की प्रार्थना दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(अद्रिवः) हे जगत् शासनार्थ दण्डधारी महेश (ते) तेरे (तम्) उस (मदम्) आनन्द की (गृणीमसि) हम मनुष्य स्तुति करते हैं, जो आनन्द (वृषणम्) समस्त सुखों की वर्षा करनेवाला है । पुनः (पृत्सु) आध्यात्मिक संग्राम में (सासहिम्) सहनशील हो । ईश्वरीयानन्द में निमग्न पुरुष आपत्काल में भी मोहित नहीं होते हैं । पुनः (उ) निश्चयरूप से (लोककृत्नुम्) पृथिव्यादि समस्त लोकों का कर्त्ता है । क्योंकि ईश्वर आनन्द में आकर ही सृष्टि करता है । लोक में भी देखा जाता है कि आनन्द से आप्लावित होकर ही स्त्री-पुरुष सन्तान उत्पन्न करते हैं । पुनः जो (हरिश्रियम्) स्थावर जङ्गम संसारों को भूषित करने वाला है, ऐसे आनन्द की स्तुति हम सब करते हैं । हे ईश ! हम सदा आपके आश्रय से आनन्दमय होवें, यह प्रार्थना आपके निकट है ॥४ ॥
भावार्थ
परमात्मा सदा पदार्थों के ऊपर आनन्दवृष्टि कर रहा है । तथापि सब आनन्दित नहीं हैं, यह आश्चर्य है । हे मनुष्यों ! इस जगत् से उस आनन्द को निकाल धारण करने के लिये प्रयत्न करो ॥४ ॥
विषय
सर्वशक्तिमान् जगत् कर्त्ता।
भावार्थ
हे (अद्रिवः ) वीर्यवन् ! हे अखण्ड शक्तिशालिन् ! ( ते ) तेरे ( तं ) उस ( वृषणं ) महान् शक्तिसम्पन्न, सब सुखों के दाता, ( पृत्सु सासहिं ) संग्रामों में शत्रु को पराजय करने वाले ( लोक-कृत्नुम् ) समस्त लोकों को बनाने वाले और ( हरि-श्रियम् ) सूर्यादि लोकों और समस्त मनुष्यों के आश्रय लेने योग्य ( मदं ) परमानन्द की हम (गृणीमसि) स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ऋषी। इन्द्रो देवता। छन्द्रः—१—३, ५—७, ११, १३ निचृदुष्णिक्। ४ उष्णिक्। ८, १२ विराडुष्णिक्। ९, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'लोककृत्नु - हरिश्रि' मद
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (तम्) = उस (ते) = आपके द्वारा जिसकी व्यवस्था की गई है, उस सोम के रक्षण से उत्पन्न (मदम्) = उल्लास की (गृणीमसि) = हम प्रशंसा करते हैं। यह मद (वृषणम्) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला है (पृत्सु) = संग्रामों में (सासहिम्) = शत्रुओं का पराभव करनेवाला है। [२] (उ) = और निश्चय से (लोककृनुम्) = यह मद हमारे जीवनों में प्रकाश को करनेवाला है। हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! यह मद (हरिश्रियम्) = इन्द्रियों की श्री का कारण होता है। सब इन्द्रियाँ इसी से दीप्ति को प्राप्त करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासन से सोमरक्षण होकर हमें वह उल्लास प्राप्त होता है, जो हमें शक्तिशाली बनाता है, संग्राम में विजयी करता है, प्रकाश को प्राप्त कराता है और इन्द्रियों की श्री को बढ़ाता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of adamantine will and generous disposition like clouds of rain, we celebrate and glorify that power and heavenly joy of yours which is virile and generous, heroic in battles and steadfast against challenges, creative in the worlds of existence and gracious in advancement and gifts of bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सदैव सर्व पदार्थांवर आनंदाची वृष्टी करतो. तरीही सर्व आनंदित नसतात हे आश्चर्य आहे. हे माणसांनो! या जगातून आनंद धारण करण्याचा प्रयत्न करा. ॥४॥
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