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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तद॒द्या चि॑त्त उ॒क्थिनोऽनु॑ ष्टुवन्ति पू॒र्वथा॑ । वृष॑पत्नीर॒पो ज॑या दि॒वेदि॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒द्य । चि॒त् । ते॒ । उ॒क्थिनः॑ । अनु॑ । स्तु॒व॒न्ति॒ । पू॒र्वऽथा॑ । वृष॑ऽपत्नीः । अ॒पः । ज॒य॒ । दि॒वेऽदि॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदद्या चित्त उक्थिनोऽनु ष्टुवन्ति पूर्वथा । वृषपत्नीरपो जया दिवेदिवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । अद्य । चित् । ते । उक्थिनः । अनु । स्तुवन्ति । पूर्वऽथा । वृषऽपत्नीः । अपः । जय । दिवेऽदिवे ॥ ८.१५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (उक्थिनः) विद्वांसः (तत्, ते) तत्ते बलम् (अद्य, चित्) अद्यापि (अनुष्टुवन्ति) प्रशंसन्ति (दिवे, दिवे) प्रतिदिनम् (वृषपत्नीः) वृषा=सर्वकामप्रदः पतिर्यासाम् ताः (अपः) अपः=अपांसि मम कर्माणि (जय) स्वायत्तीकुरु ॥६॥

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    विषयः

    जलाय प्रार्थनां दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! उक्थिनः=विविधोक्तिज्ञाः स्तोत्रविदश्च विद्वांसः । पूर्वथा=पूर्वे पूर्णा इव । यद्वा । पूर्वस्मिन् काल इव । ते=त्वदीयम् । तत्प्रसिद्धम् । बलमिति शेषः । चिदद्य=अद्यापि । अनुष्टुवन्ति । क्रमेण स्तुवन्ति । हे भगवन् स त्वम् । वृषपत्नीः=वृषा वर्षिता मेघः पतिर्यासां तादृशीः । अपः=जलानि । दिवे दिवे=प्रतिदिवसम् । जय=स्वायत्तं कुरु । जलं विना स्थावरा जङ्गमाश्च संसारा व्याकुलीभवन्ति तदर्थं देहि जलम् ॥६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (उक्थिनः) विद्वान् लोग (तत्, ते) उस आपके बल की (अद्य, चित्) अब भी (अनुष्टुवन्ति) प्रशंसा करते हैं (दिवेदिवे) प्रतिदिन आप (वृषपत्नीः) वृषा=सर्वकामनाओं की वर्षा करनेवाले आप ही जिनके पति हैं, ऐसे (अपः) हमारे कर्मों को (जय) अपने अधीन रखें ॥६॥

    भावार्थ

    हे कर्मफलदाता परमात्मन् ! आपके दिये हुए जिस बल को पाकर विद्वान् पुरुष कृतकृत्य हुए प्रशंसा करते हैं, वह बल हमें प्रदान करें। हे प्रभो ! आप ही सब कामनाओं के पूर्ण करनेवाले और आप ही कर्मफलदाता हैं। कृपा करके हमें शुभकर्मों की ओर प्रेरित करें, जिससे हमारे शुभ मनोरथ पूर्ण हों ॥६॥

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    विषय

    जल के लिये प्रार्थना दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (उक्थिनः) विविध भाषाओं के विज्ञाता और स्तोत्रतत्त्वविद् विद्वान् (पूर्वथा) पूर्ण के समान अथवा पूर्वकाल के समान (ते) तेरे (तद्) उस सुप्रसिद्ध बल की (चिद्+अद्य) आज भी (अनुष्टुवन्ति) क्रमशः स्तुति करते हैं । हे भगवन् ! सो तू (वृषपत्नीः) मेघस्वामिक (अपः) जल को (दिवे+दिवे) दिन-२ (जय) अपने आधीन कर । जल के विना स्थावर और जङ्गम दोनों संसार व्याकुल हो जाते हैं । तदर्थ जल दे ॥६ ॥

    भावार्थ

    हे भगवन् ! तू ही सबसे स्तुत्य है । वह तू जब-२ जल की आवश्यकता हो, तब-२ जल दिया कर, जिससे सब ही पदार्थ प्राणवान् होते हैं ॥६ ॥

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    विषय

    प्रकाशों का दाता।

    भावार्थ

    ( तत् ) वे विद्वान् जन ( अद्य चित् ) आज भी ( पूर्वथा ) पूर्ववत् ( उक्थिनः ) वेद वचन वा मन्त्रों के जानने वाले ( ते ) तेरे यश का ( अनु स्तुवन्ति ) नित्य स्तवन करते हैं। हे बलशालिन् ! ( दिवे दिवे) प्रति दिन, नित्य, ( वृषपत्नी: ) बलवान् पुरुषों द्वारा पालने योग्य ( अपः ) प्रकृति के परमाणुओं को ( जय ) अपने वश करता है। उसी प्रकार राजा की सब स्तुति करते हैं वह बल पुरुषों से पालन करने योग्य प्रजाओं और भूमियों को प्रतिदिन विजय करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ऋषी। इन्द्रो देवता। छन्द्रः—१—३, ५—७, ११, १३ निचृदुष्णिक्। ४ उष्णिक्। ८, १२ विराडुष्णिक्। ९, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'वृषपत्नी: अपः' जय

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (अद्या चित्) = आज भी (पूर्वथा) = पहले की तरह इस सृष्टि में भी उसी प्रकार जैसे पूर्व सृष्टि में (उक्थिनः) = स्तोता लोग (ते) = आप के (तत्) = उस सोमपान जनित बल का (अनुष्टुवन्ति) = स्तवन करते हैं। यह सोमरक्षण से जनित मद वस्तुतः प्रशस्यतम है। यही सब वृद्धियों व उन्नतियों का मूल है। [२] हे प्रभो! आप हमारे लिये (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (अपः) = रेतःकणरूप जलों का (जया) = विजय करिये। ये रेतःकणरूप जल ही (वृषपत्नी:) = शक्तिशाली पुरुषों से रक्षणीय हैं। 'वृष' शब्द का अर्थ धर्म भी है। ये सोमकण ही हमारे जीवन में धर्म का रक्षण करते हैं 'वृषपत्नी ' हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ने सोमरक्षण से उत्पन्न होनेवाले बल व मद की अद्भुत ही व्यवस्था की है। प्रभु के अनुग्रह से हम इन रेतःकणरूप जलों का सदा विजय करें। ये रेतःकणरूप जल ही सब शक्तिशाली पुरुषों से रक्षणीय हैं, ये ही हमारे जीवनों में धर्म का रक्षण करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That divine power and joyous generosity of yours, today, saints and scholars of the holy Word and song sing and celebrate as ever before. O lord, conquer and control the waters of space collected in the mighty clouds and let them flow day by day.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे भगवान! तूच सर्वांहून स्तुत्य आहेस. जेव्हा जेव्हा जलाची आवश्यकता असेल, तेव्हा तेव्हा तू जल दे. ज्यामुळे सर्व पदार्थ प्राणयुक्त होतात. ॥६॥

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