ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 10
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
दी॒र्घस्ते॑ अस्त्वङ्कु॒शो येना॒ वसु॑ प्र॒यच्छ॑सि । यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठदी॒र्घः । ते॒ । अ॒स्तु॒ । अ॒ङ्कु॒शः । येन॑ । वसु॑ । प्र॒ऽयच्छ॑सि । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
दीर्घस्ते अस्त्वङ्कुशो येना वसु प्रयच्छसि । यजमानाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठदीर्घः । ते । अस्तु । अङ्कुशः । येन । वसु । प्रऽयच्छसि । यजमानाय । सुन्वते ॥ ८.१७.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ योद्धृभ्य आशीर्वादो दीयते।
पदार्थः
(येन) यद्द्वारा (सुन्वते, यजमानाय) स्वयज्ञं कुर्वते जनाय (वसु, प्रयच्छसि) धनं ददासि सः (ते, अङ्कुशः) तव शस्त्रम् (दीर्घः) विस्तीर्णः (अस्तु) भवतु ॥१०॥
विषयः
पुनः प्रार्थना विधीयते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! ते=तव । अङ्कुशः=सृणिराकर्षणसाधनमायुधम् । दीर्घोऽस्तु=आयतो भवतु । येनाङ्कुशेन साधनेन त्वम् । सुन्वते=शुभानि कर्माणि कुर्वते । यजमानाय । वसु=धनम् । प्रयच्छसि=ददासि ॥१० ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब योद्धा के लिये आशीर्वादात्मक वचन कथन करते हैं।
पदार्थ
(येन) जिससे (सुन्वते, यजमानाय) यज्ञकर्ता स्वजन को (वसु, प्रयच्छसि) धन देते हैं वह (ते, अङ्कुशः) आपका शस्त्र (दीर्घः, अस्तु) विस्तीर्ण=अप्रतिहत हो ॥१०॥
भावार्थ
हे युद्धविजयी योद्धाजनो ! जिन अस्त्र-शस्त्रों से विजय प्राप्त कर यज्ञकर्त्ता यजमान को यज्ञ की पूर्त्यर्थ धन प्रदान करते हो, वे आपके शस्त्र अप्रतिहतगति हों अर्थात् उनकी गति रोकने में कोई समर्थ न हो। यह स्तोता आदि यज्ञकर्ताओं का योद्धा के लिये आशीर्वचन है, जो प्रजा की रक्षानिमित्त यज्ञ में सदैव स्तुतिवाक्यों द्वारा परमात्मा से प्रार्थना करते हैं ॥१०॥
विषय
पुनः प्रार्थना विधान करते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! (ते) तेरा (अङ्कुशः) अङ्कुश नाम का आयुध (दीर्घः+अस्तु) लम्बा होवे । (येन) जिस अङ्कुश से (सुन्वते) शुभकर्मों को करते हुए (यजमानाय) यजमान को (वसु) धन (प्रयच्छसि) देता है ॥१० ॥
भावार्थ
यद्यपि भगवान् कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं रखता है, तथापि आरोप करके सर्व वर्णन किया जाता है । जो कोई शुभकर्म करते रहते हैं, वे कदापि अन्नादिकों के अभाव से पीड़ित नहीं होते । यह भगवान् की कृपा है ॥१० ॥
विषय
उपास्य उपासक में गुरु शिष्य का सा भाव ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( येन ) जिसके बल से तू ( सुन्वते यजमानाय ) अन्नादि उत्पन्न करने वाले और करादि देने वाले प्रजावर्ग के हितार्थ ( वसु प्रयच्छसि ) ऐश्वर्य प्रदान करता है। वह ( ते अङ्कुशः ) तेरा अङ्कुश शत्रु-वर्गरूप गज का वश करनेवाला साधन, शासन बल (दीर्घः अस्तु ) बहुत विस्तृत हो। इति त्रयोविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ७, ८ गायत्री। ४—६, ९—१२ निचृद् गायत्री। १३ विराड् गायत्री। १४ आसुरी बृहती। १५ आर्षी भुरिग् बृहती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
संयम से वसु प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे प्रभो! (ते अङ्कुश:) = आपका यह नियमन (दीर्घः) = [दृ विदारणे] सब अन्धकारों का विदारण करनेवाला हो। आपकी उपासना से प्राप्त संयम का भाव हमारे अज्ञानान्धकार को [२] यह अंकुश [संयम का भाव] ही वह उपाय है। (येना) = जिससे आप (यजमानाय) = यज्ञशील (सुन्वते) = सोम का अपने में सम्पादन करनेवाले के लिये (वसु प्रयच्छसि) = धन को देते हैं, निवास को उत्तम बनाने के लिये आवश्यक तत्त्वों को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-उपासक का जीवन संयत बनाता है। इससे वह यज्ञशील व सोमरक्षक बनता हुआ वसु [जीवनधन] को प्राप्त करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Let your arms of law and order be long and far reaching by which you protect and provide peace, prosperity and security for the self-sacrificing performer of yajna who creates soma for the common good.
मराठी (1)
भावार्थ
जरी ईश्वर कोणते अस्त्र शस्त्र ठेवत नाही; पण आरोप करून सर्व वर्णन केले जाते. जे कोणी शुभ कर्म करतात ते कधीही अन्न इत्यादींच्या अभावाने पीडित होत नाहीत. ही परमेश्वराची कृपाच आहे. ॥११॥
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