ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 11
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒यं त॑ इन्द्र॒ सोमो॒ निपू॑तो॒ अधि॑ ब॒र्हिषि॑ । एही॑म॒स्य द्रवा॒ पिब॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ते॒ । इन्द्र॑ । सोमः॑ । निऽपू॑तः । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । आ । इ॒हि॒ । ई॒म् । अ॒स्य । द्रव॑ । पिब॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं त इन्द्र सोमो निपूतो अधि बर्हिषि । एहीमस्य द्रवा पिब ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ते । इन्द्र । सोमः । निऽपूतः । अधि । बर्हिषि । आ । इहि । ईम् । अस्य । द्रव । पिब ॥ ८.१७.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे शूर ! (अयम्, ते, सोमः) अयं तव सोमरसः (बर्हिषि, अधि, निपूतः) पवित्रासने शोधितः (एहि) आयाहि (द्रव) शीघ्रमायाहि (अस्य, पिब) इमं पिब (ईम्) इदानीम् ॥११॥
विषयः
पुनः प्रार्थनैव विधीयते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! ते=तव सृष्टः । अयं सोमः=रसात्मकः संसारः । बर्हिषि+अधि=अधिः सप्तम्यर्थः । बर्हिषि=आकाशे स्थापितः सन् । निपूतः=नितरां पूतः=शुद्धोऽस्ति । हे देव ! ईम्=इदानीम् । अस्य=इमम् । एहि । द्रव=अस्योपरि द्रवीभूतो भव । पिब=कृपादृष्ट्या अवलोकय ॥११ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे शूर ! (अयम्, ते, सोमः) यह आपका सोमरस (बर्हिषि, अधि, निपूतः) पवित्र आसन में शुद्ध किया है (एहि) आइये (द्रव) शीघ्र आइये (ईम्) इस समय (अस्य, पिब) इसको पिएँ ॥११॥
भावार्थ
याज्ञिक पुरुषों की ओर से उक्ति है कि हे शूरवीरो ! जिस सोमरस को हम लोगों ने बड़ी शुद्धतापूर्वक बनाया है, उसको पान कर हमारा सत्कार स्वीकार करें, या यों कहो कि हमारे यज्ञ को प्राप्त होकर सुशोभित करें, जिससे दुष्टजन सदा भयभीत हुए यज्ञ में विघ्नकारी न हों ॥११॥
विषय
पुनः प्रार्थना ही विधान करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (ते) तेरा (अयम्+सोमः) यह रसात्मक संसार (बर्हिषि+अधि) आकाश में स्थापित (निपूतः) अतिशय शुद्ध है (ईम्) हे ईश ! इस समय (अस्य+एहि) इस रसात्मक संसार के निकट आ । (द्रव) इस पर द्रवीभूत हो और (पिब) उसे कृपादृष्टि से देख ॥११ ॥
भावार्थ
यह संसार ही परमात्मा का सोम अर्थात् प्रिय वस्तु है । जैसे हम जीव सोमरस से बहुत प्रसन्न होते हैं । परमात्मा भी इससे प्रसन्न होता है, यदि यह छल कपट आदि से रहित शुद्ध पवित्र हो । इससे यह शिक्षा होती है कि प्रत्येक मनुष्य को शुद्ध पवित्र होना चाहिये ॥११ ॥
विषय
उपास्य उपासक में गुरु शिष्य का सा भाव ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे गुरो ! ( ते ) तेरा ( अयं ) यह ( बर्हिषि ) उत्तम शासन वा यज्ञ में ( निपूतः ) निरन्तर पवित्र ( सोमः ) शिष्य विराजमान है, (ईम् अस्य आ इहि) उसको तू प्राप्त हो (आ द्रव, आ पिब) उस पर कृपा कर और उसको अपनी रक्षा में रख । ( २ ) हे राजन् ( बर्हिषि अधि ) राष्ट्र के, प्रजाजन के अध्यक्ष पद पर विराजमान रहने से नितरां पवित्र यह ऐश्वर्य तुझे प्राप्त हुआ है, तू उसे शीघ्र प्राप्त कर और उसका उपभोग और पालन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ७, ८ गायत्री। ४—६, ९—१२ निचृद् गायत्री। १३ विराड् गायत्री। १४ आसुरी बृहती। १५ आर्षी भुरिग् बृहती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
क्रियाशीलता व सोमपान
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (अयं सोमः) = यह सोम (ते) = तेरे लिये (अधि बर्हिषि) = इस वासनाशून्य हृदय में (निपूतः) = नितरां पवित्र हुआ है। वासनायें ही सोम को अपवित्र करती हैं। वासनाओं के अभाव में यह सोम पवित्र बना रहता है। [२] (एहि) = आ, और (ईम्) = निश्चय से (द्रव) = गतिशील बन सदा अकर्मण्यता से दूर रह और (अस्य पिब) = इस सोम का पान कर ।
भावार्थ
भावार्थ- हृदय को वासनाओं से आक्रान्त न होने देते हुए हम सोम का रक्षण करें। क्रियाशील बनकर सोम को शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, this soma pure and sanctified on the holy grass of yajna vedi, is dedicated to you. Come fast, you would love it, drink and enjoy, and protect and promote it for the good of all.
मराठी (1)
भावार्थ
हे जगच परमेश्वराचे सोम आहे. अर्थात प्रिय वस्तू आहे. जसे आम्ही जीव सोमरसाने अत्यंत प्रसन्न होतो. परमात्माही तसाच प्रसन्न होतो. जर व्यक्ती छळ कपट इत्यादींनी रहित असून शुद्ध, पवित्र असेल तरच तो प्रसन्न होतो. यावरून ही शिकवण मिळते की, प्रत्येक माणसाने शुद्ध पवित्र असले पाहिजे. ॥११॥
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