ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 14
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आसुरीबृहती
स्वरः - मध्यमः
वास्तो॑ष्पते ध्रु॒वा स्थूणांस॑त्रं सो॒म्याना॑म् । द्र॒प्सो भे॒त्ता पु॒रां शश्व॑तीना॒मिन्द्रो॒ मुनी॑नां॒ सखा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवास्तोः॑ । प॒ते॒ । ध्रु॒वा । स्थूणा॑ । अंस॑त्रम् । सो॒म्याना॑म् । द्र॒प्सः । भे॒त्ता । पु॒राम् । शश्व॑तीनाम् । इन्द्रः॑ । मुनी॑नाम् । सखा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वास्तोष्पते ध्रुवा स्थूणांसत्रं सोम्यानाम् । द्रप्सो भेत्ता पुरां शश्वतीनामिन्द्रो मुनीनां सखा ॥
स्वर रहित पद पाठवास्तोः । पते । ध्रुवा । स्थूणा । अंसत्रम् । सोम्यानाम् । द्रप्सः । भेत्ता । पुराम् । शश्वतीनाम् । इन्द्रः । मुनीनाम् । सखा ॥ ८.१७.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
सम्प्रतीश्वरं संबोधयन् स्वस्य योद्धुश्च कुशलं याचते।
पदार्थः
(वास्तोष्पते) हे गृहपते परमात्मन् ! (सोम्यानाम्) सोमनिष्पादकानामस्माकम् (स्थूणा) गृहस्तम्भः (अंसत्रम्) शरीरस्थं बलं च (ध्रुवा) ध्रुवं भवतु येन (मुनीनाम्, सखा) ज्ञानिनां मित्रम् (द्रप्सः, इन्द्रः) वेगवानस्माकं योद्धा (शश्वतीनां) निरन्तराणाम् (पुराम्) शत्रुपुराणाम् (भेत्ता) भेत्ता स्यात् ॥१४॥
विषयः
इन्द्रमहिमा प्रदर्श्यते ।
पदार्थः
अर्धर्चं प्रत्यक्षकृतम्, अर्धर्चञ्च परोक्षकृतम् । हे वास्तोष्पते ! अस्य निवासस्य जगतः पते=स्वामिन् । तव कृपया । स्थूणा=गृहाधारभूतः स्तम्भः । ध्रुवा=स्थिरा भवतु । तथा । सोम्यानाम्=द्रष्टव्यानाम्=प्राणिनाम् । अंसत्रम्=बलं भवतु । स्वयमिन्द्रश्च । द्रप्सः=सर्वेषां प्राणिनामुपरि द्रवीभूतो भवतु । पुनः । दुष्टानाम् । शश्वतीनां पुराणीनामपि । पुराम् । भेत्ता । पुनः । मुनीनां सखा भवतु ॥१४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ईश्वर को सम्बोधन करते हुए अपनी तथा योद्धा के कुशल के लिये प्रार्थना करना कथन करते हैं।
पदार्थ
(वास्तोष्पते) हे सब निवासस्थानों के स्वामी परमात्मन् ! (सोम्यानाम्) सोमनिष्पादक हम लोगों का (स्थूणा) गृहस्तम्भ और (अंसत्रम्) शरीस्थ बल (ध्रुवा) स्थित हो जिससे (मुनीनाम्, सखा) हम ज्ञानियों के मित्र होकर (द्रप्सः, इन्द्रः) वेगवान् योद्धा (शश्वतीनां) अनेक बार होनेवाले (पुराम्) शत्रुपुरों का (भेत्ता) भेदन करता हो ॥१४॥
भावार्थ
हे सर्वरक्षक तथा सबके स्वामी परमात्मन् ! आप ऐसी कृपा करें कि हम उपासकों का शारीरिक बल वृद्धि को प्राप्त हो, जिससे हम आत्मिक उन्नति करते हुए ज्ञानसम्पन्न पुरुषों के प्रिय हों अर्थात् उनके सत्सङ्ग से ज्ञानी होकर आपको प्राप्त हों। हे प्रभो ! आप ही हमारे गृह, परिवार तथा गौ आदि धनों की रक्षा करनेवाले और आप ही शत्रुसमुदाय से हमारी रक्षा करके यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त करनेवाले हो ॥१४॥
विषय
इन्द्र की महिमा दिखलाते हैं ।
पदार्थ
यहाँ आधी ऋचा प्रत्यक्षकृत और आधी परोक्षकृत है । (वास्तोः+पते) हे निवासस्थानीय समस्त जगत् के प्रभो ! आपकी कृपा से (स्थूणा) इस जगद्रूप गृह का स्तम्भ (ध्रुवा) स्थिर होवे । (सोम्यानाम्) परमदर्शनीय सकल प्राणियों का (अंसत्रम्) बल बढ़े । (इन्द्रः) स्वयं इन्द्र (द्रप्सः) इसके ऊपर दयावान् होवे । दुष्टों के (शश्वतीनाम्) अतिशय पुरानी (पुराम्) पुरियों का भी (भेत्ता) विनाशक होवे और (मुनीनाम्) मुनियों का (सखा) मित्र होवे ॥१४ ॥
भावार्थ
सबके कल्याण के लिये ईश्वर से प्रार्थना करे । सब कोई निज बल बढ़ावे । अपने-२ स्थानों को सुदृढ बना रक्खे और ऐसा शुभ आचरण करे कि वह ईश सदा उस पर प्रसन्न रहे ॥१४ ॥
विषय
वास्तोष्पति शासक इन्द्र ।
भावार्थ
हे ( वास्तोष्पते ) 'वास्तु' अर्थात् नगरादि के पालक ! जिस प्रकार गृह का ( स्थूणा ध्रुवा) मुख्य स्तम्भ सर्वाश्रय हो उसी प्रकार तेरे राष्ट्र में ( ध्रुवा ) तू पृथिवीवत् (स्थूणा) मुख्य स्तम्भ के समान सबका आश्रय है। (सोम्यानां) ऐश्वर्य पाने योग्य शासकों, वा शिष्यों के हितैषी ज्ञानी पुरुषों को ( अंसत्रं ) कन्धों के विशेष कवचवत् उनके रक्षक हो। ( द्रप्सः ) द्रुतगति से आक्रमण करने वाला ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता सेनापति ( शवतीनां पुरां ) बहुत से शत्रु नगरों का ( भेत्ता ) तोड़ने वाला हो । और वह ( मुनीनां ) मन से मनन करने वाले ज्ञानविचारक मनुष्यों का सदा ( सखा ) मित्र हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ७, ८ गायत्री। ४—६, ९—१२ निचृद् गायत्री। १३ विराड् गायत्री। १४ आसुरी बृहती। १५ आर्षी भुरिग् बृहती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
इन्द्रः मुनीनां सखा
पदार्थ
[१] हे (वास्तोष्पते) = गृहपते, हमारे शरीररूप गृहों के रक्षक प्रभो ! (स्थूणा) = इस गृह का आधारभूत स्तम्भ, अर्थात् मेरुदण्ड (ध्रुवा) = ध्रुव हो। हमारा मेरुदण्ड [रीढ की हड्डी] सदा ठीक बना रहे। (सोम्यानाम्) = सोम का रक्षण करनेवाले हमारा (अंसत्रम्) = स्कन्धों का त्रायक [रक्षक] बल सदा ध्रुव हो। अर्थात् कन्धे इत्यादि सब अंग सबल बने रहें। [२] वह द्रप्सः = आनन्दमय व प्रकाश का देनेवाला, (शश्वतीनाम्) = बहुत-सी (पुरां भेत्ता) = असुरों की नगरियों का ध्वंसक (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (मुनीनाम्) = हम मननशील, मौन रहनेवाले [कम बोलनेवाले] पुरुषों का सखा मित्र हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे शरीर गृहों का रक्षण करें। हम सोम्य [सोमरक्षक] बनकर सबल बने रहें। वे प्रभु हमारे मित्र हों। प्रभु की मित्रता में मैं आसुरभावों को दूर कर पाऊँ । विचारशील मुनि बनूँ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of human habitations, creator of the cosmic home of life, may the centre column of our house be firm. May the lord be the protective armour of the makers of soma. May Indra, lover of soma to the last drop, be destroyer of the strongholds of evil which nevertheless persist through time, and may the lord be friends with the sages.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांच्या कल्याणासाठी ईश्वराची प्रार्थना करावी. सर्वांनी आपले बल वाढवावे. आपापले स्थान सुदृढ करावे व असे शुभ आचरण करावे की तो ईश सदैव त्याच्यावर प्रसन्न राहावा. ॥१४॥
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