ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ ते॑ सिञ्चामि कु॒क्ष्योरनु॒ गात्रा॒ वि धा॑वतु । गृ॒भा॒य जि॒ह्वया॒ मधु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । सि॒ञ्चा॒मि॒ । कु॒क्ष्योः । अनु॑ । गात्रा॑ । वि । धा॒व॒तु॒ । गृ॒भा॒य । जि॒ह्वया॑ । मधु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते सिञ्चामि कुक्ष्योरनु गात्रा वि धावतु । गृभाय जिह्वया मधु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । सिञ्चामि । कुक्ष्योः । अनु । गात्रा । वि । धावतु । गृभाय । जिह्वया । मधु ॥ ८.१७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(ते, कुक्ष्योः, आसिञ्चामि) तव उभयोः कुक्ष्योः पार्श्वस्थसैन्यजनेभ्यः सोममासिञ्चामि स ते (गात्रा, अनु, विधावतु) प्रतिगात्रं प्रविशतु अतः (जिह्वया, मधु, गृभाय) जिह्वया मधुरं तं गृहाण ॥५॥
विषयः
प्रार्थनां दर्शयति ।
पदार्थः
इमौ स्थावरजङ्गमात्मकौ संसारावेव ईश्वरस्य शरीरं उदरं अवयवाः, इत्यादि अपि च । जीवशरीरमपि प्रधानतया द्विविधम् । एकं मानवशरीरम्, यत्र स्पष्टा भाषा, विवेक उन्नतिरवनतिश्च विद्यते । द्वितीयं पश्वादिशरीरं सर्वदा एकरसम् । एकस्थिति । इत्यादि । इदं द्वयमपि ईश्वरस्य शरीरं सर्वत्र विद्यमानत्वादत्रैव स्थित्वा परमात्मा सर्वं साक्षिरूपेण पश्यति । अथ मन्त्रार्थः−कश्चिदुपासको ब्रवीति । हे इन्द्र ! अहम् । ते=तव सम्बन्धिनोः । कुक्ष्योः=स्थावरजङ्गमयोरुदरयोर्मध्ये स्वकीयं मधु प्रेमरूपं जलम् । आसिञ्चामि=आसमन्तात् स्थापयामि तत्प्रेमसिक्तम् । गात्रा=गात्राणि सर्वान् अवयवान् । अनुधावत्=अनुक्रमेण प्राप्नोतु । सर्वे पदार्थाः प्रेमवन्तो भवन्त्वित्यर्थः । ततो हे भगवन् ! त्वमपि । तन्मधु=माधुर्योपेतम् । प्रेमजिह्वया=रसनया । गृभाय=गृहाण । तव कृपया तस्य सर्वत्र विस्तारो भवतु ॥५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे इन्द्र=योद्धा (ते, कुक्ष्योः, आसिञ्चामि) आपको तथा दोनों पार्श्व की ओर रहनेवाले सैनिकों को और आप सभी को यह सोम (गात्रा, अनु, विधावतु) प्रत्येक गात्र में व्याप्त होकर पुष्ट करे, अतः (जिह्वया, मधुः, गृभाय) रसनेन्द्रिय से इस मधुर रस का आस्वादन करें ॥५॥
भावार्थ
हे क्षात्रबलसम्पन्न योद्धा ! हम लोग आपके सैनिकों सहित आपको आह्वान करते हैं, आप हमारे यज्ञसदन में आकर भोग्य पदार्थों को भक्षण कर तृप्त हों, तुम्हारा क्षात्रबल दुष्टों के दलन करने और श्रेष्ठों की रक्षा करने में सफलीभूत हो ॥५॥
विषय
इससे प्रार्थना को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
ये स्थावरजङ्गमात्मक द्विविध संसार ही ईश्वर के शरीर उदर और अवयव इत्यादिक हैं । और भी जीवशरीर भी प्रधानतया दो प्रकार के हैं । एक मानवशरीर, जहाँ स्पष्ट भाषा विवेक और मानसिक उन्नति अवनति होती रहती हैं । द्वितीय पश्वादिक शरीर, जो सर्वदा एकरस और जिनकी स्थिति अवस्था प्रायः सृष्टि की आदि से एक ही प्रकार चली आती है । ये दोनों भी ईश्वरशरीर हैं, क्योंकि वह सर्वत्र विद्यमान है । यहाँ ही स्थित होकर वह साक्षिरूप से देखता है । परमात्मा में सर्ववर्णन उपचारमात्र से होता है । न वह खाता, न पीता, न सोता, न जागता, न उसमें किञ्चित् विकार है, तथापि भक्तजन अपनी इच्छा के अनुसार ईश्वर से मनुष्यवत् निवेदन स्तुति प्रार्थना करते हैं । यही भाव इन मन्त्रों में दिखलाया गया है । अथ ऋगर्थ−हे इन्द्र ! (ते) तेरे उत्पादित और पालित (कुक्ष्योः) स्थावर जङ्गमरूप उदरों में (आ+सिञ्चामि) मैं उपासक प्रेमरूप जल अच्छे प्रकार सिक्त करता हूँ । हे परमात्मन् ! वह प्रेमजल (गात्रा) सम्पूर्ण अवयवों में (अनु+धावतु) क्रमशः प्रविष्ट होवे । तेरी कृपा से सब पदार्थ प्रेममय होवें । हे ईश ! तू भी (मधु) प्रेमरूप मधु यद्वा माधुर्योपेत प्रेम को (जिह्वया) रसनेन्द्रिय से (गृभाय) ग्रहण कर अर्थात् उस प्रेम का सर्वत्र विस्तार हो, जिससे परस्पर हिंसा, राग, द्वेष आदि दुर्गुण नहीं हों । क्या यह मेरी प्रार्थना तू पूर्ण करेगा ॥५ ॥
भावार्थ
हे प्रेममय परमात्मन् ! हमारी सारी क्रियाएँ प्रेमयुक्त हों, क्योंकि तू सबमें व्याप्त है । जिससे हम घृणा अथवा राग-द्वेष करेंगे, वह तेरा ही शरीर है अर्थात् यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मानो ईश्वर का शरीर है, क्योंकि वह उसमें व्यापक है । तब हम किससे राग और द्वेष करें, यह पुनः-पुनः विचारना चाहिये ॥५ ॥
विषय
गुरु का शिष्य को दीक्षित करना। उसको वेदोपदेश ।
भावार्थ
जिस प्रकार अन्न ओषधि सोमादि का रस ( कुक्ष्योः ) कोखों, उदर में डाला जाकर अंश २ में चला जाता है और मनुष्य जिह्वा से ( मधु ) अन्न को ग्रहण करता है इसी प्रकार हे विद्वान् शिष्य मैं ( ते ) तेरे ( कुक्ष्योः ) कोखों को ( आसिञ्चामि ) जल से शुद्ध करता हूं। वह स्नान-जल ( गात्रा अनु वि धावतु) अन्य अंगों को भी प्राप्त होकर पवित्र करे। इस प्रकार शुद्ध होकर हे शिष्य ! तू ( जिह्वया ) वाणी से ( मधु ) ब्रह्मज्ञान वेद को ( गृभाय ) धारण कर । ( २ ) राजा की दो कुक्षियां हैं एक सैन्यबल, दूसरा राजकोष, प्रजा दोनों को भरे । वह ऐश्वर्य राष्ट्र प्रत्येक अंग में पहुंचे, राजा वाणी से सदा मधुर भाषण करे। वा अपनी आज्ञामात्र से मधुवत् कर ग्रहण करे। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ७, ८ गायत्री। ४—६, ९—१२ निचृद् गायत्री। १३ विराड् गायत्री। १४ आसुरी बृहती। १५ आर्षी भुरिग् बृहती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
गृभाय जिह्वया मधु
पदार्थ
[१] प्रभु उपासक को कहते हैं कि मैं (ते) = तेरे (कुक्ष्योः) = उदर के दायें व बायें भागों में इस सोम को (आसिञ्चामि) = आसिक्त करता हूँ। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ यह सोम (गात्रा अनु विधावतु) = सब अंगों को अनुकूलता से प्राप्त हो और उन अंगों का शोधन करनेवाला हो। [२] इस सोमरक्षण के द्वारा तू (जिह्वया) = जिह्वा से मधु (गृभाय) = माधुर्य का ग्रहण कर । जिह्वा से तू सदा शुभ शब्दों को ही बोलनेवाला हो। सोमरक्षण तुझे मधुरभाषी बनाये।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोम को शरीर में सुरक्षित करते हुए अंग-प्रत्यंग को शुद्ध बनायें, हमारी जिह्वा सदा मधुर शब्द बोलनेवाली हो।
इंग्लिश (1)
Meaning
May the soma be delicious to your taste, O connoisseur of soma, may the honey sweets be exhilarating to your body, and may the soma bring peace and joy to your heart.
मराठी (1)
भावार्थ
हे प्रेमळ परमेश्वरा! आमच्या सर्व क्रिया प्रेमयुक्त असाव्यात. कारण तू सर्वात व्याप्त आहेस. हे संपूर्ण ब्रह्मांड जणू तुझे शरीर आहे. आम्ही घृणा किंवा रागद्वेष केला तर तुझ्याच शरीराचा केल्याप्रमाणे आहे. तू सर्वत्र व्याप्त आहेस तेव्हा आम्ही कुणाचा राग-द्वेष करावा याचा पुन्हा पुन्हा विचार करावा. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal