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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 13
    ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्ते॑ शृङ्गवृषो नपा॒त्प्रण॑पात्कुण्ड॒पाय्य॑: । न्य॑स्मिन्दध्र॒ आ मन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । शृ॒ङ्ग॒ऽवृ॒षः॒ । न॒पा॒त् । प्रन॑पा॒द् इति॒ प्रऽन॑पात् । कु॒ण्ड॒ऽपाय्यः॑ । नि । अ॒स्मि॒न् । द॒ध्रे॒ । आ । मनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते शृङ्गवृषो नपात्प्रणपात्कुण्डपाय्य: । न्यस्मिन्दध्र आ मन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ते । शृङ्गऽवृषः । नपात् । प्रनपाद् इति प्रऽनपात् । कुण्डऽपाय्यः । नि । अस्मिन् । दध्रे । आ । मनः ॥ ८.१७.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (शृङ्गवृषः, नपात्) हे स्वतेजोवर्द्धक जनरक्षक ! (यः, ते) यस्तव (प्रणपात्) प्ररक्षकः (कुण्डपाय्यः) यज्ञविशेषः (अस्मिन्) अस्मिन्यज्ञे (मनः) मानसम् (न्यादध्रे) निदधति जनाः ॥१३॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यस्ते=तव सृष्टः । शृङ्गवृषः=सूर्य्योऽस्ति । शृङ्गैः किरणैर्वर्षतीति यः सः । अस्मिन् । तत्त्वविदो जनाः । मनः । आनिदध्रे=आनिदधति=स्थापयन्ति । आश्चर्यदृष्ट्या पश्यन्तीत्यर्थः । यतोऽयम् । नपात्=निराधारे स्थितोऽपि । न पततीत्यर्थः । पुनः । प्रणपात्=प्रकर्षेण न पातयिता । सर्वेषां ग्रहाणां रक्षितेत्यर्थः । पुनः । कुण्डपाय्यः=कुण्डान् पृथिव्यादिलोकान् । पाति=रक्षतीति कुण्डपाय्यः ॥१३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (शृङ्गवृषः, नपात्) हे स्वतेजोवर्धक उपासक के रक्षक योद्धा ! (यः, ते) जो आपका (प्रणपात्) प्ररक्षक (कुण्डपाय्यः) यज्ञविशेष है (अस्मिन्) इस कुण्डपाय्य नामक यज्ञ में (मनः) उपासक जन मन को (न्यादध्रे) लगाते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    हे उपासकों के रक्षक तेजस्वी योद्धा ! आपका रक्षक जो “कुण्डपाय्य” यज्ञ* है, उस यज्ञ को याज्ञिक पुरुष बड़ी श्रद्धा तथा उत्साह से पूर्ण करते हैं, जिससे आपका बल वृद्धि को प्राप्त हो, आप सदा अजय हों अर्थात् कोई शत्रु आपको युद्ध में न जीत सके ॥१३॥ *कुण्ड के आकारविशेषवाले पात्रों से जिस यज्ञ में सोमपान किया जाता है, उसका नाम “कुण्डपाय्य” यज्ञ है ॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र (यः+ते) जो तेरा सृष्ट (शृङ्गवृषः) यह महान् सूर्य्य है (अस्मिन्) इसमें तत्त्वविद् जन (मनः+नि+आ+दध्रे) मन स्थापित करते हैं । अर्थात् इसको आश्चर्य्यदृष्टि से देखते हैं क्योंकि यह (नपात्) निराधार आकाश में स्थापित रहने पर भी नहीं गिरता है, पुनः (प्रणपात्) अपने परिस्थित ग्रहों को कभी गिरने नहीं देता, किन्तु यह (कुण्डपाय्यः) उन पृथिव्यादि लोकों का अच्छे प्रकार पालन कर रहा है । ऐसा महान् अद्भुत यह सूर्य्य है ॥१३ ॥

    भावार्थ

    यद्यपि इस संसार में एक-२ पदार्थ ही अद्भुत है तथापि यह सूर्य्य तो अत्यद्भुत वस्तु है, इसको देख-२ कर ऋषिगण चकित होते हैं । हे इन्द्र ! यह तेरी अद्भुत कीर्ति है ॥१३ ॥

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    विषय

    शक्तिशाली प्रभुवत् राजा ।

    भावार्थ

    हे ( शृङ्गवृषः नपात्) हिंसाकारी वाणों की वर्षा करने वाले प्रबल सैन्य को न गिरने देने वाले ! उसके स्वामिन् ! ( यः ) जो ( ते ) तेरा ( प्रणपात् ) उत्तम पुत्रवत् पालनीय ( कुण्ड-पाय्यः ) कुण्डों के जलादि से पालन करने योग्य राष्ट्र रूप ऐश्वर्य है ( अस्मिन् ) उसमें ही ( मनः आ दध्रे ) सब अपना मनोयोग रक्खें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ७, ८ गायत्री। ४—६, ९—१२ निचृद् गायत्री। १३ विराड् गायत्री। १४ आसुरी बृहती। १५ आर्षी भुरिग् बृहती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'कुण्डपाप्य' में मन का धारण

    पदार्थ

    [१] 'कुण्डपाय्य' एक यज्ञ है जिसमें कुण्ड के द्वारा सोम का पान होता है। यहाँ 'कुण्ड' का भाव वासनाओं के दहन से है [कुडि दाहे ] । वासना दहन के द्वारा शरीर में सोम का रक्षण होता है। यही 'कुण्डपाय्य' यज्ञ है। प्रभु ' श्रृंगवृष्' हैं, [शृणन्ति शृंग] ज्ञानरश्मियों द्वारा सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। हे (श्रृंगवृषः नपात्) = प्रभु के पुत्र, अर्थात् प्रभु की आज्ञा में चलनेवाले और अतएव (प्रणपात्) = प्रकर्षेण अपना पतन न होने देनेवाले जीव ! (यः) = जो (ते) = तेरा (कुण्डपाय्य:) = वासनादहन द्वारा सोमपानरूप यज्ञ है। (अस्मिन्) = इस यज्ञ में (मनः) = तेरा मन (आनिदध्रे) = सर्वथा निहित हो। [२] तू सोम को शरीर में पीने के लिये मन में दृढ़ निश्चय कर। इसके लिये तू उस प्रभु का सच्चा पुत्र बन जो ज्ञानरश्मियों द्वारा तेरे पर सुखों का वर्षण करते हैं। तू अपने को गिरने न दे। 'कुण्डपाय्य' यज्ञ में ही तेरा मन स्थापित हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के सच्चे पुत्र बनें। वासनाओं को दग्ध करते हुए सोम का रक्षण करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord, the sun on high which neither falls nor allows others, planets and satellites, to fall is your creation and it is the protector and sustainer of the vault of heaven and the firmament. On this we meditate and concentrate our mind.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या जगात प्रत्येक पदार्थच अद्भुत आहे. तरीही सूर्य अति अद्भुत आहे. त्याला पाहून ऋषी चकित होतात. हे इंद्र! ही तुझी कीर्ती अद्भुत आहे. ॥१३॥

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