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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
    ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः । प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । जनीः॑ऽइव । अ॒भि । सम्ऽवृ॑तः । प्र । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । स॒र्प॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमु त्वा विचर्षणे जनीरिवाभि संवृतः । प्र सोम इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ऊँ इति । त्वा । विऽचर्षणे । जनीःऽइव । अभि । सम्ऽवृतः । प्र । सोमः । इन्द्र । सर्पतु ॥ ८.१७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (विचर्षणे, इन्द्र) हे विशेषद्रष्टः योद्धः ! (जनीः, इव) प्रजा इव (अभिसंवृतः) पयआदिभिरावृतः (अयम्, सोमः) अयं सोमरसः (त्वा, उ) त्वां प्रति (प्रसर्पतु) प्रगच्छतु ॥७॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे विचर्षणे=विशेषेण सर्वद्रष्टः । इन्द्र ईश ! त्वा=त्वां प्रति । अयं मम सोमः । प्रसर्पतु=प्राप्नोतु । कीदृशः सोमः । जनीः इव=जनयो जाया इव । ता यथा शुद्धैर्वस्त्रैः संवृता भवन्ति । एवमेव मम सोमः । अभिसंवृतोऽस्ति=नानागुणैः भूषितोऽस्ति । उ इति पूरकः ॥७ ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विचर्षणे, इन्द्र) हे विशेषद्रष्टा योद्धा ! (जनीः, इव) प्रजा के समान (अभिसंवृतः) पय आदि द्रव्यों से आच्छादित (अयम्, सोमः) यह सोमरस (त्वा, उ) आपको (प्रसर्पतु) प्राप्त हो ॥७॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार रिद्धिसिद्धिसम्पन्न प्रजा पय आदि द्रव्यों से परिपूर्ण होकर अभ्युदय का धाम होती है, इसी प्रकार यह सोम पय आदि द्रव्यों से संस्कार को प्राप्त हुआ आपको प्राप्त हो ॥७॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (विचर्षणे) हे सर्वद्रष्टा (इन्द्र) ईश्वर ! (अयम्+सोमः) यह मेरा यज्ञसंस्कृत सोम पदार्थ (त्वम्+प्र+सर्पतु) तुझको प्राप्त होवे । वह कैसा है । (अभि+संवृतः) नानागुणों से भूषित है । यहाँ दृष्टान्त देते हैं (जनीः+इव) जैसे कुलवधू शुद्ध पवित्र वस्त्रों से आच्छादित है ॥७ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर को निखिल पदार्थ समर्पित कर इसका भी यह आशय है कि जगत् के कल्याण के हेतु प्रतिदिन यथाशक्ति दान प्रदान करता रहे । पुरुषार्थ और सत्यता से प्राप्त धन को अवश्यमेव देशहित व और मनुष्यहित में लगावें ॥७ ॥

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    विषय

    वृत्रघ्न इन्द्र का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( जनीः इवः संवृतः अभि ) जिस प्रकार स्त्रियें अच्छी प्रकार वस्त्र आभरणादि से युक्त होकर, वा अच्छी प्रकार वरण करके पति को प्राप्त होती हैं अभिमुख होकर उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) आचार्य ! हे विद्या के दाता ! हे ( विचर्षणे ) विविध विद्याओं के द्रष्टः ! ( अयम् सोमः ) यह शास्य शिष्य वा सावित्री माता के गर्भ में उत्पन्न पुत्र भी ( सं-वृतः ) तेरे द्वारा अच्छी प्रकार वृत, स्वीकृत होकर वा ( सं-वृतः ) सम्यक् रीति से आचरणवान् होकर ( त्वा अभि सर्पतु ) तुझे प्राप्त हो और ( प्र सर्पतु ) विद्या, चरित्र के मार्ग में आगे बढ़े। ( २ ) राष्ट्रपक्ष में 'सोम' प्रजावर्ग ( संवृतः ) अच्छी प्रकार तुझे राजा वरे और ( सं वृतः ) सुरक्षित होकर तुझ उत्तम अध्यक्ष को प्राप्त हो, उन्नति करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ७, ८ गायत्री। ४—६, ९—१२ निचृद् गायत्री। १३ विराड् गायत्री। १४ आसुरी बृहती। १५ आर्षी भुरिग् बृहती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In the ecstasy and exhilaration of soma, Indra, lord mighty of head and arms joined at the neck and vast of cosmic belly space, destroys the dark forces of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराला सर्व पदार्थ समर्पित करावे याचा आशय असा की, जगाच्या कल्याणासाठी प्रत्येक दिवशी यथाशक्ती दान प्रदान करावे. पुरुषार्थ व सत्याने प्राप्त झालेले धन अवश्य देशहित व मनुष्यहितासाठी लावावे. ॥७॥

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