ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - सतःपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
येना॑ समु॒द्रमसृ॑जो म॒हीर॒पस्तदि॑न्द्र॒ वृष्णि॑ ते॒ शव॑: । स॒द्यः सो अ॑स्य महि॒मा न सं॒नशे॒ यं क्षो॒णीर॑नुचक्र॒दे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । स॒मु॒द्रम् । असृ॑जः । म॒हीः । अ॒पः । तत् । इ॒न्द्र॒ । वृष्णि॑ । ते॒ । शवः॑ । स॒द्यः । सः । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । न । स॒म्ऽनशे॑ । यम् । क्षो॒णीः । अ॒नु॒ऽच॒क्र॒दे ॥
स्वर रहित मन्त्र
येना समुद्रमसृजो महीरपस्तदिन्द्र वृष्णि ते शव: । सद्यः सो अस्य महिमा न संनशे यं क्षोणीरनुचक्रदे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । समुद्रम् । असृजः । महीः । अपः । तत् । इन्द्र । वृष्णि । ते । शवः । सद्यः । सः । अस्य । महिमा । न । सम्ऽनशे । यम् । क्षोणीः । अनुऽचक्रदे ॥ ८.३.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ प्रकारान्तरेण कर्मयोगिमहिमा वर्ण्यते।
पदार्थः
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (येन) बलेन (महीः, अपः) महान्ति जलानि (समुद्रं, असृजः) समुद्रं प्रति गमयसि (तत्) तादृशं (वृष्णि) व्यापकं (ते) तव (शवः) बलमस्ति (सः, अस्य, महिमा) सोऽस्य प्रतापः (सद्यः) झटिति (न, संनशे) न लब्धुं शक्यः (यं) यं महिमानं (क्षोणीः) पृथिवी (अनुचक्रदे) अनुसरति ॥१०॥
विषयः
पुनर्महिमैव गीयते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! येन=स्वकीयेन बलेन । त्वम् । समुद्रं प्रति । महीः=महत्यः । अपः=जलानि । असृजः=सृष्टवानसि । तत्ते । शवः=बलम् । वृष्णि=अभीष्टफलवर्षकं सर्वत्र भवतु । अस्य तव । स महिमा । सद्यः न संनशे=न कदापि सम्यङ् नश्यति विनश्यति । यं महिमानम् । क्षोणीः=पृथिवी । अनुचक्रदे=अनुगच्छति । क्रदिरत्र गत्यर्थः । यदधीनाः पृथिव्यादयः सर्वे लोकाः सन्ति । यो हि समुद्रं जलैः पूरयति स परमात्मैव स्तुत्यो नान्य इत्यनया शिक्षते ॥१० ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अन्य प्रकार से कर्मयोगी की महिमा वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (येन) जिस बल से (महो, अपः) महा जलों को (समुद्रं, असृजः) समुद्र के प्रति पहुँचाते हैं (तत्, ते) ऐसा आपका (वृष्णि, शवः) व्यापक बल है (सः, अस्य, महिमा) वह इसकी महिमा (सद्यः) शीघ्र (न, संनशे) नहीं मिल सकती (यं) जिस महिमा का (क्षोणीः) पृथिवी (अनुचक्रदे) अनुसरण करती है ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में कर्मयोगी की महिमा वर्णन की गई है कि वह कृत्रिम नदियों द्वारा मरु देशों में भी जलों को पहुँचाकर पृथिवी को उपजाऊ बनाकर प्रजा को सुख पहुँचाता और धर्मपथयुक्त तथा अभ्युदयकारक होने के कारण कर्मयोगी के ही आचरणों का पृथिवी भर के सब मनुष्य अनुकरण करते हैं ॥१०॥
विषय
पुनः महिमा का गान दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! हे परमात्मन् ! (येन) जिस निजबल से तूने (समुद्रम्) समुद्र के लिये (महिः) बहुत (अपः) जल (असृजः) बनाया है (तत्+ते+शवः) वह तेरा बल (वृष्णि) सर्वत्र अभीष्ट फलप्रद होवे (अस्य) हे इन्द्र ! तेरी (सः+महिमा) वह महिमा (सद्यः) कदापि (न+संनशे) विनष्ट नहीं होती । (यम्+अनु) जिस महिमा के पीछे (क्षोणीः) पृथिवी आदि सकल लोक (चक्रदे) चलते हैं, वह आपकी महिमा कदापि नष्ट नहीं हो सकती ॥१० ॥
भावार्थ
आद्य सृष्टि में ये समुद्रस्थ जल कहाँ से आये । जब पृथिवी भी अग्नि से जाज्वल्यमान थी, तब जल का आगमन कहाँ से हुआ इसको पुनः-पुनः विचारो । अहो ! इसी की सर्व महिमा है, हे मनुष्यो ! उस एक ही की उपासना करो ॥१० ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( येन ) जिस बल से तू ( समुद्रम् ) समुद्र को ( महीः अपः ) भूमियों और जलों को ( असृजः ) रचता है ( ते ) तेरा ( तत् ) वह ( शवः ) ज्ञान और बल ( वृष्णि ) सब सुखों को देने वाला है । ( यम् ) जिसके अनुकूल ( क्षोणी: अनु चक्रदे ) सब भूमि, सब मनुष्य चलते और उसकी स्तुति करते हैं ( सः अस्य महिमा ) वह उसकी महिमा है । ( सद्यः न संनशे ) शीघ्र ही उसको नहीं जाना जा सकता ?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'अनन्त महिम' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब बल के कर्मों को करनेवाले प्रभो ! (येन) = जिस बल के द्वारा समुद्र (असृजः) = आप समुद्र का निर्माण करते हैं, (मही:) = इन पृथिवियों का व (अपः) = जलों का निर्माण करते हैं, (ते) = आपका (तत् शवः) = वह बल (वृष्णि) = सुखों का वर्षण करनेवाला है। [२] (अस्य) = इस प्रभु की (सः महिमा) = वह महिमा (सद्यः) = शीघ्र (न सन्नशे) = प्राप्त करने योग्य नहीं होती (यम्) = जिस महिमा को (क्षोणीः) = ये सम्पूर्ण पृथिवियाँ (अनुचक्रदे) = प्रतिदिन क्रन्दतापूर्वक कह रही हैं। 'यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः'।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अपने अद्भुत बल से समुद्र, पृथिवी व जलों का निर्माण करते हैं। प्रभु की महिमा को ये पृथिवियाँ पुकार-पुकार कर कह रही है। प्रभु की इस महिमा को व्याप्त करने का सम्भव नहीं ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord omnipotent of creation, I pray for the knowledge and experience of that overwhelming power and potential of yours by which you create the mighty waters and the oceans to roll and flow. That mighty power of this lord is not easily to be realised, the heaven and earth obey it, and when they move they celebrate it in the roaring and resounding music of stars and spheres.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात कर्मयोग्याचा महिमा वर्णिलेला आहे. तो कृत्रिम नद्यांद्वारे वालुकामय प्रदेशातही जल पोचवून पृथ्वीला सुपीक बनवत प्रजेला सुखी करतो व धर्मपथयुक्त व अभ्युदयकारक असल्यामुळे पृथ्वीवरील सर्व माणसे आचरणाने अनुकरण करतात ॥१०॥
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