ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अ॒यं स॒हस्र॒मृषि॑भि॒: सह॑स्कृतः समु॒द्र इ॑व पप्रथे । स॒त्यः सो अ॑स्य महि॒मा गृ॑णे॒ शवो॑ य॒ज्ञेषु॑ विप्र॒राज्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स॒हस्र॑म् । ऋषि॑ऽभिः । सहः॑ऽकृतः । स॒मु॒द्रःऽइ॑व । प॒प्र॒थे॒ । स॒त्यः । सः । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । गृ॒णे॒ । शवः॑ । य॒ज्ञेषु॑ । वि॒प्र॒ऽराज्ये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं सहस्रमृषिभि: सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे । सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । सहस्रम् । ऋषिऽभिः । सहःऽकृतः । समुद्रःऽइव । पप्रथे । सत्यः । सः । अस्य । महिमा । गृणे । शवः । यज्ञेषु । विप्रऽराज्ये ॥ ८.३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(सहस्रं, ऋषिभिः) अनेकैः सूक्ष्मदर्शिभिः (सहस्कृतः) बलित्वं प्रापितः (अयं) अयं कर्मयोगी (समुद्रः, इव) जलधिरिव व्यापकत्वात् (पप्रथे) प्रसिद्धः, (सः, सत्यः, अस्य, महिमा) स स्थिरोऽस्य प्रतापः (शवः) बलं च (विप्रराज्ये) मेधाविराज्ये (यज्ञेषु) यागेषु मध्ये (गृणे) स्तूयते ॥४॥
विषयः
अस्य महिमा प्रदर्श्यते ।
पदार्थः
हे मनुष्याः ! अयम्=प्रसिद्धवद्भासमान, इन्द्राभिधेय ईशः । सहस्रम्=सहस्रेण सहस्रसंख्याकैः । ऋषिभिः=तत्त्वद्रष्टृभि- रतीन्द्रियज्ञानैर्मानवैः । सहस्कृतः=सहसा बलेन पूजितः । पुनः । समुद्र इव=आकाश इव । समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम । पप्रथे=प्रथितो व्यापकोऽस्ति । अस्य । सः=प्रसिद्धः । सत्यो महिमा । शवो बलम् । यज्ञेषु=शुभकर्मसु । तथा । विप्रराज्ये=विप्राणां ज्ञानिनां राज्ये शास्त्रे । गृणे स्तूयते यूयमपि तमेव स्तुत ॥४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(सहस्रं, ऋषिभिः) अनेक सूक्ष्मदर्शियों द्वारा (सहस्कृतः) बलप्राप्त (अयं) यह कर्मयोगी (समुद्रः, इव) समुद्र के समान व्यापक होकर (पप्रथे) प्रसिद्धि को प्राप्त होता है (सः, सत्यः, अस्य, महिमा) वह सत्य=स्थिर इसकी महिमा और (शवः) बल (विप्रराज्ये) मेधावियों के राज्य में (यज्ञेषु) यज्ञों में (गृणे) स्तुति किये जाते हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि वह कर्मयोगी, जो अनेक ऋषियों द्वारा धनुर्विद्या प्राप्त करके अपने बलप्रभाव से सर्वत्र विख्यात होता है, वह सारे देश में पूजा जाता है और अपने स्थिर बल तथा पराक्रम द्वारा विद्वानों में सत्कारार्ह होता और यज्ञों में सब याज्ञिक लोग उसकी स्तुति करते हैं ॥४॥
विषय
इसकी महिमा दिखलाई जाती है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (अयम्) प्रसिद्धवत् सर्वत्र भासमान यह इन्द्रवाच्य परमात्मा (सहस्रम्) सहस्र=बहुत (ऋषिभिः) तत्त्वद्रष्टा पुरुषों से (सहस्कृतः) बलनिमित्त पूजित होता है और जो (समुद्रः+इव) आकाश के समान (पप्रथे) सर्वत्र व्यापक है (अस्य) इस इन्द्र का (सः) परम प्रसिद्ध वह (सत्यः) सत्य (महिमा) महत्त्व और (शवः) बल (यज्ञेषु) शुभकर्मों में तथा (विप्रराज्ये) विज्ञानी पुरुषों के राज्य में (गृणे) प्रशंसित होते हैं, तुम भी उसी को गाओ ॥४ ॥
भावार्थ
यह सम्पूर्ण जगत् मिलकर भी परमात्मा की महिमा को समाप्त नहीं कर सकता । आकाश का अन्त संभव है, परन्तु उस अनन्तदेव का कहीं अन्त नहीं । तथापि वह हमारी सखा के समान रक्षा करता है । ईदृश ईश को भजो ॥४ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( अयं ) यह स्वामी, प्रभु ( सहस्रं ) सहस्रों वार वा सहस्रों ( ऋषिभिः ) ज्ञानदर्शी तत्वज्ञानी पुरुषों से ( सहस्कृतः ) बल युक्त किया जाकर ( समुद्रः इव ) समुद्र के समान, ( पप्रथे ) विस्तार को प्राप्त होता है । ( सः अस्य ) वह इसका ( सत्यः महिमा ) सच्चा महान् सामर्थ्य है जो ( विप्र-राज्ये ) विद्वानों के शासन में ( यज्ञेषु ) यज्ञ, सत्संगादि में ( शव: ) उसके बल और ज्ञान की ( गुणे ) चर्चा और स्तुति की जाती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञेषु विप्रराज्ये
पदार्थ
[१] (अयम्) = ये प्रभु (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों से (सहस्रम्) = आनन्दपूर्वक (सहस्कृतः) = अपना बल [सहस्] बनाते हैं। अर्थात् ऋषि लोग प्रभु को हृदयों में धारण करते हुए, प्रभु के बल से अपने को बल-सम्पन्न बनाते हैं। ये प्रभु (समुद्रः इव) = समुद्र के समान (पप्रथे) = विस्तृत हैं। समुद्र अनन्त-सा प्रतीत होता है, प्रभु हैं ही अनन्त। [२] (सः) = वह (अस्य) = इसकी (महिमा) = महिमा (सत्यः) = सत्य है कि (यज्ञेषु) = यज्ञों में और (विप्रराज्ये) = ज्ञानियों के राज्य में (शवः गृणे) = इस प्रभु के बल का स्तवन होता है। स्तुत्य बलवाले वे प्रभु हैं, प्रभु का यह बल यज्ञों व ज्ञानयज्ञों का रक्षण करता है।
भावार्थ
भावार्थ- ऋषि प्रभु को ही अपना बल बनाते हैं। प्रभु सर्वव्यापक हैं। प्रभु के बल का सर्वत्र यज्ञों व ज्ञानयज्ञों में स्तवन होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
This Indra, adored and exalted by poets and sages a thousand ways to power and glory, rises like the sea. Ever true and inviolable is he, and I celebrate his might and grandeur expanding in the yajnic programmes of the dominion of the wise.
मराठी (1)
भावार्थ
जो कर्मयोगी अनेक ऋषींकडून धनुर्विद्या प्राप्त करून आपल्या बलप्रभावाने सर्वत्र प्रसिद्ध असतो. तो संपूर्ण देशात पूज्य ठरतो व आपल्या स्थिर व बल पराक्रमाद्वारे विद्वानाकडून सत्कार करण्यायोग्य असतो. यज्ञात याज्ञिक लोक त्याची स्तुती करतात. ॥४॥
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