ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
आ॒त्मा पि॒तुस्त॒नूर्वास॑ ओजो॒दा अ॒भ्यञ्ज॑नम् । तु॒रीय॒मिद्रोहि॑तस्य॒ पाक॑स्थामानं भो॒जं दा॒तार॑मब्रवम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒त्मा । पि॒तुः । त॒नूः । वासः॑ । ओ॒जः॒ऽदाः । अ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम् । तु॒रीय॑म् । इत् । रोहि॑तस्य । पाक॑ऽस्थामानम् । भो॒जम् । दा॒तार॑म् । अ॒ब्र॒व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आत्मा पितुस्तनूर्वास ओजोदा अभ्यञ्जनम् । तुरीयमिद्रोहितस्य पाकस्थामानं भोजं दातारमब्रवम् ॥
स्वर रहित पद पाठआत्मा । पितुः । तनूः । वासः । ओजःऽदाः । अभिऽअञ्जनम् । तुरीयम् । इत् । रोहितस्य । पाकऽस्थामानम् । भोजम् । दातारम् । अब्रवम् ॥ ८.३.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथोपसंहारे पितुः ब्रह्मदायहरः कर्मयोगी स्तूयते।
पदार्थः
यः कर्मयोगी (पितुः, आत्मा, तनूः) जनकस्य आत्मैव तनूरेव (वासः) वास इव रक्षकः (ओजोदाः) बलोत्पादकः (अभ्यञ्जनं) अभितः आत्मनः शोधकम् (तुरीयं, इत्) शत्रूणां हिंसितारं (रोहितस्य, दातारं) रोहिताश्वस्य दातारं (भोजं) उत्कृष्टपदार्थानां भोक्तारं (पाकस्थामानं) पक्वबलं कर्मयोगिणं (अब्रवं) प्रार्थये ॥२४॥ इति तृतीयं सूक्तमेकोनत्रिंशत्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
विषयः
पुनस्तमेव दर्शयति ।
पदार्थः
अयं ममात्मा । पितुस्तनूः=मम जनकस्य परमात्मनो वा गुणान् तनोति विस्तारयति यः सः । पुनः । वासः=वासयिता=जगति प्रतिष्ठापयिता । पुनः । अभ्यञ्जनम्=अभिव्यक्तं यथा तथा । ओजोदाः= महाबलप्रदाता । ईदृशं पाकस्थामानम्=शरीरिणं जीवम् । अहमुपासकः । अब्रवम्=ब्रवीमि स्तौमि । कीदृशम् । तुरीयम्=चतुर्थकम् । इदेव । एकं शरीरम् । द्वितीयं कर्मज्ञानेन्द्रियम् । तृतीयं मनः । चतुर्थ आत्मा । अतस्तुरीयविशेषणम् । पुनः । रोहितस्य=रोहितनाम्नो मनसः । दातारम् । पुनः । भोजम्=नानाभोगानां भोजयितारम् ॥२४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उपसंहार में पिता से ब्रह्मविद्या प्राप्त किये हुए कर्मयोगी का स्तवन कथन करते हैं।
पदार्थ
जो कर्मयोगी (पितुः, आत्मा, तनूः) पिता ही की आत्मा तथा शरीर है (वासः) वस्त्र के समान अभिरक्षक तथा (ओजोदाः) बलों का दाता है (अभ्यञ्जनं) सब ओर से आत्मा के शोधक (तुरीयं, इत्) शत्रुओं के हिंसक (रोहितस्य, दातारं) रोहिताश्व के देनेवाले (भोजं) उत्कृष्ट पदार्थों के भोक्ता (पाकस्थामानं) पक्वबलवाले कर्मयोगी की मैं (अब्रवं) स्तुति करता हूँ ॥२४॥
भावार्थ
जिस कर्मयोगी ने अपने पिता से ब्रह्मविद्या तथा कर्मयोगविद्या का अध्ययन किया है, वह ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ होता है, या यों कहो कि वह मानो पिता के शरीर का ही अङ्ग है, जैसा कि धर्मशास्त्र में भी लिखा है कि “आत्मा वै जायते पुत्रः”=अपना आत्मा ही पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, इस वाक्य के अनुसार पुत्र पिता का आत्मारूप प्रतिनिधि है और इसी भाव को मनु० ३।३ en में इस प्रकार वर्णन किया है कि “तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः”=जो ब्रह्मविद्या के चमत्कार से प्रसिद्ध और जिसने अपने पिता से ही वेदरूप पैतृक सम्पत्ति को लाभ किया है, उस स्नातक का गोदान से सत्कार करे। इस प्रकार ब्रह्मविद्याविशिष्ट उस स्नातक के महत्त्व का इस मन्त्र में वर्णन है, जिसने अपने पिता के गुरुकुल में ही ब्रह्मविद्या का अध्ययन किया है ॥२४॥ यह तीसरा सूक्त और उन्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
फिर उसी को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
यह मेरा (आत्मा) आत्मा (पितुः) मेरे पिता और परमात्मा के गुणों का (तनूः) विस्तार करनेवाला है । पुनः (वासः) इस जगत् में वास अर्थात् प्रतिष्ठा देनेवाला है । पुनः (अभ्यञ्जनम्) विस्पष्टरूप से (ओजोदाः) बलदाता है । ऐसे (पाकस्थामानम्) इस शरीरी जीव की (अब्रवम्) मैं प्रशंसा करता हूँ । पुनः वह कैसा है (तुरीयम्+इत्) संख्या में चतुर्थ है, क्योंकि प्रथम शरीर, दूसरा इन्द्रियगण, तीसरा मन, चौथा आत्मा । पुनः (रोहितस्य+दातारम्) लोहितवर्ण मनरूप अश्व को देनेवाला । पुनः (भोजम्) विविध भोगों को भुगानेवाला है ॥२४ ॥
भावार्थ
सर्व शास्त्रों की यह शिक्षा है कि प्रथम आत्मतत्त्व को अच्छे प्रकार जानो । आत्मा शरीर से पृथक् एक वस्तु है या नहीं है, इस विवाद को छोड़कर इससे तुमको क्या-क्या लाभ पहुँच सकता है और वशीभूत आत्मा से जगत् में तुम कितने कार्य कर सकते हो, इसको ही प्रथम विचारो । इस में अद्भुत शक्ति है, जिसके द्वारा तुमको सर्व धन की प्राप्ति हो सकती है । वास्तव में यही चिन्तामणि, कल्पद्रुम और अमृत है, इसको जो योग्य काम में लगाते हैं । वे ही ऋषि, मुनि, कवि, आचार्य्य, ग्रन्थकर्त्ता, नूतन-२ विद्याविष्कर्ता होते हैं । निश्चय वे मनुष्यरूप में पशु हैं, जो इन्द्रियसहित आत्मा का माहात्म्य नहीं जानते हैं । जो अपने कुल और परमात्मा की कीर्त्ति को बढ़ाता, सत्य की स्थापना करता, ओजस्वी होता और ज्ञान-विज्ञान का विस्तार करता, वही आत्मा है । सूक्त के अन्त में आत्मगुणों को प्रकाशित करता हुआ वेद सिखलाता है कि हे मनुष्यो ! ईश ने तुमको सर्व गुणों का आकर आत्मा दिया है । इसी से तुम्हारे सर्व कार्य सिद्ध होंगे, यह निश्चय जानो । इति ॥२४ ॥
टिप्पणी
यह अष्टम मण्डल का तृतीय सूक्त और उन्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
मैं ( रोहितस्य ) वृद्धिशील, तेजस्वी, शरीर में उत्पन्न होने वाले जीव को ( दातारम् ) देने वाले ( पाकस्थामानम् ) दृढ़ बलशाली, ( भोजम् ) पालक प्रभु को ही ( तुरीयम् इत् अब्रवम् ) तुरीय, चतुर्थ परम पद के नाम से कहता हूं। वही ( आत्मा ) आत्मा, चेतन है, वह ( पितुः ) अन्नवत् जीवनाधार है। वह ( तनूः ) देहवत् प्रिय जगत् का विस्तार करने वाला है। वह ( वासः ) वस्त्रवत् आच्छादक, रक्षक और सर्वत्र बसने वाला सर्वव्यापक है। वही ( ओजः-दाः ) देह में आत्मावत् समस्त बल पराक्रम का दाता और ( अभ्यञ्जनम् ) तेलादि स्निग्ध पदार्थ के समान सर्वत्र कान्ति, स्नेह और प्रकाश देने वाला है। इत्येकोनत्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
भोजं तुरीयम्
पदार्थ
मैं (रोहितस्य) = जन्मनेवाले शरीर, प्रादुर्भूत जीवात्मा को (पाकस्थामानम्) = अत्यन्त बलशाली (भोजम्) = पालक प्रभु को (अब्रवम्) = बतलाता हूँ कि वे प्रभु (तुरीयम् इत्) = 'हिरण्यगर्भ, तैजस व प्राज्ञ' इन तीन पादों से ऊपर उठकर चतुर्थ 'शान्त शिव अद्वैत' पाद के रूप में हैं। (पाकस्थामानम्) = परिपक्व बलवाले हैं। (भोजम्) = सबका पालन करनेवाले हैं और पालन के लिये सब आवश्यक शक्तियों व पदार्थों के (दातारम्) = देनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- -प्रभु ही 'आत्मा, अन्न, शरीर, वस्त्र, ओज के दाता, कान्ति व शक्ति के दाता हैं। दाता' हैं। वे प्रभु 'तुरीय, पाकस्थामा, भोज व इस महान् देव का आतिशय करनेवाला 'देवातिथि' अगले सूक्त का ऋषि है। यह ' काण्व' मेधावी है। इन्द्र का स्तवन करता हुआ कहता है-
इंग्लिश (1)
Meaning
The individual self is but filial manifestation in reflection of the father, giver of the soul’s dwelling in body, giver of light and lustre, purifier and sanctifier, divine destroyer of evil, giver and cleanser of mind and its colourful fluctuations. I celebrate the holy father of purity and sanctity, giver of food and energy for the world of stability.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या कर्मयोग्याने आपल्या पित्याकडून ब्रह्मविद्या व कर्मयोग विद्येचे अध्ययन केलेले आहे तो ब्रह्मवेत्त्यात श्रेष्ठ असतो किंवा तो जणू पित्याच्या शरीराचे अंग असतो. जसे की धर्मशास्त्रात लिहिलेले आहे. ‘आत्मा वै जायते पुत्र’ आपला आत्माच पुत्ररूपाने उत्पन्न होतो. या वाक्यानुसार पुत्र पित्याचा आत्मारूप प्रतिनिधी असतो. हाच भाव मनु ३/३ मध्ये या प्रकारे वर्णन केलेले आहे, की ‘तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितु’ = जे ब्रह्मविद्येच्या चमत्काराने प्रसिद्ध व ज्याने आपल्या पित्याकडूनच वेदरूप पैतृक संपत्तीचा लाभ घेतलेला आहे. त्या स्नातकाचा गोदानाने सत्कार करावा. या प्रकारे ब्रह्मविद्या विशेष स्नातकाचे महत्त्व या मंत्रात वर्णन केलेले आहे. ज्याने आपल्या गुरुकुलामध्ये ब्रह्मविद्येचे अध्ययन केलेले आहे. ॥२४॥
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