ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 19
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
निरि॑न्द्र बृह॒तीभ्यो॑ वृ॒त्रं धनु॑भ्यो अस्फुरः । निरर्बु॑दस्य॒ मृग॑यस्य मा॒यिनो॒ निः पर्व॑तस्य॒ गा आ॑जः ॥
स्वर सहित पद पाठनिः । इ॒न्द्र॒ । बृ॒ह॒तीभ्यः॑ । वृ॒त्रम् । धनु॑ऽभ्यः । अ॒स्फु॒रः॒ । निः । अर्बु॑दस्य । मृग॑यस्य । मा॒यिनः॑ । निः । पर्व॑तस्य । गाः । आ॒जः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
निरिन्द्र बृहतीभ्यो वृत्रं धनुभ्यो अस्फुरः । निरर्बुदस्य मृगयस्य मायिनो निः पर्वतस्य गा आजः ॥
स्वर रहित पद पाठनिः । इन्द्र । बृहतीभ्यः । वृत्रम् । धनुऽभ्यः । अस्फुरः । निः । अर्बुदस्य । मृगयस्य । मायिनः । निः । पर्वतस्य । गाः । आजः ॥ ८.३.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 19
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ शस्त्रोपयोगिता कथ्यते।
पदार्थः
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (बृहतीभ्यः, धनुभ्यः) महद्भ्यः शस्त्रेभ्यः (वृत्रं) वारयितारं (निरस्फुरः) निरवधीः (अर्बुदस्य) मेघमिव (मायिनः) मायावन्तं (मृगयस्य) हिंसकं (निः) निरवधीः (पर्वतस्य) पर्वतसम्बन्धिनीः (गाः) पृथिवीः (निराजः) निरयमयः ॥१९॥
विषयः
अनया परमात्मनो न्यायं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वम् । बृहतीभ्यः=बृहद्भ्योऽत्र लिङ्गव्यत्ययः । धनुभ्यः=निर्जनप्रदेशेभ्योऽपि आनीय । वृत्रम्=चौरादिकम् । निरस्फुरः=निर्हंसि । स्फुरतिर्वधकर्मा । तथा । अर्बुदस्य=प्रजापीडकस्य । गाः=वाणीर्गोधनानि क्षेत्राणीत्येवं विधानि सर्वाणि वस्तूनि । निराजः=नितरां दूरेऽजसि क्षिपसि । तथा च । मृगयस्य=दुष्टाशयस्य मनुष्यव्याधस्य । मायिनः=कपटयुक्तस्य । पुनः । पर्वतस्य=पर्वतस्येव विघ्नोत्पादकस्य । गाः । निराजः=नितरां दूरे क्षिपसि विध्वंसयसीत्यर्थः । ईदृशं त्वामेव वयं गायामः ॥१९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब शस्त्रों के निर्माण का फल कथन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (बृहतीभ्यः, धनुभ्यः) बड़े-बड़े शस्त्रों से (वृत्रं) दुष्ट दस्यु को (निरस्फुरः) आपने नष्ट किया (अर्बुदस्य) मेघ के समान (मायिनः) मायावाले (मृगयस्य) हिंसक को भी (निः) नष्ट किया तथा (पर्वतस्य) पर्वत के ऊपर के (गाः) पृथिवी-प्रदेशों को (निराजः) निकाल दिया ॥१९॥
भावार्थ
याज्ञिक लोगों का कथन है कि हे कर्मयोगिन् ! आपने उत्तमोत्तम शस्त्र-अस्त्रादिकों के बल से ही बड़े-बड़े दस्युओं को अपने वशीभूत किया, जो अराजकता फैलाते, श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान करते और याज्ञिक लोगों के यज्ञ में विघ्नकारक थे। इन्हीं शस्त्रों के प्रभाव से आपने बड़े-बड़े हिंसक पशुओं का हनन करके प्रजा को सुरक्षित किया और इन्हीं शस्त्रास्त्रों के प्रयोग द्वारा पर्वतीय प्रदेशों को विजय किया, इसलिये प्रत्येक पुरुष को शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके युद्धविद्या में कुशल होना चाहिये ॥१९॥
विषय
इस ऋचा से परमात्मा का न्याय दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! तू (बृहतीभ्यः) महान् दूरस्थ (धनुभ्यः) निर्जन स्थानों से भी (वृत्रम्) चोर लम्पट इत्यादिकों को (निः+अस्फुरः) अतिशय नष्ट कर देता है । पुनः (अर्बुदस्य) प्रजापीड़क जन की (गाः) गायें, वाणियाँ, धन, क्षेत्र आदि सब पदार्थों को (निः+आजः) बहुत दूर फेंक देता है और (मृगयस्य) दुष्टाशय मनुष्यों की व मारनेवाले व्याधों की (मायिनः) कपटी पुरुषों की तथा (पर्वतस्य) पर्वतसमान विघ्नोत्पादक डाकू आदिकों की गाय आदि वस्तुओं को दूर फेंक देता है । ऐसे तुझको हम गाते हैं ॥१९ ॥
भावार्थ
इस महादेव का न्यायमार्ग सर्वत्र फैलाया है । उसको अल्पज्ञ नहीं देखते हैं । इसने कितने प्रकार के उत्पत्तिस्थान रचे हैं । कितने प्रकार के प्राणी हैं, मनुष्यों में भी सब तुल्य नहीं । हे विद्वानो ! ईश के न्यायालयों को देखो । हे क्षुद्रमानवो ! उससे भय करो ॥१९ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन् ! राजन् ! (बृहतीभ्यः धनुभ्यः) बड़ी २ धनुर्धर सेनाओं की प्रतिष्ठा के लिये तू ( वृत्रं निर् अस्फुरः ) धन को विनाश मत कर, उसकी रक्षा कर और विघ्नकारी शत्रु का नाश कर । ( अर्बुदस्य ) अत्यन्त अधिक ज्ञानी ( मृगयस्य ) शुद्ध वा स्वामी प्रभु के अन्वेषक, ( मायिनः ) बुद्धिमान् ( पर्वतस्य ) मेघ तुल्य सब के पालक पुरुष की ( गाः निर् अजः ) वाणियों को हृदय से निकाल वा ग्रहण कर। अथवा ( मायिनः ) मायावी ( अर्बुदस्य ) हिंसाकारी ( मृगयस्य ) सिंहवत् दुष्ट स्वभाव की ( गाः ) चालों को ( निर् अज ) दूर कर और ( पर्वतस्य ) पर्वतवत् दुर्गम स्थान के (गाः) मार्गों को ( निः ) निकाल, बना ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'अर्बुद - मृगय-मायी पर्वत' से गौओं को बाहिर करना
पदार्थ
[१] (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (बृहतीभ्यः धनुर्म्यः) = वृद्धि के कारणभूत प्रणव [ओंकार] रूप धनुषों के द्वारा (वृत्रम्) = वासनारूप शत्रु को (निः अस्फुरः) = निश्चय से विनष्ट करनेवाला हो। 'ओ३म्' के जप के द्वारा तू वासना को अपने से दूर कर। [२] (अर्बुदस्य) = कुटिलता की वृत्ति, (मृगयस्य) = तृष्णा की वृत्ति की [मृग अन्वेषणे । सदा धन की खोज में रहना] तथा (मायिन:) = अत्यन्त मायाविनी कामवृत्ति की शिकार बनी हुई (गाः) = इन्द्रियों को (निः आज:) = इन वृत्तियों से बाहर कर । तथा (पर्वनस्य) = अविद्या पर्वत में निरुद्ध इन इन्द्रियों को इस पर्वत से (निः) = [आज] बाहिर गतिवाला कर।
भावार्थ
भावार्थ- प्रणव [ओ३म्] के जप से हम वासना को विनष्ट करें। इन्द्रियों को 'कुटिलता, तृष्णा, काम व अविद्या' का शिकार न होने दें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, even from far and wide regions you destroy the forces of darkness and evil, free helpless victims of the mighty violent and crafty demon, set in motion showers of the cloud and open out treasures of the mountain.
मराठी (1)
भावार्थ
याज्ञिक लोक म्हणतात, हे कर्मयोग्यांनो ! तुम्ही उत्तमोत्तम शस्त्र अस्त्र इत्यादीच्या बलाने मोठमोठ्या दस्यूंना आपल्या वशीभूत केलेले आहे, जे अराजकता पसरवितात, श्रेष्ठ पुरुषांचा अपमान करतात व याज्ञिक लोकांच्या यज्ञात विघ्न आणतात. या शस्त्रांनी तुम्ही मोठमोठ्या हिंसक पशूंचे हनन करून प्रजेला सुरक्षित केलेले आहे व याच शस्त्रास्त्रांच्या प्रयोगाने पर्वतीय प्रदेशावर विजय प्राप्त केलेला आहे. त्यासाठी प्रत्येक पुरुषाला शस्त्रास्त्रांचे ज्ञान प्राप्त करून युद्ध विद्येत कुशल झाले पाहिजे ॥१९॥
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