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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    भू॒याम॑ ते सुम॒तौ वा॒जिनो॑ व॒यं मा न॑: स्तर॒भिमा॑तये । अ॒स्माञ्चि॒त्राभि॑रवताद॒भिष्टि॑भि॒रा न॑: सु॒म्नेषु॑ यामय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भू॒याम॑ । ते॒ । सु॒ऽम॒तौ । वा॒जिनः॑ । व॒यम् । मा । नः॒ । स्तः॒ । अ॒भिऽमा॑तये । अ॒स्मान् । चि॒त्राभिः॑ । अ॒व॒ता॒त् । अ॒भिष्टि॑ऽभिः । आ । नः॒ । सु॒म्नेषु॑ । य॒म॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूयाम ते सुमतौ वाजिनो वयं मा न: स्तरभिमातये । अस्माञ्चित्राभिरवतादभिष्टिभिरा न: सुम्नेषु यामय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूयाम । ते । सुऽमतौ । वाजिनः । वयम् । मा । नः । स्तः । अभिऽमातये । अस्मान् । चित्राभिः । अवतात् । अभिष्टिऽभिः । आ । नः । सुम्नेषु । यमय ॥ ८.३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वाजिनः, वयं) धनवन्तः सन्तो वयं (ते, सुमतौ) तव सुबुद्धौ (भूयाम) वृत्ताः स्याम (अभिमातये) अभिमानिने शत्रवे (नः) अस्मान् (मा)(स्तः) अहिंसीः (चित्राभिः, अभिष्टिभिः) बहुविधैरभिलाषैः (अस्मान्, अवतात्) अस्मान् रक्षतात् (नः) अस्मान् (सुम्नेषु) सुखेषु (आ, यमय) आयतान् कुरु ॥२॥

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    विषयः

    अनयाऽऽशिषं प्रार्थयते ।

    पदार्थः

    हे भगवन् ! वाजिनः=सर्वज्ञानमयस्य । ते=तव । सुमतौ=कल्याण्यां मतौ तवाज्ञायामित्यर्थः । वयं भूयाम=तिष्ठाम । तवाज्ञां न कदाप्युल्लङ्घयाम । यद्वा । तव सुमतौ स्थिता वयं वाजिनः=विज्ञानवन्तो भूयाम । हे इन्द्र ! अभिमातये=अभिमातिरज्ञानं तस्मै । नोऽस्मान् । मा स्तः=मा हिंसीः । वयमज्ञा इति हेतोरस्मान् मा वधीः । स्तृङ् हिंसायां माङि लुङि छान्दसश्च्लेर्लुक् । पुनः । अस्मान्=तवाधीनान् । अभिष्टिभिः=अभ्येषणीयाभिः= प्रार्थनीयाभिः । चित्राभिः=नानाविधाभी रक्षाभिरिति शेषः । अवतात्=अव=रक्ष । नोऽस्मान् । सुम्नेषु=निःश्रेयसेषु अभ्युदयेषु च । आयामय=समन्तात् स्थापय ॥२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वयं) हम लोग (वाजिनः) धनवान् होकर (ते, सुमतौ) आपकी सुबुद्धि में (भूयाम) वर्तमान हों (अभिमातये) अभिमानी शत्रु के लिये (नः) हमको (मा) मत (स्तः) हिंसित करें (चित्राभिः, अभिष्टिभिः) अनेक अभिलाषाओं से (अस्मान्, अवतात्) हमको सुरक्षित करके (नः) हमको (सुम्नेषु) सुखों में (आ, यमय) सम्बद्ध करें ॥२॥

    भावार्थ

    हे कर्मयोगी भगवन् ! आप ऐसी कृपा करें कि हम लोग ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर आपके सदृश उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हों, हम अभिमानी शत्रुओं के पादाक्रान्त न हों, हे प्रभो ! आप हमारी कामनाओं को पूर्ण करें, जिससे हम सुखसम्पन्न होकर सदैव परमात्मा की आज्ञापालन में प्रवृत्त रहें ॥२॥

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    विषय

    इससे आशीर्वाद की प्रार्थना करते हैं ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (वाजिनः+ते) सर्वज्ञानमय तेरी (सुमतौ) कल्याणी बुद्धि में अर्थात् आज्ञा में (वयम्+भूयाम) सदा हम स्थित होवें । तेरी आज्ञा का उल्लङ्घन कदापि न करें । यद्वा (ते+सुमतौ) तेरी आज्ञा में स्थित होकर (वयम्) हम उपासक (वाजिनः) ज्ञानवान् होवें । हे भगवन् ! (अभिमातये) अज्ञान के लिये (नः) हमको (मा+स्तः) मत हिंसित कर । हम मनुष्य अज्ञानी हैं, तेरी आज्ञा में नहीं रहते हैं, इस कारण हम पर क्रोध न कर, किन्तु (अस्मान्) हमको (चित्राभिः) नाना प्रकार (अभिष्टिभिः) अभ्यर्थनीय रक्षाओं के साथ (अवतात्) रक्षा कर । हे इन्द्र ! (नः) हमको (सुम्नेषु) ऐहिक और पारलौकिक सुखों के ऊपर (आयामय) स्थापित कर । यह प्रार्थना स्वीकृत हो ॥२ ॥

    भावार्थ

    हे भगवन् ! हम अज्ञ हैं, तेरी विभूति नहीं जानते, अतः हे जगदीश ! हम में वैसी शक्ति स्थापित कर, जिससे युक्त होकर हम तेरे आज्ञापालन में समर्थ होवें । हमको कुमार्ग से लौटा कर सुपथ की ओर ले चल ॥२ ॥

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् स्वामिन् ! ( दयं ) हम ( वाजिनः ) ज्ञान और ऐश्वर्यं के स्वामी होकर भी ( ते ) तेरी ( सु-मतौ ) उत्तम बुद्धि और ज्ञान के अधीन ( भूयाम ) रहें । तू ( नः ) हमें ( अभि-मातये ) अभिमानी पुरुष के स्वार्थ के लिये ( मा स्तः) मत पीड़ित कर । तू ( नः ) हमें ( सुम्नेषु ) सुखदायक प्रबन्धों में ( आ यमय ) बांध और ( चित्राभिः अभिष्टिभिः ) अद्भुत २ मनोकामनाओं से ( अस्मान् अवतात् ) हमें युक्त कर और हमारी रक्षा कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मा नः स्तः अभिमातये

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (वयम्) = हम (ते सुमतौ) = आपकी कल्याणी मति में चलते हुए (वाजिनः) = शक्तिशाली (भूमाय) = हों। इस प्रकार सुमति प्राप्त कराके आप (नः) = हमें (अभिमातये) = अभिमान रूप शत्रु के लिये (मा स्तः) = मत विनष्ट करिये। [२] (अस्मान्) = हमें आप (चित्राभिः) = अद्भुत (अभिष्टिभिः) = [इष्ट प्राप्तियों] के द्वारा (अवतात्) = सहायताओं [ assistance] से रक्षित करिये। तथा (नः) = हमें (सुम्नेषु) = आनन्दों में व अपने रक्षणों में (आयामय) = नियमित करिये। हमारा निवास सदा आनन्दों में व आपके रक्षणों में हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु की कल्याणी मति प्राप्त हो। हम अभिमान से दूर रहें। प्रभु अद्भुत सहायताओं द्वारा हमारा रक्षण करें और हमें अपने रक्षणों में स्थापित करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In your guidance and goodwill may we be prosperous and progressive with vibrancy. Hurt us not lest we fall a prey to an enemy. Protect us and advance us to all kinds of success with fulfilment of our aspirations, and lead us in a life of happiness, refinement and grace.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे कर्मयोगी भगवान! तुम्ही अशी कृपा करा की आम्ही ऐश्वर्यसंपन्न बनून तुमच्याप्रमाणे उत्तम कर्मात प्रवृत्त व्हावे. आम्हाला शत्रूने पादाक्रांत करू नये. हे प्रभो! तुम्ही आमच्या कामनांची पूर्तता करा, ज्यामुळे आम्ही सुखसंपन्न बनून सदैव परमात्म्याच्या आज्ञापालनात प्रवृत्त व्हावे. ॥२॥

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