ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
इन्द्र॒मिद्दे॒वता॑तय॒ इन्द्रं॑ प्रय॒त्य॑ध्व॒रे । इन्द्रं॑ समी॒के व॒निनो॑ हवामह॒ इन्द्रं॒ धन॑स्य सा॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । इत् । दे॒वऽता॑तये । इन्द्र॑म् । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे । इन्द्र॑म् । स॒म्ऽई॒के । व॒निनः॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । इन्द्र॑म् । धन॑स्य । सा॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमिद्देवतातय इन्द्रं प्रयत्यध्वरे । इन्द्रं समीके वनिनो हवामह इन्द्रं धनस्य सातये ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । इत् । देवऽतातये । इन्द्रम् । प्रऽयति । अध्वरे । इन्द्रम् । सम्ऽईके । वनिनः । हवामहे । इन्द्रम् । धनस्य । सातये ॥ ८.३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ शुभकर्मसु कर्मयोगिन आह्वानं कथ्यते।
पदार्थः
(वनिनः) उपासका वयं (देवतातये) देवैस्तननीये यज्ञे (इन्द्रं, इत्) कर्मयोगिनमेव (प्रयति, अध्वरं) यज्ञे प्रक्रान्ते (इन्द्रं) कर्मयोगिनमेव (समीके, इन्द्रं) संग्रामे इन्द्रमेव (धनस्य, सातये, इन्द्रं) धनलाभाय इन्द्रमेव (हवामहे) आह्वयामः ॥५॥
विषयः
सर्वस्मिन् शुभकर्मणि परमात्मैव पूज्यो नान्य इत्यनया शिक्षते ।
पदार्थः
देवतातये=देवैर्विद्वद्भिस्तायते विस्तार्य्यते यः स देवतातिः शुभकर्म । तस्मै । इन्द्रमिद्=इन्द्रमेव । वयं हवामहे=आह्वयामहे । यद्वा । देवा विद्वांसस्तायन्ते पूज्यन्ते यस्मिन् स देवतातिः गृहस्थानां गृह्यं कर्म । तदर्थं गृहस्था वयमिन्द्रं हवामहे । अध्वरे=यज्ञे । प्रयति=प्रगच्छति सति । इन्द्रमेव हवामहे । समीके=संग्राम उपस्थिते सति । इन्द्रमेव हवामहे । वनिनः=वनितुं दीनेषु संविभाजयितुं शीलं येषामिति वनिनो दातारो वयम् । क्षीणे क्षीणे धने । धनस्य=वित्तस्य । सातये=लाभाय । इन्द्रमेव हवामहे ॥५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सब शुभ कामों में कर्मयोगी का आह्वान करना कथन करते हैं।
पदार्थ
(वनिनः) उपासक लोग (देवतातये) यज्ञ में (इन्द्रं, इत्) कर्मयोगी को ही (प्रयति, अध्वरे) यज्ञ प्रारम्भ होने पर (इन्द्रं) कर्मयोगी को ही (समीके, इन्द्रं) संग्राम में कर्मयोगी को ही (धनस्य, सातये, इन्द्रं) धनलाभार्थ कर्मयोगी को ही (हवामहे) आह्वान करते हैं ॥५॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष तथा ऐश्वर्य्यसम्पन्न श्रीमान् प्रजाजन विद्वानों से सुशोभित धर्मसमाज में, यज्ञ के प्रारम्भ होने पर, संग्राम उपस्थित होने पर और धन उपार्जनवाले कामों के प्रारम्भ करने में कर्मयोगी को आह्वान करते=बुलाते हैं अर्थात् ऐसे शुभ कामों को कर्मयोगी की सम्मति से प्रारम्भ करते हैं, ताकि उनमें सफलता प्राप्त हो ॥५॥
विषय
सब शुभकर्म में परमात्मा ही पूज्य है, अन्य नहीं, यह इस ऋचा से शिक्षा देते हैं ।
पदार्थ
(देवतातये) जो शुभकर्म देवों के द्वारा विस्तारित हो, उसे देवताति कहते हैं । यद्वा देवों का सत्कार जिसमें हो, वह देवताति=गृहस्थों का गृह्यकर्म । उसके लिये (इन्द्रम्+इत्) इन्द्रवाच्य परमात्मा को ही हम मनुष्य (हवामहे) बुलाते हैं, यज्ञ में उसी को पूजते हैं, परमात्मा का ही आवाहन करते हैं (अध्वरे) मानसिक यज्ञ जहाँ (प्रयति) प्रारब्ध होता है । वहाँ भी योगसिद्धि के लिये (इन्द्रम्) इन्द्र को ही बुलाते हैं । (समीके) संग्राम में भी विजयलाभार्थ (इन्द्रम्) इन्द्र को ही बुलाते हैं (वनिनः) दानशील हम उपासक (धनस्य) धन की (सातये) प्राप्ति के लिये (इन्द्रम्) इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । जब-२ धन की आवश्यकता होती है, तब-२ परमात्मा की ही शरण लेते हैं । हे मनुष्यो ! तुम भी प्रत्येक शुभकर्म में उसी को पूजो ॥५ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! परमात्मा को वारंवार स्मरण कर लौकिक और वैदिक सर्व कर्म करो । सर्वत्र उसी को पूजो । वही सबका अधिपति है । जो श्वास-प्रश्वास लेता, चलता, अथवा स्थिर है, उन सबका कर्ता वही है । निश्चय सूर्य्यादिकों का भी जनक वही है । तब कौन अन्य उपास्य है । मुग्धजन अन्य देवों की उपासना करते हैं ॥५ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( देव-तातये ) विद्वानों से किये जाने वाले यज्ञादि उत्तम कार्य वा स्वयं ( देव-तातये ) देव अर्थात् याचकों के हित के लिये (वयं ) हम लोग ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवान् स्वामी को ( हवामहे ) बुलाते हैं, (अध्वरे प्रयति ) यज्ञ प्रवृत्त होने पर भी हम ( वनिनः ) दानशील होकर ( इन्द्रं हवामहे ) परमैश्वर्यप्रद प्रभु की स्तुति करते हैं । ( समीके ) युद्ध के अवसर पर ( वनिनः ) ऐश्वर्यवान् वा शत्रुहिंसक होकर भी हम ( इन्द्रं ) शत्रुहन्ता सेनापति स्वामी को स्वीकार करते हैं, ( धनस्य सातये ) धन के लाभ के लिये हम उस ऐश्वर्यप्रद की ही स्तुति-प्रार्थना करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
इन्द्र की आराधना
पदार्थ
[१] हम (इन्द्रं इत्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (देवतातये) = दिव्यगुणों के विस्तार के लिये (हवामहे) = पुकारते हैं (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को ही (प्रयति अध्वरे) = इस चलते हुए जीवन यज्ञ के निमित्त, अर्थात् जीवनयज्ञ की रक्षा के लिये पुकारते हैं। [२] (इन्द्रम्) = उस शत्रु विद्रावक प्रभु को ही समीके संग्रामों में पुकारते हैं, प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही तो हम शत्रुओं का विद्रावण कर पायेंगे। [२] (वनिन:) = सम्भजन करनेवाले हम (धनस्य सातये) = धन की प्राप्ति के लिये उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को पुकारते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की आराधना से ही [क] दिव्यगुणों का विस्तार होता है, [ख] जीवनयज्ञ सुरक्षित रूप से चलता है, [ग] संग्राम में हम विजयी बनते हैं और [ग] धनों की प्राप्ति में समर्थ होते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
We invoke Indra for our programmes of natural and environmental development. We invite Indra when the yajna of development is inaugurated. Lovers and admirers dedicated to him, we pray for his grace in our struggles of life, and we solicit his favour and guidance for the achievement of wealth, honour and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान पुरुष व ऐश्वर्यसंपन्न प्रजा, विद्वानांनी सुशोभित धर्मसमाजात, यज्ञाचा आरंभ झाल्यावर, युद्ध सुरू झाल्यावर, धन उपार्जन करणाऱ्या कामाचा प्रारंभ झाल्यावर, कर्मयोग्याला बोलावितात. अर्थात अशा शुभ कामाला कर्मयोग्याच्या संमतीने प्रारंभ करतात, व त्यांना त्यात सफलता प्राप्त व्हावी ॥५॥
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