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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - वरुणः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तमू॒ षु स॑म॒ना गि॒रा पि॑तॄ॒णां च॒ मन्म॑भिः । ना॒भा॒कस्य॒ प्रश॑स्तिभि॒र्यः सिन्धू॑ना॒मुपो॑द॒ये स॒प्तस्व॑सा॒ स म॑ध्य॒मो नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ऊँ॒ इति॑ । सु । स॒म॒ना । गि॒रा । पि॒तॄ॒णाम् । च॒ । मन्म॑ऽभिः । ना॒भा॒कस्य॑ । प्रस॑स्तिऽभिः॑ । यः । सिन्धू॑नाम् । उप॑ । उ॒त्ऽअ॒ये । स॒प्तऽस्व॑सा । सः । म॒ध्य॒मः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमू षु समना गिरा पितॄणां च मन्मभिः । नाभाकस्य प्रशस्तिभिर्यः सिन्धूनामुपोदये सप्तस्वसा स मध्यमो नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ऊँ इति । सु । समना । गिरा । पितॄणाम् । च । मन्मऽभिः । नाभाकस्य । प्रसस्तिऽभिः । यः । सिन्धूनाम् । उप । उत्ऽअये । सप्तऽस्वसा । सः । मध्यमः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Him you adore and glorify with sincere mind, holy voice, songs of forefathers and hymns of sages risen above the problems of lower world. Adore the lord at the heart of things, at the head of the seven streams of existence and at the beginning of the rise of creative evolution of the seven oceans of Prakrti across five gross elements, subtle elements and the spiritual and intelligential world. Do that and all oppositions, contraries and contradictions would disappear.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याची (परमेश्वराची) स्तुती आपल्या भाषेद्वारे किंवा पूर्वी रचलेल्या स्तोत्राद्वारे कोणत्याही प्रकारे करावी. यात मनुष्याचे कल्याण आहे. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे मनुष्यगण ! तमु=तमेव वरुणवाच्यमीशम् । समना=समानया । गिरा=स्तुत्या । सु स्तुहि । च पुनः । पितृणां=पूर्वजानाम् । मन्मभिः=मननीयैः स्तोत्रैः । सुपूजय । तथा । नाभाकस्य=संसारनिरक्तस्य ऋष्यादेः । प्रशस्तिभिः=प्रशंसात्मकैः स्तोत्रैश्च पूजय । यः परमात्मा । सिन्धूनां=स्यन्दनशीलानाम् इन्द्रियाणाम् । उप=समीपे । उदये=उद्गच्छति । यश्च । सप्तस्वसा=सप्तानां चक्षुरादीनां । स्वसा=कल्याणप्रदः । स्वं धनं कल्याणं सनोति ददातीति स्वसा स एवेशः । मध्यमः=सर्वेषां मध्ये स्थितः । हे मनुष्यवर्ग ! तेन । समे=सर्वे । अन्यके=अन्ये शत्रवः । नभन्ताम्=नश्यन्तु ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे मनुष्यगण ! आप (तम्+उ) उसी वरुणवाच्य ईश्वर की (समना) समान (गिरा) स्तुति से (सु) अच्छे प्रकार स्तुति कीजिये (पितृणाम्+च) और अपने पूर्वज पितरों के (मन्मभिः) मननीय स्तोत्रों से स्तुति कीजिये (नाभाकस्य) संसारविरक्त ऋष्यादिकृत (प्रशस्तिभिः) प्रशंसनीय स्तोत्रों से उसकी स्तुति कीजिये । (यः) वरुणदेव (सिन्धूनाम्) स्यन्दनशील इन्द्रियों के (उप) समीप में (उदये) उदित होता है और जो (सप्तस्वसा) दो नयन, दो कर्ण, दो घ्राण और एक मुखस्थ रसना, इन सातों के कल्याणप्रद है, (सः) वही (मध्यमः) सबके मध्य में स्थित है । उसकी स्तुति से (समे+अन्यके+नभन्ताम्) सर्व शत्रु नष्ट हों ॥२ ॥

    भावार्थ

    उसकी स्तुति अपनी भाषा द्वारा या पूर्व रचित स्तोत्र द्वारा किसी प्रकार करे, इससे मनुष्य का कल्याण है ॥२ ॥

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    विषय

    राजा के नाशार्थ उद्योग, पालक पुरुषों का नियोजन।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( सिन्धूनाम् ) स्यन्दनशील रक्तधाराओं के वा गतिशील प्राणों के ( उपोदये ) ऊपर उठने में ( सप्त-स्वसा ) सात स्वयं गतिशील मुख्य प्राणों से युक्त होने से सात भगिनियों वाला ( सः) वह ( मध्यमः ) सबके मध्य में मुख्य रूप से स्थित राजा के समान है । ( तम् ) उसको ( समना गिरा ) मान सहित वा ज्ञान सहित वाणी से और ( पितृणां च मन्मभिः ) पालक उपदेष्टा गुरुओं के मनन योग्य वचनों से और ( नाभाकस्य ) साक्षात् द्रष्टा पुरुष की ( प्रशस्तिभिः ) उत्तम उपदेश वाणियों से ( अर्च ) अर्चना कर। राजा भी ( सिन्धूनाम् ) वेगवान् अश्वादि सैन्य नायकों के (उदये) उत्थान काल में (सप्त-स्वसा) सर्पणशील सेनाओं को उत्तम रीति से संचालित करने में समर्थ ( मध्यमः ) मध्यस्थित प्रधान पुरुषवत् है उसको ( समना गिरा ) समान, अनुरूप वाणी और पालकों के वचनों और ( नाभाकस्य ) शत्रु हिंसक रक्षक की ( प्रशस्तिभिः ) उत्तमाधिकार शासन वाणियों से ( उप ) युक्त करो। ( नभन्ताम् अन्यके समे ) जिससे अन्य सब द्वेष बुद्धि वाले दुर्बुद्धि पुरुष ( नभन्ताम् ) बुराई करने में समर्थ न रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सप्तस्वसा' स 'मध्यमः '

    पदार्थ

    [१] (तम्) = उस प्रभु को (ऊ) = ही (समना गिरा) = मननयुक्त वाणी के द्वारा (च) = तथा (पितृणां मन्मभिः) = रक्षक पुरुषों के मननीय स्तुविचनों के द्वारा तथा (नाभाकस्य) = काम-क्रोध आदि का हिंसन करनेवाले पुरुष के (प्रशस्तिभिः =) शंसनवचनों के द्वारा (सु) [अभिष्टौमि] = सम्यक् स्तुत करता हूँ। [२] (यः) = जो प्रभु (सिन्धूनां) = स्यन्दनशील रेतःकणों के (उप) = समीप (उदये) = [उद्भव] उद्गत होते हैं, अर्थात् रेत: कणों का रक्षण होने पर प्रभु का दर्शन होता है। (सः) = वे प्रभु (सप्तस्वसा) = [सप्त स्व-सृ] सात छन्दोरूप आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाली वेदवाणियोंवाले हैं। (मध्यमः) = सबके मध्य में होनेवाले हैं-सबके अन्दर विद्यमान हैं। इन अन्तः स्थित प्रभु के अनुग्रह से (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानयुक्त वाणियों से मननीय स्तोत्रों से तथा शंसनवचनों से हम प्रभु का स्तवन करें। सोमरक्षण के होने पर इस प्रभु का प्रकाश प्राप्त होता है। वे प्रभु सात छन्दोरूप वेदवाणियों के देनेवाले हैं, सबके अन्दर व्याप्त हो रहे हैं। इन्हीं के अनुग्रह से शत्रुओं का विनाश होता है।

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