ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 6
यस्मि॒न्विश्वा॑नि॒ काव्या॑ च॒क्रे नाभि॑रिव श्रि॒ता । त्रि॒तं जू॒ती स॑पर्यत व्र॒जे गावो॒ न सं॒युजे॑ यु॒जे अश्वाँ॑ अयुक्षत॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । विश्वा॑नि । काव्या॑ । च॒क्रे । नाभिः॑ऽइव । श्रि॒ता । त्रि॒तम् । जू॒ती । स॒प॒र्य॒त॒ । व्र॒जे । गावः॑ । न । स॒म्ऽयुजे॑ । यु॒जे । अश्वा॑न् । अ॒यु॒क्ष॒त॒ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्विश्वानि काव्या चक्रे नाभिरिव श्रिता । त्रितं जूती सपर्यत व्रजे गावो न संयुजे युजे अश्वाँ अयुक्षत नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । विश्वानि । काव्या । चक्रे । नाभिःऽइव । श्रिता । त्रितम् । जूती । सपर्यत । व्रजे । गावः । न । सम्ऽयुजे । युजे । अश्वान् । अयुक्षत । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In him originate, abide, and centre all the imagination, wisdom and poetic creations of the world as in the nave centre all spokes of the wheel. Serve and adore the lord of three worlds and reach him without delay as cows hasten to the stall or as you hasten to yoke the horses to the chariot. May all distortions, dislocations, contradictions and enmities vanish from our life.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर स्वत: महाकवी आहे. तरीही विद्वान आपल्या वाणीला पवित्र करण्यासाठी ईश्वरीय स्तोत्र रचतात. स्वत:च्या कल्याणासाठी त्याची पूजा करा. आळस करू नका. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! वरुणस्य महिमानं पश्यत । यस्मिन् वरुणे । विश्वानि । काव्या=काव्यानि=कविकर्माणि । चक्रे= नाभिरिव । श्रिता=श्रितानि । तं त्रितं=त्रिषु स्थानेषु ततं व्याप्तम् । जूती=शीघ्रमेव । सपर्य्यत । पूजयत । व्रजे=गोष्ठे संयुजे=संयोगार्थं । गावो न=यथा व्रजं गन्तुं गावः शीघ्रतां कुर्वन्ति । यथा च मनुष्याः । युजे=युग्ये । अश्वान् । अयुक्षत=युञ्जन्ति । तद्वत् । शेषं पूर्वमुक्तम् ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! आप वरुणदेव की महिमा देखिये । (यस्मिन्) जिस वरुण में (विश्वा) सम्पूर्ण (काव्या) काव्यकलाप (श्रिता) आश्रित है । यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(चक्रे) रथ के चक्र में (नाभिः+इव) स्थापित रहता है । तद्वत् उस परमदेव में स्वयं काव्यकलाप स्थित हैं । हे मनुष्यों ! उस (त्रितम्) त्रिलोकव्यापी वरुण को (जूती) शीघ्र और प्रेम से (सपर्य्यत) पूजो, शीघ्रता में दृष्टान्त देते हैं−(गावः+न) जैसे गाएँ (व्रजे) गोष्ठ में (संयुजे) संयुक्त होने के लिये शीघ्रता करती हैं । तद्वत् । पुनः (युजे) युग्य में जैसे मनुष्य (अश्वान्) घोड़ों को (अयुक्षत) जोतते हैं, तद्वत् हे मनुष्यों ! आप अपने को ईश्वर की पूजा के लिये शीघ्रता करो ॥६ ॥
भावार्थ
ईश्वर स्वयं महाकवि है, तथापि अपनी वाणी पवित्र करने के लिये ईश्वरीय स्तोत्र रचते हैं । स्वकल्याणार्थ उसको पूजो । आलस्य मत करो ॥६ ॥
विषय
चक्र में नाभि के तुल्य प्रभु वा विद्वान् के कर्त्तव्य। गोशाला में पशुओं के तुल्य इन्द्रियों का संयम।
भावार्थ
( चक्रे नाभिः इव ) चक्र में नाभि के समान ( यस्मिन् ) जिस प्रभु में ( विश्वानि काव्या ) विद्वान् मेधावी पुरुषों के समस्त ज्ञान और कर्म ( श्रिता ) आश्रित हैं, ( त्रितं ) तीनों लोकों में व्यापक उस परमेश्वर को आप लोग ( जूती ) अति शीघ्र, प्रेमपूर्वक ( सपर्यत ) उपासना करो। हे विद्वान् पुरुषो ! ( व्रजे गावः न ) जिस प्रकार गोशाला में समस्त गौवें ( सं-युजे ) एकत्र रहने के लिये आती हैं उसी प्रकार ( व्रजे ) परम गन्तव्य उस प्रभु में ( सं-युजे ) अच्छी प्रकार योग करने के लिये ( गावः ) समस्त वाणियों और ज्ञानेन्द्रियों को भी संयुक्त करो। और ( युजे ) उसी योग साधन के लिये ( अश्वान् अयुक्षत ) अश्वों के तुल्य कर्मेन्द्रियों और मन की वृत्तियों को भी उसी परम पद में एकाग्र करो। इस प्रकार ( अन्यके समे नभन्ताम् ) अन्य समस्त दुष्ट संकल्प उत्पन्न नहीं होते और विशेष प्रतिपक्ष के भाव भी प्रबल नहीं होते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
त्रितं जूती सपर्यत
पदार्थ
[१] (यस्मिन्) = जिस प्रभु में (विश्वानि काव्या) = सब काव्य [वेदज्ञान] इस प्रकार (श्रिता) = आश्रित हैं, (इव) = जैसे (चक्रे) = चक्र में (नाभिः) = नाभि आश्रित होती है। उस (त्रितं) = तीनों के [ त्रीन् तनोति] विस्तार करनेवाले, 'ऋग्, यजु, साम' रूप तीनों के बढ़ानेवाले प्रभु को (जूती) = जव के द्वारा-वेग के द्वारा स्फूत से कर्मों को करने के द्वारा (सपर्यत) = पूजो। [२] (न) = जैसे (गावः) = सब गौवें (व्रजे) = बाड़े में (संयुजे) = साथ मेलवाली होती है, उसी प्रकार युजे उस प्रभु से मेल के लिए (अश्वान्) = इन इन्द्रियाश्वों को (अयुक्षत) = [युज समाधौ ] समाहित करो। इन्द्रियों को इधर-उधर भटकने से रोको जिससे (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु में ही सब वेदज्ञान निहित हैं। इस प्रभु को कर्मों द्वारा हम उपासित करें। इन्द्रियों से विषयों में भटकने से रोकें । यही शत्रुनाश का मार्ग है।
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