Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 41 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 9
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - वरुणः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    यस्य॑ श्वे॒ता वि॑चक्ष॒णा ति॒स्रो भूमी॑रधिक्षि॒तः । त्रिरुत्त॑राणि प॒प्रतु॒र्वरु॑णस्य ध्रु॒वं सद॒: स स॑प्ता॒नामि॑रज्यति॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । श्वे॒ता । वि॒ऽच॒क्ष॒णा । ति॒स्रः । भूमीः॑ । अ॒धि॒ऽक्षि॒तः । त्रिः । उत्ऽत॑राणि । प॒प्रतुः॑ । वरु॑णस्य । ध्रु॒वम् । सदः॑ । सः । स॒प्ता॒नाम् । इ॒रज्य॒ति॒ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य श्वेता विचक्षणा तिस्रो भूमीरधिक्षितः । त्रिरुत्तराणि पप्रतुर्वरुणस्य ध्रुवं सद: स सप्तानामिरज्यति नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । श्वेता । विऽचक्षणा । तिस्रः । भूमीः । अधिऽक्षितः । त्रिः । उत्ऽतराणि । पप्रतुः । वरुणस्य । ध्रुवम् । सदः । सः । सप्तानाम् । इरज्यति । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The refulgent glory of Varuna who rules over everything illuminates the three worlds of earth, skies and heaven and rises over the three higher heavens. Indeed he pervades and rules over the constant universe of sevenfold order and illuminates it with light and beauty. May all darkness, ugliness and enmity be eliminated.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या ऋचेद्वारे परमेश्वराची महान शक्ती दाखविलेली आहे. जीवात्म्याच्या दृष्टीने हे तीन लोक आहेत. परंतु लोक लोकांतराची कोणती संख्या नाही. ही सृष्टी अनंत आहे. परमात्मा त्यांच्यापेक्षा वेगळा असूनही सर्वांमध्ये आहे, ही त्याची आश्यर्चकारक लीला आहे. हे माणसांनो! वैचारिकदृष्ट्या त्याच्या विभूती पाहा व तुम्ही काय आहात त्याचाही विचार करा. ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अधिक्षितः=सर्वोपरि निवसतः सर्वं च शासतश्च । यस्य वरुणस्य । श्वेता=श्वेतानि=श्वेतवर्णदिव्यानि । विचक्षणाः= तेजांसि । तिस्रो भूमीः । पुनः । उत्तराणि=उ=वराणि= उत्तमानि । त्रिः=त्रीणि भुवनानि । पप्रतुः=प्रथयन्ति= व्याप्नुवन्ति । यस्य च वरुणस्य । सदः=जगदात्मकं स्थानम् । ध्रुवम्=निश्चलमविनश्वरमस्ति । सः । सप्तानां=सर्पणशीलानां गतिमतामगतिमताञ्च सर्वेषां भुवनानां भूतानाञ्च । इरज्यति=ईष्टे स्वामी वर्तते । सिद्धमन्यत् ॥९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अधिक्षितः) सर्वोपरि निवास करते हुए और सबके ऊपर अधिकार रखते हुए (यस्य) जिस परमदेव के (श्वेता) श्वेत और दिव्य (विचक्षणा) तेज (तिस्रः+भूमीः) तीनों भूमियों में और (उत्तराणि) अत्युत्तम (त्रिः) तीनों भुवनों में (पप्रतुः) पूर्ण हैं और जिस वरुण का (सदः) यह जगद्रूप भवन (ध्रुवम्) निश्चल और अविनश्वर है । (सः) वही देव (सप्तानाम्) सर्पणशील जङ्गम और स्थावर पदार्थमात्र का (इरज्यति) स्वामी है, अतः हे मनुष्यों ! उसी की पूजा करो ॥९ ॥

    भावार्थ

    इस ऋचा द्वारा परमात्मा की महती शक्ति दिखलाते हैं । जीवात्मा की दृष्टि में ये तीन लोक हैं, परन्तु लोक-लोकान्तर की कोई संख्या नहीं है । आनन्तर यह सृष्टि है । परमात्मा उनसे भी ऊपर रहता हुआ सबमें है, यह इसकी आश्चर्य्यलीला है । हे मनुष्यों ! विचारदृष्टि से इसकी विभूतियाँ देखो और तुम क्या हो, सो भी विचारो ॥९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    त्रिलोकाधिपति वरुण परमेश्वर। राजा के सात अश्ववत् प्रभु का सब स्थावर जंगमों पर शासन।

    भावार्थ

    ( तिस्रः भूमी: ) तीनों भूमि लोकों में (अधि-क्षितः) अध्यक्षचत् निवास करने वाले ( यस्य ) जिसके ( विचक्षणा श्वेताः ) विविध पदार्थों को दर्शाने वाले उज्वल तेज, सूर्य विद्युदादि, ( उत्तराणि ) उनसे भी उत्कृष्ट (त्रिः) तीन लोकों को पूर्ण करते हैं उस ( वरुणस्य ) सर्वश्रेष्ठ प्रभु का (ध्रुवं सदः) विराजना या सत्तारूप से विद्यमान रहना ( ध्रुवम् ) नित्य है। ( सः ) वह प्रभु ( सप्तानाम् इरज्यति ) सातों का भी स्वामी रहता और उनको वश करता है। ( अन्यके समे नभन्ताम् ) उसके शासन में समस्त दुष्ट पुरुष नाश को प्राप्त होते हैं। (२) राजा के श्वेत, तेजस्वी वीर और अश्व हैं। उसका सर्वोपरि ( सदः ) आसन स्थिर है। वह ( सप्तानां ) सातों प्रकृतियों पर वशी होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स सप्तानाम् इरज्यति

    पदार्थ

    [१] (यस्य) = जिस (तिस्रः भूमी:) = तीनों पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक-लोकों में [भूमियों में] (अधिक्षित:) = अधिष्ठातृरूपेण निवास करते हुए प्रभु के (विचक्षणा) = विशेषरूप से प्रकाश को करनेवाले (श्वेता) = उज्ज्वल शक्ति व ज्ञान के तेज (त्रिः उत्तराणि) = तीनों उत्कृष्ट 'शरीर-मन व मस्तिष्क' रूप लोकों का (पप्रतुः) = पूरण करते हैं। उस (वरुणस्य) = पापनिवारक प्रभु का (सदः) = स्थान (ध्रुवं) = ध्रुव है। इस ब्रह्मलोक में पहुँचकर जीव 'अव्यय' स्थान को प्राप्त कर लेता है। (सः) = वे वरुण (सप्तानाम्) = सातों लाकों के 'भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्' के (इरज्यति) = ऐश्वर्यवाले हैं। ये सातों लोक प्रभु का ही ऐश्वर्य हैं। इस प्रभु के उपासन से (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ - तीनों लोकों के अधिष्ठाता प्रभु हमारे 'शरीर, मन व मस्तिष्क' को शक्ति व ज्ञान के तेज से पूरित करते हैं। ये प्रभु ही सातों लोकों के स्वामी हैं। इनके अनुग्रह से हमारे सब शत्रु विनष्ट हो जाएँ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top