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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - वरुणः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यः क॒कुभो॑ निधार॒यः पृ॑थि॒व्यामधि॑ दर्श॒तः । स माता॑ पू॒र्व्यं प॒दं तद्वरु॑णस्य॒ सप्त्यं॒ स हि गो॒पा इ॒वेर्यो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । क॒कुभः॑ । नि॒ऽधा॒र॒यः । पृ॒थि॒व्याम् । अधि॑ । द॒र्श॒तः । सः । माता॑ । पू॒र्व्यम् । प॒दम् । तत् । वरु॑णस्य । सप्त्य॑म् । सः । हि । गो॒पाःऽइ॑व । इर्यः॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः ककुभो निधारयः पृथिव्यामधि दर्शतः । स माता पूर्व्यं पदं तद्वरुणस्य सप्त्यं स हि गोपा इवेर्यो नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ककुभः । निऽधारयः । पृथिव्याम् । अधि । दर्शतः । सः । माता । पूर्व्यम् । पदम् । तत् । वरुणस्य । सप्त्यम् । सः । हि । गोपाःऽइव । इर्यः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Glorious, he holds and maintains the bounds of space over the earth. He is the original mother source of existence, he is the ultimate protector and sustainer, the highest adorable worthy of service for the knowledge and attainment of that eternal state of divine existence when and where all contraries, contradictions and enmities would disappear.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तो (परमेश्वर) जगाचा कर्ता आहे. त्यासाठी सर्वभावे तोच पूज्य व उपास्यदेव आहे. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    पृथिव्यामधि=पृथिव्या उपरि । दर्शतः=दर्शनीयः । विज्ञेयश्च । यो वरुणः । ककुभः=सर्वा दिशः । निधारयः=निधारयति । स एव । माता=जगतो निर्मातास्ति । तस्यैव वरुणस्य तत्पदं पूर्व्यं पूर्णं प्राचीनं । सप्त्यं=सर्वैः सर्पणशीलं विद्यते । स हि=स एव । गोपा इव=गोपालक इव । सर्वपालकः । तथा । ईर्य्यः=गम्योऽस्ति । शेषं व्याख्यातम् ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (पृथिव्याम्+अधि) पृथिवी के ऊपर दर्शनीय और विज्ञेय (यः) जो परमात्मा (ककुभः) सम्पूर्ण दिशाओं को (निधारयः) धारण करता है, (स माता) वही जगत् का भी निर्माता, पाता और संहर्ता है (वरुणस्य) उसी परमात्मा का (तत् पदम्) वह स्थान (पूर्व्यम्) पूर्ण और अति प्राचीन है और (सप्त्यम्) सबके जानने योग्य है (सः+हि) वही (गोपाः+इव) गोपालक के समान जगत् का पालक है, वह (ईर्यः) सर्वश्रेष्ठ ईश्वर है (नभन्ताम्) इत्यादि पूर्ववत् ॥४ ॥

    भावार्थ

    जिस कारण वह जगत् का कर्ता है, अतः सर्व भाव से वही पूज्य और उपास्यदेव है ॥४ ॥

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    विषय

    देह में प्राणों वा राजा का प्रजाओं को पालन करने का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( यः दर्शतः ) जो दर्शनीय वा सर्वद्रष्टा स्वामी होकर ( पृथिव्याम् अधि ) भूमि पर ( ककुभः ) पार्थिव देह में प्राणों के समान, समस्त दिशाओं वा उनमें निवासिनी विनीत प्रजाओं को ( नि धारयः ) नियम में रखता है ( सः ) वह (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ, प्रभु के (सप्तयं) उस सर्पण योग्य, प्राप्य ( पूर्व्यं पदम् ) सर्वोपरि पद को (माता) बनाने वाला, माता के समान पूज्य है। (सः हि) वही (गोपाः इव ) रक्षक के समान ( इर्य: ) रक्षक, स्वामी है। उसके द्वारा (अन्यके समे नभन्ताम्) समस्त अन्य दुष्ट संकल्प वाले पापी पुरुष नष्ट हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वरुणस्य

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो प्रभु (ककुभः) = सब दिशाओं को (निधारयः) = निश्चय से धारण करते हैं और जो (पृथिव्यां) = इस पृथिवी पर (अधिदर्शतः) = आधिक्येन दर्शनीय है- सर्वत्र [ सब पदार्थों में] उस प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है। (सः) = वे प्रभु ही (पूर्व्यं पदं माता) = मोक्षरूप लोक का निर्माण करनेवाले हैं। [२] (वरुणस्य) = द्वेष के निवारण करनेवाले का ही (तत्) = वह (सप्त्यं) = सर्पणयोग्य होता है। इस मोक्षपद को निर्देष व्यक्ति ही पाता है। (सः) = वे प्रभु (हि) = ही (गोपाः इव) = ग्वाले के समान है। ग्वाला जैसे गौओं का रक्षण करता है, उसी प्रकार प्रभु हमारा सबका रक्षण करते हैं। (ईर्यः) = वे प्रभु ही गन्तव्य हैं [ईर् गतौ]। हम सबको उस प्रभु की ओर ही चलना चाहिए, जिससे (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे प्रभु ही धारक हैं-सर्वत्र प्रभु की ही महिमा दृष्टिगोचर होती है। ये ही मोक्षलोक का भी निर्माण करते हैं। सबके रक्षक है।

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