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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - वरुणः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स क्षप॒: परि॑ षस्वजे॒ न्यु१॒॑स्रो मा॒यया॑ दधे॒ स विश्वं॒ परि॑ दर्श॒तः । तस्य॒ वेनी॒रनु॑ व्र॒तमु॒षस्ति॒स्रो अ॑वर्धय॒न्नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । क्षपः॑ । परि॑ । स॒स्व॒जे॒ । नि । उ॒स्रः । मा॒यया॑ । दधे॑ । सः । विश्व॑म् । परि॑ । द॒र्श॒तः । तस्य॑ । वेनीः॑ । अनु॑ । व्र॒तम् । उ॒षः । ति॒स्रः । अ॒व॒र्ध॒य॒न् । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स क्षप: परि षस्वजे न्यु१स्रो मायया दधे स विश्वं परि दर्शतः । तस्य वेनीरनु व्रतमुषस्तिस्रो अवर्धयन्नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । क्षपः । परि । सस्वजे । नि । उस्रः । मायया । दधे । सः । विश्वम् । परि । दर्शतः । तस्य । वेनीः । अनु । व्रतम् । उषः । तिस्रः । अवर्धयन् । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He joins and pervades the nights, super-glorious sun as he is, and with his might holds and sustains the world. All people of the world do homage to him in obedience to his law and glorify him through three phases of the day and time, morning, evening and mid day, past, present and future. May all phases of contraries, contradictions and enmities vanish from the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तो परमात्मा सर्वकाळी सर्वत्र व्यापक आहे हे जाणून पापापासून निवृत्त व्हावे. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे मनुष्यगण ! स वरुणवाच्य ईश्वरः । क्षपः=रात्रीः । परिषस्वजे=परिस्वजते । रात्रावपि मनुष्याणां सर्वाणि कर्माणि पश्यतीत्यर्थः । दर्शतः=परमदर्शनीयः स परमदेवः । उस्रः=उत्सरणशीलः सन् । मायया=स्वबुद्धया । विश्वं सर्वं परि=परितः । निदधे=नितरां दधाति । तस्य व्रतं=नियमम् । वेनीः=कामयमानाः सर्वाः प्रजाः । तिस्रः उषः=त्रिषु कालेष्वित्यर्थः । अवर्धयन्=वर्धयन्ति । सिद्धमन्यत् ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे मनुष्यगण ! (सः) वह वरुणवाच्य ईश्वर (क्षपः) रात्रि में भी (परि+षस्वजे) व्यापक है अर्थात् रात्रि में भी मनुष्यों के सर्व कर्मों को देखा करता है, (दर्शतः) परम दर्शनीय (सः) वह ईश्वर (उस्रः) सर्वव्यापी होकर (मायया) निज शक्ति और बुद्धि से (परि) चारों तरफ (विश्वम्) सकल पदार्थ को (नि+दधे) अच्छे प्रकार धारण किये हुए है । (तस्य+व्रतम्) उसके व्रत को (वेनीः) उससे कामनाओं की इच्छा करती हुई सारी प्रजाएँ (तिस्रः+उषः) तीन कालों में (अवर्धयन्) बढ़ा रही हैं । अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमान या प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल में उसकी कीर्ति बढ़ा रही हैं ॥३ ॥

    भावार्थ

    वह परमात्मा सब काल में सर्वत्र व्यापक है, यह जान पापों से निवृत्त रहे ॥३ ॥

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    विषय

    राजा का सैन्य-रक्षण। राष्ट्रस्थापन।

    भावार्थ

    ( क्षपः परि सस्वजे ) जिस प्रकार चन्द्रमा रात्रियों को प्राप्त होता है उसी प्रकार ( सः ) वह वरुण, सर्वश्रेष्ठ पुरुष भी ( क्षपः परि सस्वजे ) शत्रु पक्ष को नाश करने वाली सेनाओं को सदा अपने साथ संगत रक्खे। वह ( उस्रः ) उत्तम पद को प्राप्त होकर ( मायया ) अपनी बुद्धि और कर्म के द्वारा विश्व को प्रभु के समान ही ( विश्वं नि दधे ) समस्त राष्ट्र को नियम में स्थापित करे ( सः ) वह ( दर्शतः ) सबका द्रष्टा स्वामी होकर रहे। ( तस्य व्रतम् अनु ) उसके कर्म के अनुकूल ही रहकर ( तिस्रः वेनीः ) तीनों प्रकार की प्रजाएं उसे चाहती हुई ( तम् अवर्धयन् ) उसको बढ़ावें। इस प्रकार ( समे अन्यके ) उसके समस्त शत्रुगण ( नभन्ताम् ) नष्ट हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    उस्त्रः मायया निदधे

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (क्षप:) = [क्षप् - Throw away ] शत्रुओं को परे फेंकनेवालों का (परिषस्वजे) = आलिंगन करते हैं। (सः उस्रः) = वे प्रकाशमय प्रभु (मायया) = अपनी माया से, प्रज्ञान से (विश्वं निदधे) = सारे संसार को धारण करते हैं। (परिदर्शतः) = वेद दर्शनीय हैं। [२] (तस्य वेनी:) = उस प्रभु की प्राप्ति की कामनावाली प्रजाएँ (व्रतम् अनु) = व्रतों के अनुसार (तिस्रः) = तीनों (उषा) = उषाओं को (अवर्धयन्) = बढ़ाते हैं। 'उषस्' की भावना 'दोष दहन' की है। उपासक लोग व्रतमय जीवन बिताते हुए 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों के दोषों को दग्ध कर देते हैं। ऐसा करने पर (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो काम-क्रोध को विनष्ट कर देते हैं। व्रती जीवनवाले पुरुष शरीर, मन व बुद्धि के दोषों को दग्ध करते हुए प्रभु को प्राप्त होने के अधिकारी होते हैं।

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