ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 10
यः श्वे॒ताँ अधि॑निर्णिजश्च॒क्रे कृ॒ष्णाँ अनु॑ व्र॒ता । स धाम॑ पू॒र्व्यं म॑मे॒ यः स्क॒म्भेन॒ वि रोद॑सी अ॒जो न द्यामधा॑रय॒न्नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । श्वे॒तान् । अधि॑ऽनिर्निजः । च॒क्रे । कृ॒ष्णान् । अनु॑ । व्र॒ता । सः । धाम॑ । पू॒र्व्यम् । म॒मे॒ । यः । स्क॒म्भेन॑ । वि । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒जः । न । द्याम् । अधा॑रयत् । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः श्वेताँ अधिनिर्णिजश्चक्रे कृष्णाँ अनु व्रता । स धाम पूर्व्यं ममे यः स्कम्भेन वि रोदसी अजो न द्यामधारयन्नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । श्वेतान् । अधिऽनिर्निजः । चक्रे । कृष्णान् । अनु । व्रता । सः । धाम । पूर्व्यम् । ममे । यः । स्कम्भेन । वि । रोदसी इति । अजः । न । द्याम् । अधारयत् । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Varuna, who creates the beautiful world of white and black, light and dark, and the living beings of white and dark character, creates the worlds as ever in accordance with the rules and vows of the law of Dharma and Dharma in action in the earlier life of human beings and others. Thus he, the unborn, maintains the world as he does heaven and the middle regions by his constant might. May all darkness and evil vanish from life.
मराठी (1)
भावार्थ
तो परमात्माच दिवस-रात्र व सात्त्विक आणि तामस जीवांना बनवितो. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अनुव्रता=व्रतानि=कर्माणि लक्षीकृत्य । यो वरुणः । श्वेतान् । निर्णिजो रश्मीन् दिवसानित्यर्थः । अधिचक्रे=अधिकरोति । निर्मातीत्यर्थः । पुनः । कृष्णान् । निर्णिजः=रात्रीः । चक्रे । यद्वा श्वेतान्=सात्त्विकान् । कृष्णान्=तद्विपरीतान् । निर्णिजः= जीवान् । करोतीत्यर्थः । सः । अनुव्रता=अनुव्रतानि । व्रतानि कर्माणि लक्षीकृत्य च । पूर्व्ये=पूर्ववत् पूर्णं पूर्वं वा । धाम=स्थानं । ममे=निर्माति । यश्च पुनः । स्कम्भेन=स्वमहिम्ना । रोदसी=परस्पररोधनशीले द्यावापृथिव्यौ । वि=विशेषेण । अधारयत्=धारयति । अत्र लौकिकदृष्टान्तः, अजो न द्याम्=सूर्य्य इव द्याम् । यथा सूर्य्यः ग्रहान् धारयति तद्वत् ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अनु+व्रता) कर्मों के अनुसार (यः) जो वरुणवाच्य परमात्मा (श्वेतान्) श्वेत (निर्णिजः) किरणों को अर्थात् दिनों को (अधि+चक्रे) बनाता है और (कृष्णान्) कृष्ण किरणों को अर्थात् रात्रियों को बनाता है अथवा (श्वेतान्) सात्त्विक और (कृष्णान्) तद्विपरीत तामस (निर्णिजः) जीवों को बनाता है । पुनः (अनु+व्रता) कर्म के अनुसार ही (सः) वह वरुण (पूर्व्यम्+धाम) पूर्व धाम को (ममे) रचता है । (यः) जो (स्कम्भेन) स्व महिमा से (रोदसी) परस्पर रोधनशील द्यावापृथिवी को (वि+अधारयत्) अच्छे प्रकार धरे हुए है । यहाँ लौकिक दृष्टान्त देते हैं (अजः+न+द्याम्) जैसे सूर्य अपने परिस्थित ग्रहों को धारण करता है । तद्वत् ॥१० ॥
विषय
सर्वशासक की अद्भुत शक्तियां।
भावार्थ
( यः ) जो प्रभु, सबका स्वामी सूर्यवत् ( अधिनिर्निजः ) अति शुद्ध, ( श्वेतान् ) श्वेत किरणों को वा सूर्यादि लोकों को भी ( व्रता अनु चक्रे ) नियमों के अनुकूल चलाता है, और जो ( कृष्णान् ) रात्रि कालों के समान अन्धकारमय या आकर्षणमय, प्रकाशशून्य पृथिवी आदि लोकों को भी ( व्रता अनु चक्रे ) नियमों के अनुसार ही अपने अधीन रखता है और ( यः ) जो ( स्कम्भेन ) सबको थामने वाले महान् बल से (रोदसी वि ममे) सूर्य और भूमि को आकाश में थामता है, (अजः न द्याम् अधारयत्) स्वयं अजन्मा होकर, सर्व संचालक के समान ही सूर्य या आकाश को धारण, स्थापन करता है, ( सः ) वह सर्वश्रेष्ठ वरुण ( पूर्व्यं धाम ) सबसे पूर्ण धारण सामर्थ्य या लोक वा तेज को (ममे) धारण करता है। ( अन्यके समे नभन्ताम् ) उसके द्वारा सब पापीजन नष्ट हो जाते हैं। इति सप्तविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
श्वेतान्+कृष्णान्
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (श्वेतान्) = प्रकाश से चमकते हुए श्वेत रंग के (अधिनिर्णिजः) = अति शयेन शुद्ध सूर्य आदि लोकों को (चक्रे) = बनाते हैं, तथा (व्रता अनु) = नियमों के अनुसार [व्रतं = नियम:] (कृष्णान्) = भूमि आदि कृष्ण लोकों को बनाते हैं । (सः) = वे प्रभु ही (पूर्व्यं धाम) = सर्वोत्कृष्ट मोक्षलोक का (ममे) = निर्माण करते हैं। [२] (यः) = जो प्रभु (स्कम्भेन) = अपनी धारक [ थामने की] शक्ति से (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (वि अधारयत्) = विशेष रूप से धारण करते हैं। वे (अजः न) = सर्वसंचालक के समान [अज् गतौ ] (द्याम्) = इस देदीप्यमान आदित्य को धारण करते हैं। इस सर्वाधार प्रभु के द्वारा हमारा धारण होने पर (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु ही स्वयं प्रकाश सूर्य आदि लोकों को तथा स्वयं आकाश [कृष्ण] पृथिवी आदि लोकों को बनाते हैं। प्रभु ही मोक्षलोक का भी निर्माण करनेवाले हैं-प्रभु ही मोक्षलोक हैं। वे अपनी धारणशक्ति से द्युलोक व पृथिवीलोक का धारण करते हैं। सूर्य को भी थामते हैं। इन प्रभु की कृपा से हमारे काम आदि शत्रु विनष्ट हो जाएँ। अगले सूक्त में प्रथम तीन मन्त्रों में 'वरुण' व पिछले तीन मन्त्रों में 'अश्विन' देवता हैं
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