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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उज्जा॒तमि॑न्द्र ते॒ शव॒ उत्त्वामुत्तव॒ क्रतु॑म् । भूरि॑गो॒ भूरि॑ वावृधु॒र्मघ॑व॒न्तव॒ शर्म॑णि भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । जा॒तम् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । शवः॑ । उत् । त्वाम् । उत् । तव॑ । क्रतु॑म् । भूरि॑गो॒ इति॒ भूरि॑ऽगो । भूरि॑ । व॒वृ॒धुः॒ । मघ॑ऽवन् । तव॑ । शर्म॑णि । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उज्जातमिन्द्र ते शव उत्त्वामुत्तव क्रतुम् । भूरिगो भूरि वावृधुर्मघवन्तव शर्मणि भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । जातम् । इन्द्र । ते । शवः । उत् । त्वाम् । उत् । तव । क्रतुम् । भूरिगो इति भूरिऽगो । भूरि । ववृधुः । मघऽवन् । तव । शर्मणि । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 41; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of great wealth and knowledge, honour and excellence, the celebrants repeatedly sing and exalt your glory manifested around, they celebrate you and your holy work under the umbrella of your protection. Great and good are the gifts of Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गौ हे नाव पृथ्वीचेही आहे. येथे उपलक्षण आहे. अर्थात् संपूर्ण जगाचा अभिप्राय आहे. जग व गो शब्दाचा धात्वर्थ एकच वाटतो. ‘संसरमेति संसार:’ ‘गच्छतीति गौ’ यामुळे हे दोन्ही शब्द अशा स्थानी पर्यायवाची आहेत. ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे भूरिगो=बहुसंसार ! गावः संसारा गच्छन्तीति गावः । भूरयो भूयांस उत्पाद्यत्वेन संसारा विद्यन्ते यस्य । हे मघवन्=अतएव परमधनिन् ! हे महेश ! ये कंचन तव+शर्मणि=तवाज्ञाया तवानुग्रहे वर्तन्ते । ते विद्वांसः तव जातमुद्भूतं प्रकृतिषु शवो बलम् । उद्ववृधुः=उद्वर्धयन्ति । त्वाञ्च साक्षादेव वा उद्गायन्ति । तव क्रतुं प्रज्ञाञ्च उद्गायन्ति । एवं भूरि तव यशो गायन्तीत्यर्थः । भद्रा इत्यादि पूर्ववत् ॥१० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (भूरिगो) बहुसंसार (मघवन्) हे परमधनिन् भगवन् ! जो विद्वान् (ते+शर्मणि) तेरी आज्ञा और कृपा के आश्रय में विद्यमान हैं, वे (भूरि) बहुत-२ तेरे यश को गाते हैं और जो (ते+शवः) तेरा बल (जातम्) इन प्रकृतियों में फैला हुआ है, उसको (उद्+ववृधुः) अपने गान से बढ़ा रहे हैं, (त्वाम्) तुझको साक्षात् (उद्) उच्च स्वर से गाते हैं, (तव+क्रतुम्) तेरे विज्ञानों और कर्मों को (उद्) उच्च स्वर से गाते हैं ॥१० ॥

    भावार्थ

    भूरिगो । गौ यह नाम पृथिवी का है, यह प्रसिद्ध है । यहाँ उपलक्षण है अर्थात् सम्पूर्ण संसार से अभिप्राय है । यद्वा संसार और गो शब्द का धात्वर्थ एक ही प्रतीत होता है “संसरतीति संसारः गच्छतीति गौः” । इस कारण ये दोनों शब्द ऐसे स्थलों में पर्य्यायवाची हैं ॥१० ॥

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    विषय

    उपास्य के प्रति भक्तिपूर्ण भाव।

    भावार्थ

    हे (भूरि-गो) बहुत भूमियों, पशुओं और वाणियों के स्वामिन् ! हे ( मघवन् ) पूज्य, धन, ज्ञानादि सम्पन्न, प्रभो ! गुरो ! स्वामिन् ! हे ( इन्द्र ) वाणी के मर्म के भेदन करने हारे ! शत्रुभेदक ! भूमि-भेदक ! ( ते जातम् शवः ) तेरे प्रकट हुए बल और ज्ञान को लोग ( भूरि उत् वावृधुः ) उत्तम रीति से पुत्रवत् खूब बढ़ावें। ( उत् त्वाम् ) तुझे भी बढ़ावें, अधिक बलवान्, करें। ( तव क्रतुम् उत् ) तेरे कर्म सामर्थ्य और ज्ञान की भी वृद्धि करें। ( तव शर्माणि ) तेरी शरण में रहें।

    टिप्पणी

    ( भद्राः० इत्यादि पूर्ववत् )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    बल- प्रभु- प्रज्ञान

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (जातम्) = अपने अन्दर उत्पन्न हुए-हुए (ते शवः) = आपके बल को ये उपासक सोमरक्षण द्वारा (भूरि) = खूब ही (उद् वावृधुः) = बढ़ाते हैं । शक्ति को ही क्या बढ़ाते हैं, (त्वाम् उत्) = [वावृधुः] = आपको ही वे अपने अन्दर बढ़ाते हैं । (तव) = आपके (क्रतुम्) = प्रज्ञान को (उत्) [वावृधुः] = बढ़ाते हैं । उपासक प्रभु की शक्ति को प्रभु को व प्रज्ञान को अपने अन्दर धारण करता है। [२] हे (भूरिगो) = पालक व पोषक [भृ धारणपोषणयोः] ज्ञान की वाणियोंवाले (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (तव शर्मणि) = आपके आशीर्वाद व रक्षण में ये (भूरि वावृधुः) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं । (इन्द्रस्य) = ऐश्वर्यशाली आपकी (रातयः) = देन (भद्राः) = सदा कल्याणकर हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासक में प्रभु का बल, प्रभु की भावना व प्रज्ञान का वर्धन होता है। ये प्रभु के आशीर्वाद से खूब ही वृद्धि को प्राप्त करते हैं।

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