ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
धृ॒ष॒तश्चि॑द्धृ॒षन्मन॑: कृ॒णोषी॑न्द्र॒ यत्त्वम् । ती॒व्रैः सोमै॑: सपर्य॒तो नमो॑भिः प्रति॒भूष॑तो भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठधृ॒ष॒तः । चि॒त् । धृ॒षत् । मनः॑ । कृ॒णोषि॑ । इ॒न्द्र॒ । यत् । त्वम् । ती॒व्रैः । सोमैः॑ । स॒प॒र्य॒तः । नमः॑ऽभिः । प्र॒ति॒ऽभूष॑तः । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धृषतश्चिद्धृषन्मन: कृणोषीन्द्र यत्त्वम् । तीव्रैः सोमै: सपर्यतो नमोभिः प्रतिभूषतो भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥
स्वर रहित पद पाठधृषतः । चित् । धृषत् । मनः । कृणोषि । इन्द्र । यत् । त्वम् । तीव्रैः । सोमैः । सपर्यतः । नमःऽभिः । प्रतिऽभूषतः । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 40; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 40; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
As you raise the man of courage at heart to a bolder and more courageous hero, men with homage and potent soma oblations serve and glorify you. Great and glorious are the charities of Indra.
मराठी (1)
भावार्थ
तो महेश्वर महाबलिष्ठ आहे व जे त्याने निर्धारित केलेल्या पथावरून चालतात त्यांना तो अध्यात्मरूपाने बलवान करतो. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! यद्=यस्मात्त्वम् । तीव्रैः+सोमैः=स्वप्रियैः पदार्थैः । त्वां सपर्य्यतः=पूजयतः । पुनः । नमोभिः=नमस्कारैश्च । त्वामेव प्रति भूषतः=अलङ्कृतः । धृषत्+चित्=बलवतोऽपि जनस्य । मनः+धृषत्= बलिष्ठम् । करोषि । तस्मात्त्वमेवोपास्य इत्यर्थः । भद्रा इत्यादि पूर्ववत् ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र परमेश ! (यत्) जिस कारण जो कोई तुझको (तीव्रैः+सोमैः) तीव्र आनन्दजनक प्रिय पदार्थों से (सपर्यतः) पूजते हैं और (नमोभिः+प्रतिभूषतः) विविध नमस्कार स्तुति आदियों से तुझको ही अलङ्कृत करते हैं और जो उपासना के कारण (धृषतः+चित्) अति बलवान् भी हैं, उनके (मनः+धृषत्+कृणोति) मन को और भी अधिक बलिष्ठ बना देता है । अतः (त्वम्) तू ही उपास्यदेव है ॥५ ॥
भावार्थ
वह महेश्वर अतिशय महाबलिष्ठ है और जो कोई उसके निर्धारित पथ पर चलते हैं, उनको और भी अध्यात्मरूप से बलिष्ठ बनाता जाता है ॥५ ॥
विषय
प्रभु के दिये अनेक सुखकारी दान।
भावार्थ
( तीव्रै सोमैः ) तीव्र, बलकारक साधन से ( सपर्यतः ) सेवा करते हुए ( नमोभिः प्रतिभूषतः ) अन्नों, विनय वचनों और दुष्ट दमनकारी उपायों से अपने प्रतिपक्षी का साम्मुख्य करने वाले ( धृषतः ) प्रतिपक्ष का पराजय करने वाले के ( मनः ) मन को ( चित् ) भी हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ( यत् त्वम् ) जो तू (धृषतः कृणोषि ) दृढ़, सहनशील कर देता है यह तेरा ही सामर्थ्य है। ( इन्द्रस्य रातयः भद्राः ) ऐश्वर्यवान् इन्द्र, प्रभु के दान सब उत्तम सुखप्रद होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
तीव्रैः सोमैः सपर्यतः, नमोभिः प्रतिभूषतः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वं) = आप (तीव्र:) = शक्तिशाली (सोमैः) = शरीरस्थ सोम [वीर्य] कणों द्वारा (सपर्यतः) = आपका पूजन करते हुए उपासक के (मनः) = मन को (यत्) = जब (धृषतः चित् धृषत्) = धर्षक से भी धर्षक- शत्रुओं को पीस डालनेवाला (कृणोषि) = करते हैं। तब (नमोभिः) = आपके प्रति नमन से (प्रतिभूषतः) = अंग-प्रत्यंग को शक्ति से अलंकृत करते हुए पुरुष के लिए (इन्द्रस्य) = ऐश्वर्यशाली आपकी (रातयः) = देन (भद्राः) = कल्याणकर होती हैं। [२] प्रभु का पूजन वही करता है जो शरीर में सोम का रक्षण करता है और प्रभु के प्रति नमनवाला होता हुआ अंग-प्रत्यंग को शक्ति से अलंकृत करता है। प्रभु इस पुजारी के मन को शत्रुओं को पीस डालनेवाला बना देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की उपासना सोमरक्षण व नमन द्वारा होती हैं। प्रभु हमारे मन को शत्रुओं का ध्वंसक बनाते हैं।
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