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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 11
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒हं च॒ त्वं च॑ वृत्रह॒न्त्सं यु॑ज्याव स॒निभ्य॒ आ । अ॒रा॒ती॒वा चि॑दद्रि॒वोऽनु॑ नौ शूर मंसते भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । च॒ । त्वम् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । सम् । यु॒ज्या॒व॒ । स॒निऽभ्यः॑ । आ । अ॒रा॒ति॒ऽवा । चि॒त् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । अनु॑ । नौ॒ । शू॒र॒ । मं॒स॒ते॒ । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं च त्वं च वृत्रहन्त्सं युज्याव सनिभ्य आ । अरातीवा चिदद्रिवोऽनु नौ शूर मंसते भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । च । त्वम् । च । वृत्रऽहन् । सम् । युज्याव । सनिऽभ्यः । आ । अरातिऽवा । चित् । अद्रिऽवः । अनु । नौ । शूर । मंसते । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 41; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us both, I and you, destroyer of want and evil, join for the attainment of wealth and fulfilment. O lord of might, controller of clouds and breaker of mountains, even the malignant and niggardly would agree to our cooperation. Great and glorious are the gifts of Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    याचा अभिप्राय असा आहे की, जेव्हा आम्ही ईश्वराला भेटू तेव्हाच आम्हाला सुख प्राप्त होऊ शकते. भेटण्याचा आशय हा आहे की, ज्या स्वभावाचा तो आहे त्याच स्वभावाचे आम्हीही व्हावे. तो सत्य आहे, आम्हीही सत्य व्हावे. तो उपकारी आहे, आम्हीही उपकारी व्हावे. तो परम उदार आहे, आम्हीही परमोदार व्हावे. अशा विषयात सर्वांची एकमान्यता असते. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे वृत्रहन्=निखिलविघ्ननिवारक ! हे अद्रिवः= महादण्डधर ! हे शूर ! आ+सनिभ्यः=मम सुखलाभकालावधि । अहञ्च त्वञ्च । संयुज्याव । नौ=एवं संयुक्तौ आवाम् । अरातिवा चित्=अति दुर्जनोऽपि जनः । अनु+मंसते=अनुमंस्यति=अनुमतिं करिष्यति ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वृत्रहन्) हे निखिलविघ्ननिवारक (अद्रिवः) हे महादण्डधर (शूर) हे शूर ! (आसनिभ्यः) मुझको सुखलाभ जबतक हो, तबतक (अहम्+च+त्वम्+च) मैं और तू और यह संसार सब (संयुज्याव) मिल जाएँ । जिस प्रकार हम मनुष्य परस्पर सुख के लिये मिलते हैं, इसी प्रकार तू भी हमारे साथ संयुक्त हो । (नौ) इस प्रकार संयुक्त हम दोनों को (अरातिवा+चित्) दुर्जन जन भी (अनु+मंसते) अनुमति=अपनी सम्मति देवेंगे ॥११ ॥

    भावार्थ

    इसका अभिप्राय यह है कि हमको तब ही सुख प्राप्त हो सकता है, जब हम ईश्वर से मिलें । मिलने का आशय यह है कि जिस स्वभाव का वह है, उसी स्वभाव के हम भी होवें । वह सत्य है, हम सत्य होवें । वह उपकारी है, हम उपकारी होवें । वह परम उदार है, हम परमोदार होवें इत्यादि । ऐसे-२ विषय में सबकी एक ही सम्मति भी होती है ॥११ ॥

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    विषय

    उपास्य के प्रति भक्तिपूर्ण भाव।

    भावार्थ

    हे ( वृत्र-हन्) विघ्नों और शत्रुओं के नाशक ! ( अहं त्वं च ) मैं और तू दोनों ( सनिभ्यः आ ) उत्तम धनों, ऐश्वर्यों के प्राप्त करने के लिये ( सं युज्याव ) परस्पर मिल जावें। हे ( अद्रिवः ) सैन्यादि बल से सम्पन्न ! हे ( शूर ) दुष्टनाशक ! ( अरातिवा चित् ) अदानशील अधनी भी ( नौ अनुमंसते ) हम दोनों की मानेगा।

    टिप्पणी

    ( भद्राः० पूर्ववत् )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु के साथ मेल व ऐश्वर्यलाभ

    पदार्थ

    [१] हे (वृत्रहन्) = वासना को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (अहं च त्वम् च) = मैं और आप (आ सनिभ्यः) = समन्तात् ऐश्वर्य के प्राप्ति के लिए (संयुज्याव) = सम्यक् मिल जाएँ। मैं आपके साथ एक होकर ही तो सब ऐश्वर्यों को पानेवाला बनता हूँ। [२] हे (अद्रिवः) = वज्रहस्त अथवा आदरणीय शूर शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! नौ इकठ्ठे हुए हुए हमारे (आरातीवा) = अदानशील पुरुष भी (अनुमंसते) = अनुकूल मतिवाला होता है। प्रभु के साथ एक हो गये उपासक को (कृपण) = व्यक्ति भी उदारता से धनों का देनेवाला होता है। उस (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की (रातयः) = देन (भद्राः) = अतिशयेन कल्याणकर हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के साथ मेल हो जाने पर सब ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो जाती है।

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